गंगा सफाई जैसी परियोजना न साबित हो जाए दिल्ली में कचरे के पहाड़, कूड़ा वहीं रहेगा पर अधिकारियों की जेबें भरती रहेंगी

कचरे की समस्या का समाधान तभी संभव है जब इसे समस्या समझा जाए। दिल्ली में कचरे के पहाड़ों से एक तरफ कचरा हटाया जा रहा है, उससे बिजली बन रही है, कम्पोस्ट खाद बनाई जा रही है। तो दूसरी तरफ किसी वैकल्पिक व्यवस्था के न होने से पूरी दिल्ली से प्रतिदिन उत्पन्न होने वाला कचरा इन्हीं पहाड़ों पर डाला जा रहा है।

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महेन्द्र पांडे

हमारे देश में पर्यावरण संरक्षण में कोई ऐसा काम नहीं किया जाता, जिसे उपलब्धि के तौर पर बताया जा सके- इसलिए हमारे प्रधानमंत्री जी अपने भाषणों से ही पर्यावरण सुरक्षा करते रहते हैं। कुछ वर्ष पहले तक उनके भाषणों में पर्यावरण के सन्दर्भ में 5000 वर्षों की परम्परा, वसुधैव कुटुम्बकम और संस्कृत के दूसरे श्लोकों का समावेश रहता था। इसके बाद जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि के लिए केवल विकसित देशों को जिम्मेदार ठहराना शुरू किया और अब पिछले दो वर्षों से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों से प्रधानमंत्री जी लगातार बताते रहे हैं कि हमारे पूर्वजों की जीवन शैली पर्यावरण अनुकूल थी और हमारे देश में दुनिया के सभी पर्यावरण समस्याओं का समाधान है।

इसे प्रधानमंत्री जी ने स्वतंत्रता दिवस के दिन लाल किले से भी बताया, इससे पहले 5 जून को यह बता चुके थे और पिछले वर्ष ग्लासगो के जलवायु परिवर्तन सम्मलेन में भी यही कहा था। यह बात दूसरी है कि हमारे देश की हवा दुनिया में सबसे प्रदूषित है, गंगा समेत सभी नदियां प्रदूषण की चपेट में हैं, जंगलों का क्षेत्र इतना कम होता जा रहा है कि अब फलों के बाग़ और बागवानी के क्षेत्र को भी जंगल बताना पड़ रहा है, कचरे के पहाड़ हरेक शहर में खड़े हैं, हरेक शहर में शोर लोगों को बहरा कर रहा है, सागर तट कचरे के ढेर बनते जा रहे हैं, भूजल ख़त्म हो रहा है, तालाब पाट दिए गए हैं और पर्यावरण संरक्षण और वन संरक्षण से सम्बंधित हरेक क़ानून पहले से अधिक लचर कर दिए गए हैं।

दिल्ली में कचरे के पहाड़ हमारी जीवन शैली की सरे आम गवाही देते हैं और समस्या के समाधान के बजाय इसके महज राजनैतिक इस्तेमाल का उदाहरण भी बनते हैं। लगभग तीन वर्ष पहले दिल्ली में गाजीपुर, ओक्ला और भलस्वा स्थित कचरे के पहाड़ों पर गौतम गंभीर समेत भाजपा के अनेक नेताओं ने दिल्ली सरकार को खूब कोसा था, जबकि दिल्ली में कचरे की निपटान की जिम्मेदारी नगर निगम की है और नगर निगम भाजपा के अधीन है। इसके बाद आनन्-फानन में लेकिन अत्यधिक प्रचार के साथ नगर निगमों ने एक योजना प्रस्तुत की जिसके तहत दावा किया गया कि अगले 50 महीनों में भीतर दिल्ली के कचरे के तीनों पहाड़ ख़त्म हो जायेंगें।

कचरे के पहाड़ों को हटाने का काम शुरू किया गया और अब इस काम के 34 महीने बीत चुके हैं। काम शुरू होने से पहले के अनुमान के अनुसार दिल्ली के भलस्वा, ओखला और गाजीपुर लैंडफिल साईट पर पहले से मौजूद कचरे की सम्मिलित मात्रा लगभग 2.8 करोड़ टन थी और अब इसे हटाने का काम शुरू होने के 34 महीनों बाद भी इसकी मात्रा 2.76 करोड़ टन है। इसका सीधा सा मतलब है कि पिछले 34 महीनों के दौरान कचरे में महज 4 लाख टन, या प्रतिदिन महज 5315 टन की कमी आई है। कचरे हटाने के वर्तमान दर के अनुसार इसे पूरी तरह से हटाने में कुल 197 वर्ष लगेंगें। यहां यह ध्यान रखना आवश्यक है कि नगर मिगम ने इस काम को कुल 50 महीनों में करने का दावा किया था, जिसमें से 34 महीने बीत चुके हैं और महज 16 महीने शेष हैं।

