भारतीय अमेरिकियों में भी भक्तों की तादाद काफी बड़ी, लेकिन नई पीढ़ी को रास नहीं बांटने वाली नीतियां

अमेरिका में जन्म लेने वाली नई भारतीय पीढ़ी की चिंता मानवाधिकार, लोकतांत्रिक और वंचितों के अधिकार के प्रति है। इस पीढ़ी का भारत से संपर्क बड़ा कमजोर सा रह गया है। उनके लिए भारतीय मूल का मतलब भारतीय खाना पसंद करना और हिंदी फिल्में देखने तक ही सीमित है।

भारतीय अमेरिकियों में भी भक्तों की तादाद काफी बड़ी
भारतीय अमेरिकियों में भी भक्तों की तादाद काफी बड़ी
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नवजीवन डेस्क

उन तमाम भारतीय अमेरिकियों के लिए राहुल गांधी की हाल की अमेरिका यात्रा के दौरान उनकी बातचीत आंखें खोलने वाली थीं जिन्होंने ट्रोल्स के चश्मे से कांग्रेस नेता के बारे में धारणा बना ली थी। ऐसे दौर में जब नेता लोगों की भावनाओं को भुनाते हैं, राहुल गांधी ने विचारों और नजरिये की अहमियत पर जोर दिया और भारतीय अमेरिकियों को कहा कि महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, बी.आर. आंबेडकर और सरदार वल्लभभाई पटेल जैसे भारत निर्माता भी कभी उनकी तरह ही अनिवासी भारतीय (एनआरआई) थे। उन्होंने भारतवंशियों से कहा, ‘दूसरों के प्रति बुरा होना, अहंकारी होना, हिंसक होना भारतीय मूल्य नहीं हैं। यदि ये भारतीय मूल्य होते, तो हम गांधी, गुरु नानक या आंबेडकर की पूजा नहीं करते।’

आज भारतीय अमेरिकी समुदाय का जो ध्रुवीकरण दिख रहा है, वह इस सदी से शुरू हुआ जब ऐतिहासिक अत्याचार की भावना बलवती हुई। कांग्रेस और पहले भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के प्रति आक्रोश पनपा। लिविंग रूम में होने वाली बातचीत में नेहरू के प्रति प्रतिक्रिया धीरे-धीरे आक्रामक होती गई और फिर कठोर होते रुख के साथ लोगों का अंदाज उपहास वाला हो गया। अफसोस की बात है कि आधुनिक भारत के निर्माता के तौर पर कोई अगर नेहरू का परोक्ष जिक्र भी कर दे तो आक्रामक सवालों की बौछार हो जाती है। प्रवासी भारतीयों के बीच, जो लोग प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का समर्थन करते हैं, उन्हें इसमें कोई गलती नहीं दिखती। यहां तक कि सरकार की नीतिगत कमियों की ईमानदार आलोचना को भी भारतीय लोकाचार पर हमला माना जाता है और इसपर तत्काल और कड़ी प्रतिक्रिया आती है। 

इसलिए कोई हैरानी नहीं कि काफी भारतीय-अमेरिकियों को मुंह बंद रखना विवेकपूर्ण लगता है। जर्मन शोधकर्ता एलिजाबेथ नोएल-न्यूमैन का सिद्धांत कहता है कि विवादास्पद मुद्दों पर राय जाहिर करने की लोगों की इच्छा इस बात पर निर्भर करती है कि वह धारणा लोकप्रिय है या अलोकप्रिय।

ऐसे दौर में जब आक्रोश एक ‘उद्योग’ बन गया है, यहां तक कि कई दशकों पहले अपनी मातृभूमि को छोड़ चुके भारतीय अमेरिकी भी इस नैरेटिव की जाल में फंस गए हैं कि एक महान सभ्यता को सदियों तक मुगल और ब्रिटिश शासन ने अत्याचार और जोर-जबर्दस्ती से दबाए रखा। ये अति-देशभक्त ‘इंडिया’ शब्द के इस्तेमाल से भी परहेज करते हैं और इसकी जगह देश को ‘भारत’ कहते हैं। 

कुछ तो यहां तक कहते हैं कि भारत को असली आजादी तो पिछले दशक में मिली जब एक ‘बंधनमुक्त हिन्दुस्तान’ का उदय हुआ। इतिहास की बारीकियों की ओर इन ‘अंध देशभक्तों’ का ध्यान नहीं जाता। अगर वे थोड़ा ठहरकर सोचें तो 15 अगस्त, 1947 को नेहरू की घोषणा में उन्हें जवाब मिल जाएगा। तब नेहरू ने कहा था- ‘एक युग खत्म हुआ और लंबे अरसे से दबाई गई एक राष्ट्र की आत्मा को आवाज मिली।’ 

