बदल रहा है प्रजातंत्र का स्वरुप, कट्टर दक्षिणपंथी विचारधारा वाली पार्टियां पूरी दुनिया में सिंहासन पर काबिज

प्रजातंत्र के बदलते स्वरुप पर अमेरिका के स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी के सीनियर फेलो फ्रांसिस फुकुयामा ने विस्तृत अध्ययन किया है। अप्रैल 2023 में यूरोप में प्रजातंत्र के भविष्य संबंधी सेमीनार में उन्होंने वैश्विक प्रजातंत्र पर बेबाकी से अपने विचार रखे थे।

फोटो: सोशल मीडिया
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महेन्द्र पांडे

पिछले वर्ष से लेकर अबतक जितने देशों में भी संसदीय चुनाव हुए है, उनमें पोलैंड अकेला ऐसा उदाहरण है जहां लोकलुभावनवादी कट्टरपंथी राष्ट्रवादी दलों की हार हुई है और जीवंत प्रजातंत्र वाले दल सत्ता तक पहुंचने वाले हैं। दूसरे सभी देशों में इसका ठीक उल्टा हो रहा है। स्लोवेनिया में रूस के प्रखर समर्थक सत्ता तक पहुंच गए हैं जबकि मालदीव्स में चीन के मुखर समर्थक सत्ता में हैं। जाहिर है, चीन और रूस के समर्थकों को प्रजातंत्र से कोई मतलब नहीं होगा। न्यूज़ीलैण्ड में पिछले अनेक वर्षों तक जीवंत प्रजातंत्र के सिद्धांतों पर चलने वाली सत्ता में रही लेबर पार्टी की हाल के चुनावों में करारी हार हो गयी है और अब क्रिस्टोफर लुक्सों के नेतृत्व में कट्टर दक्षिणपंथी विचारधारा वाली नेशनल पार्टी सरकार बनाने के लिए तैयार है। फ़िनलैंड, इटली और स्वीडन जैसे पारंपरिक प्रजातंत्र वाले देशों में भी वर्तमान सरकारों में राष्ट्रवादी, लोकलुभावनवादी और दक्षिणपंथी विचारधारा वाले राजनैतिक दल गठबंधन का प्रमुख हिस्सा हैं।

प्रजातंत्र का घिनौना स्वरुप इजराइल में स्पष्ट दिखाई देता है। प्रधानमंत्री नेतान्याहू जनता के बीच कभी लोकप्रिय नहीं रहे पर चुनावों में धांधली और गठबंधन राजनीति में महारत के कारण लम्बे समय से प्रधानमंत्री हैं और अपने गैर-प्रजातांत्रिक एजेंडे को जनता पर थोप रहे हैं। पहले उन्होंने नई शिक्षा नीति बनाई, जिसके तहत इजराइल का एक नया इतिहास बताया जा रहा है और फिलिस्तीन को पूरी तरह से हटा दिया गया है। इसका व्यापक विरोध किया गया। फिर, अपने आप को तमाम अपराधिक मुकदमों से बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के अधिकार कम करने का क़ानून संसद में अनुमोदित कराया। इसका भी व्यापक विरोध लम्बे समय तक इजराइल की जनता करती रही। अपनी गिरती साख को बचाने के लिए गाजा क्षेत्र में लगातार फिस्तीनियों पर, उनकी संपत्तियों पर, उनके मस्जिदों पर, मीडिया संस्थानों और और पत्रकारों पर लगातार हमले कराते रहे और पूरी दुनिया यह तमाशा देखती रही। अभी हाल में ही जब हमास ने इजराइल के कुछ क्षेत्रों पर जब हमला किया तब नेतान्याहू ने पूरे गाजा क्षेत्र में हमला कर दिया, जिसमें हजारों लोग मारे जा चुके हैं।