दरअसल कचरे की समस्या का समाधान तभी संभव है जब इसे समस्या समझा जाए। यह समस्या केवल दिल्ली की नहीं है बल्कि देश के हरेक महानगर, शहर और कस्बे की है। दिल्ली के मामले में सबसे हास्यास्पद तथ्य यह है कि यहां के कचरे के पहाड़ों से एक तरफ कचरा हटाया जा रहा है और उससे बिजली बन रही है और कम्पोस्ट खाद बनाई जा रही है तो दूसरी तरफ किसी वैकल्पिक व्यवस्था के नहीं होने के कारण पूरी दिल्ली से प्रतिदिन उत्पन्न होने वाला कचरा इन्हीं पहाड़ों पर डाला भी जा रहा है। इन कचरों के पहाड़ से प्रतिदिन औसतन 5500 टन कचरा हटाया जा रहा है, तो दूसरी तरफ हरेक दिन इनपर 5100 टन नया कचरा डाल दिया जाता है, इस तरह हरेक दिन महज 400 टन कचरा ही कम हो पाता है। यदि, इन लैंडफिल क्षेत्रों पर नए कचरे को डालना पूरी तरह से बंद भी कर दिया जाए तबभी इसे आज के हटाने की दर से पूरा हटाने में 14 वर्ष लगेंगें, जबकि नगर निगन का दावा महज अगले 16 महीनों का ही है। जाहिर है यह भी गंगा सफाई जैसी एक परियोजना होने वाली है जो अनन्त काल तक चलती रहेगी – कचरा वहीं रहेगा पर अधिकारियों की जेबें भरती जायेंगीं।

यह कचरा हमारी उस जीवन शैली का प्रतीक है, जिसके द्वारा प्रधानमंत्री जी दुनिया को पर्यावरण समस्याओं का समाधान देने का दावा करते हैं। केंद्र सरकार के जलशक्ति मंत्रालय और केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के एक सम्मिलित अध्ययन के अनुसार दिल्ली में अप्रैल 2021 में प्रतिदिन 10990 टन कचरा उत्पन्न होता था। इसमें से लगभग 49 प्रतिशत यानि 5457 टन का उपयोग बिजली बनाने या कम्पोस्ट बनाने में किया जाता था, और शेष 51 प्रतिशत यानि 5533 टन लैंडफिल पर भेज दिया जाता था। इस अध्ययन में आगे बताया गया है कि पिछले एक वर्ष के दौरान दिल्ली में उत्पन्न कुल कचरे की मात्रा में 15 प्रतिशत की बृद्धि दर्ज की गयी है। अप्रैल 2022 में दिल्ली से प्रतिदिन उत्पन्न कचरे की मात्रा बढ़कर 11293 टन पहुंच गयी। हमारे सरकारों और नगर निगमों की कचरा प्रबंधन की प्रतिबद्धता तो देखिये – एक तरफ तो लैंडफिल को सपाट करने का दावा था तो दूसरी तरफ दिल्ली से उत्पन्न कुल कचरे में से लैंडफिल तक पहुंचने वाले कचरे की मात्रा ही बढ़ने लगी। अप्रैल 2022 में दिल्ली द्वारा प्रतिदिन उत्पन्न किये जाने वाले 11293 टन कचरे में से 56.4 प्रतिशत यानि 6366 टन कचरा लैंडफिल तक पहुंचने लगा जबकि महज 43.6 प्रतिशत, यानि 4929 टन का उपयोग ही बिजली बनाने और कम्पोस्ट बनाने में किया जाता है।

हाल में ही एक वैज्ञानिक अध्ययन से पता चला है कि भारत समेत दुनियाभर में लैंडफिल से मीथेन गैस के उत्सर्जन के आंकड़े वास्तविक उत्सर्जन की तुलना में आधे से एक-तिहाई तक ही सरकारों द्वारा प्रस्तुत किये जा रहे हैं। इस अध्ययन को नीदरलैंड के इंस्टिट्यूट ओर स्पेस रिसर्च के वैज्ञानिक जोंनेस मासक्केर्स की अगुवाई में किया गया है और साइंस एडवांसेज नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया है। इस अध्ययन के लिए भारत से दिल्ली और मुंबई, पाकिस्तान से लाहौर और अर्जेंटीना के ब्युनेस आयर्स का चयन किया गया। सैटेलाइट की तस्वीरों से इन शहरों के ऐसे स्थानों की पहचान की गयी, जहां से वायुमंडल में भारी मात्रा में मीथेन लगातार मिलता रहता है। इसके बाद इन चित्रों को एनलार्ज कर वहां के भू-उपयोग की पहचान की गयी। लगातार अत्यधिक मीथेन का उत्सर्जन करने वाले सभी क्षेत्र लैंडफिल थे। इस अध्ययन के अनुसार अब तक सरकारों द्वारा मीथेन के उत्सर्जन के प्रस्तुत आंकड़ों की तुलना में इन शहरों से 1.4 से 2.6 गुना अधिक उत्सर्जन होता है, और इसका मुख्य स्त्रोत लैंडफिल क्षेत्र हैं।

जोंनेस मासक्केर्स के अनुसार सैटेलाइट द्वारा प्राप्त चित्रों और जानकारियों की सहायता से मीथेन के उत्सर्जन का परिमापन पहली बार किया गया है, पर अब इस तरह के अध्ययन व्यापक स्तर पर किये जाने लगे हैं। उन्होंने कहा है कि इस अध्ययन के परिणाम के बाद इन देशों की सरकारों को मीथेन उत्सर्जन पर लगाम लगाने की योजना बनानी चाहिए। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के अनुसार मीथेन उत्सर्जन के सन्दर्भ में दुनिया में चीन सबसे आगे है और दूसरे स्थान पर भारत है। वर्ष 2021 में ग्लासगो में तापमान बृद्धि नियंत्रित करने से सम्बंधित आयोजित कॉन्फ्रेंस ऑफ़ पार्टीज के 26वें अधिवेशन के दौरान सभी देशों द्वारा वर्ष 2030 तक मीथेन उत्सर्जन में 30 प्रतिशत की कटौती करने के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय समझौते की पहल की गयी थी, जिसपर 104 देशों के प्रतिनिधियों ने हस्ताक्षर भी किये, पर चीन और भारत दोनों ने इस समझौते से अपने को अलग रखा।

इस अध्ययन के अनुसार लैंडफिल से मीथेन का उत्सर्जन लाखों गाड़ियों के उत्सर्जन के बराबर होता है। अर्जेंटीना के ब्युनेस आयर्स के लैंडफिल से प्रति घंटे 28 टन मीथेन का उत्सर्जन होता है, इसका तापमान बृद्धि पर प्रभाव उतना ही होता है जितना 15 लाख गाड़ियों के उत्सर्जन से होता है। दिल्ली के गाजीपुर लैंडफिल से 3 टन प्रति घंटा, लाहौर से 6 टन प्रति घंटा और मुंबई से 10 टन प्रति घंटा मीथेन का उत्सर्जन होता है। इतना प्रदूषण डेढ़ लाख से 5 लाख गाड़ियों के उत्सर्जन से होता है।

दिल्ली या पूरे देश में पर्यावरण की किसी समस्या का समाधान हमारी जीवन शैली से निकलता हो या नहीं निकलता हो पर इतना तो स्पष्ट है कि सरकारें और नगर निगम आंकड़ों की बाजीगरी से हरेक समस्या का समाधान निकालना जानती हैं। हमारे ऊपर भी इन समस्याओं का कोई असर नहीं होता, बल्कि हालत ऐसी हो चुकी है कि प्रधानमंत्री या बीजेपी का कोई नेता कचरे के पहाड़ के सामने खड़े होकर भी जनता से यदि पूछे कि कचरे का पहाड़ हट गया या नहीं, तो जनता इसका जवान हट गया ही देगी। यह भी संभव है कि गंगा किनारे के ट्रीटमेंट प्लांट की तरह ही, किसी न्यायालय में बहस ही सुनवाई के दौरान न्यायाधीश द्वारा की गयी टिप्पड़ी से जनता को यह पता चले कि कचरे के पहाड़ को हटाने के काम में अडानी या अम्बानी शामिल हैं।

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