इस पूरे घटनाक्रम में वैश्विक स्तर पर मरते प्रजातंत्र का चरित्र उजागर हो गया। अमेरिका, भारत और अनेक यूरोपीय देश जो इजराइली सेना द्वारा लगातार की जाने वाली बर्बर और हिंसक कार्यवाहियों पर आँखें बंद कर लेते थे, कोई वक्तव्य नहीं देते थे – अब इजराइल के साथ बेशर्मों की तरह खड़े नजर आ रहे हैं, उसके सहायता कर रहे हैं। वैश्विक स्तर पर प्रजातंत्र का यही घिनौना चेहरा चारों तरफ नजर आने लगा है। अपने आप को प्रजातंत्र का मसीहा समझने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने गाजा क्षेत्र में फिलिस्तीनियों की मदद के लिए 10 करोड़ डॉलर की राशि का ऐलान तो किया है, पर दूसरी तरफ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में युद्ध बंद करने के प्रस्ताव पर वीटो लगा दिया है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाईडेन ने गाजा के अस्पताल पर इजरायली नरसंहार को भी हमास का बताकर इजराइल को आगे नरसंहार का प्रबल समर्थन कर दिया है। एक तथ्य यह भी है कि प्रजातंत्र से दूर रहने वाले रूस और चीन ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया है, जबकि यूनाइटेड किंगडम ने इस प्रस्ताव पर मतदान से दूरी बना ली।

दुनिया के तमाम देशों में संसद हैं, जनता के तथाकथित प्रतिनिधि चुने जाते हैं, चुनाव भी कराये जाते हैं – यह सब देखकर या पढ़कर तो सतही तौर पर यही महसूस होता है कि दुनिया में प्रजातंत्र फल-फूल रहा है। पर, पिछले कुछ वर्षों से भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में प्रजातंत्र का स्वरुप तेजी से बदल रहा है। जब हम प्रजातंत्र कहते हैं तो इसका मतलब प्रजातंत्र के पारंपरिक या लिबरल स्वरुप से होता है जिसमें चुनावों में सत्ता का अधिपत्य नहीं होता, चुनावों को पैसे के बल पर नहीं बल्कि उम्मीदवारों की योग्यता पर जीता जाता है, एक मुखर विपक्ष होता है, मीडिया और सिविल सोसाइटीज पर कोई अंकुश नहीं होता और चुनावों के बाद जनता के मुद्दों पर सत्ता काम करती है, मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की आजादी पर कोई अंकुश नहीं होता।

पर, आज के दौर में अधिकतर देशों में प्रजातंत्र का यह स्वरुप विलुप्त हो चुका है और इसके स्थान पर निरंकुश, कट्टरपंथी राष्ट्रवादी, लोकलुभावनवादी, दक्षिणपंथी या वामपंथी सत्ता पूरी दुनिया में सिंहासन पर काबिज है – यह वैश्विक स्तर पर एक “न्यू नार्मल” है। हाल में ही पोलैंड में चुनावों में पिछले 8 वर्षों से सत्ता में काबिज लोकलुभावन राजनैतिक दल लॉ एंड जस्टिस पार्टी का सत्ता से जाना तय है और इसके स्थान पर पारंपरिक प्रजातंत्र के पक्षधर पूर्व प्रधानमंत्री डोनाल्ड टस्क की अगुवाई में सिविल कोएलिशन की सरकार बनने की संभावना है। पिछले 8 वर्ष से सत्ता में रही लॉ एंड जस्टिस पार्टी ने प्रजातंत्र के नाम पर निष्पक्ष मीडिया का दमन किया, प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया, जनता को कुचलने वाले नए क़ानून बनाये, संवैधानिक संस्थाओं के अधिकार छीने, अल्पसंख्यकों और गैर-यूरोपीय विस्थापितों के विरुद्ध भ्रामक प्रचार कर हिंसा को फैलाया। चुनावों के बाद अभी नई सरकार तो नहीं बनी है, पर सत्ता बदलने का जश्न जनता ने सडकों पर मनाना शुरू भी कर दिया है।

प्रजातंत्र के बदलते स्वरुप पर अमेरिका के स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी के सीनियर फेलो फ्रांसिस फुकुयामा ने विस्तृत अध्ययन किया है। अप्रैल 2023 में यूरोप में प्रजातंत्र के भविष्य संबंधी सेमीनार में उन्होंने वैश्विक प्रजातंत्र पर बेबाकी से अपने विचार रखे थे। फ्रांसिस फुकुयामा ने कहा कि,”फ्रीडम हाउस ने मार्च 2023 में विश्व में आजादी नामक रिपोर्ट का नया संस्करण प्रकाशित किया था, जिसके अनुसार पिछले 17 वर्षों से लगातार दुनिया में प्रजातंत्र का ह्रास हो रहा है। जाहिर है, यह ट्रेंड वर्ष 2008 से लगातार चला आ रहा है। पर, मेरा मानना है कि प्रजातंत्र महज एक पारिभाषिक शब्दावली है। दरअसल जब हम प्रजातंत्र की बात करते हैं तब इसका आशय लिबरल डेमोक्रेसी यानि पारंपरिक प्रजातंत्र से होता है। ध्यान से देखें तो लिबरल डेमोक्रेसी के दो अलग हिस्से हैं – लिबरल और डेमोक्रेसी। “लिबरल” या परम्परागत शब्द नौकरशाही पर अंकुश, सबके लिए एक क़ानून व्यवस्था और संवैधानिक संस्थाओं की निष्पक्षता से संबंधित है – जो समाज में रहने वाली आबादी की आजादी और अधिकारों के बारे में है। दूसरा हिस्सा, यानि “प्रजातंत्र” का मतलब चुनावी व्यवस्था, संसद और सत्ता की प्रजातांत्रि जवाबदेही है। हालांकि लिबरल डेमोक्रेसी के दोनों हिस्से एक ही लगते हैं और एक दूसरे से जुड़े हैं, पर दोनों एक ही विषय नहीं हैं।


फ्रांसिस फुकुयामा के अनुसार, “रूस और चीन जैसे देशों में ना तो लिबरल हैं और ना ही डेमोक्रेसी है, इसलिए इन देशों में निरंकुशता का स्पष्ट खतरा है। पर, इन दिनों प्रजातंत्र में एक नया चलन आ रहा है – प्रजातंत्र का सहारा लेकर लोकलुभावन राष्ट्रवादी सरकारें – जो या तो कट्टर दक्षिणपंथी हैं या वामपंथी विचारधारा वाले दल सत्ता में तेजी से पहुँच रहे हैं और इनका पहला प्रहार ही परम्परागत प्रजातंत्र और जनता की आजादी पर हो रहा है। हंगरी में एरडोगन, भारत में मोदी, अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प और ब्राजील में बोल्सेनारो इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। ऐसे बहुत सारे राजनेता पूरी दुनिया में वैध तरीके से या फिर जनता को गुमराह और चुनावों में बड़े पैमाने पर धांधली के बाद सत्ता तक पहुंच रहे हैं।”

फ्रांसिस फुकुयामा ने आगे बताया, “सत्ता तक पहुंचते ही ऐसे राजनेता कहते हैं – हमें जनता ने चुना है, जनता ने हमपर भरोसा दिखाया है और हम ही जनता की आवाज हैं। इसके बाद वे कहते हैं – अमुक जज, अमुक पत्रकार या मीडिया हाउस, अमुक संवैधानिक संस्था या अमुक नौकरशाह हमारा विरोध कर रहा है यानि जनता का विरोध कर रहा है। जाहिर है, जब इन निष्पक्ष व्यक्तियों या संस्थानों पर वैध-अवैध कार्यवाही की जाती है तब जनता इसे अपनी विजय समझती है। इस विजय की आड़ में सबसे तेजी से जनता की आजादी और अधिकारों का ही हनन किया जाता है। विरोध की सारी आवाजें दबा दी जाती हैं, यानि

लिबरल डेमोक्रेसी के लिबरल हिस्से पर चोट की जाती है। इसके बाद डेमोक्रेसी यानि चुनाव तंत्र और संसदीय व्यवस्था पर चोट कर विपक्ष को कुचला जाता है। इसका सबसे अधिक नुकसान प्रजातंत्र के साथ जनता को ही होता है, पर हरेक बार ऐसी सत्ता जनता को बताती है कि यह सब उसकी भलाई के लिए ही किया जा रहा है। जनता के अधिकारों को प्रजातंत्र का नाम लेकर कुचलने वाली सरकारें समाज के अल्पसंक्ख्यकों के अधिकारों का हनन करती है और बहुसंख्यकों के एक तबके को तमाम सुविधाएं देती है। यह सब तुर्किये और भारत में देखा जा सकता है।”

जाहिर है दुनिया में प्रजातंत्र का स्वरुप तेजी से बदल रहा है, और वैश्विक स्तर पर तमाम राजनैतिक दलों में होड़ लगी है कि प्रजातंत्र को किस हद तक घिनौना बनाया जा सकता है और जनता से कितना दूर किया जा सकता है।

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Published: 22 Oct 2023, 7:00 AM