अगर मेरी याददाश्त ठीक है तो 1990 के दशक की शुरुआत में दक्षिण भारत के एक प्रमुख समाचार पत्र के लिए रिपोर्टिंग करते समय मैंने अहमदाबाद में नरेन्द्र मोदी का इंटरव्यू किया था। तब वह बीजेपी के वरिष्ठ पदाधिकारी थे और बड़े सुलभ थे। हमने एक घंटे से ज्यादा समय साथ बिताया। स्थानीय मुद्दों पर उनकी पकड़ बेहतरीन थी। कई मायनों में वह आज के राहुल गांधी की तरह थे। सवालों का स्वागत करते और चुनौती देने वालों से बेफिक्र रहते। आज वह जिस साम्राज्यवादी व्यवहार के लिए जाने जाते हैं, वह उनमें बहुत बाद में विकसित हुआ।


प्रधानमंत्री चुने जाने के बाद से मोदी के पास भारतीय अमेरिकियों के बीच कट्टर समर्थकों का एक बड़ा वर्ग है। 2014 में मैंने भारतीय अमेरिकियों के समूहों पर रिपोर्ट की थी जो मोदी को वोट देने के लिए भारत में दोस्तों और रिश्तेदारों को फोन करते थे। उनमें से कई बताते हैं, आज दुनिया में ऐसे नेता को खोजना मुश्किल है जिसके पास मोदी जैसी ‘लोकप्रियता रेटिंग’ हो। ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री एंथनी अल्बनीज ने हाल ही में मोदी को ‘विश्व नेताओं में रॉक स्टार’ कहा। ह्यूस्टन में ‘हाउडी, मोदी’ रैली जिसे भारतीय प्रधानमंत्री ने 2019 में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ आयोजित किया था, में 50,000 से ज्यादा लोगों ने भाग लिया था और इतनी संख्या केवल पोप ही जुटा सके थे। 

एक खास चश्मे से देखने पर लोगों को लगता है कि मोदी की मौजूदा यात्रा और अमेरिकी कांग्रेस के संयुक्त सत्र में उनका संबोधन वैश्विक पटल पर भारत की धमक का उद्घोष है। जाहिर है, ऐसे लोगों को पहले के प्रधानमंत्रियों द्वारा ऐसे दौरे और संबोधन नहीं दिखते।

भारत को अमेरिका के चुनिंदा पसंदीदा भागीदार बनाने के पीछे तमाम राजनीतिक और आर्थिक बदलाव हैं। ताईवान को लेकर बढ़ता तनाव, चीन को उन्नत कंप्यूटर चिप्स के निर्यात पर हाल ही में लगा अमेरिकी प्रतिबंध और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की नजदीकियों ने अमेरिका के लिए भारत को और अधिक प्रासंगिक बना दिया है। 

अगर परस्पर समझौतों की बात करें, तो संभवतः मोदी की यात्रा सफल कही जाएगी और शायद आपसी रिश्तों में यह एक नए युग की शुरुआत भी हो। लेकिन इसे एक व्यक्ति या एक पार्टी की निजी कामयाबी के तौर पर देखना या किसी एक करिश्माई नेता की वजह से इसे एक अंतहीन सहयोग मान लेना अदूरदर्शिता होगी। 

हेनरी किसिंजर जिन्होंने अमेरिकी विदेश मंत्री के रूप में चीन के साथ अमेरिका के संबंधों का मार्ग प्रशस्त किया था, ने सही ही कहा था, ‘अमेरिका का कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं है, स्थायी है तो सिर्फ अमेरिका का हित।’ वह किसिंजर ही थे जिन्होंने 1972 में राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की चीन की ऐतिहासिक यात्रा की भूमिका तैयार की और तब उन्होंने निक्सन की चीन यात्रा वाले हफ्ते को दुनिया बदल देने वाला हफ्ता कहा था। और आज देखिए, अमेरिका के चीन के साथ रिश्ते शायद उसके इतिहास में सबसे भयावह शक्ल में हैं।


कुछ लोग यह सोचकर आश्वस्त हो सकते हैं कि राहुल गांधी ने जब खुद को बेहतर बनाने की अपील की तो कई भारतीय अमेरिकियों की प्रतिक्रिया गर्मजोशी भरी थी और यह एक नए आंदोलन की शुरुआत हो सकती है। लेकिन फिनलैंड जैसी जगह में भी दक्षिणपंथ का जिस जोरदार तरीके से उदय हो रहा है, वह इन आशाओं की हकीकत दिखा देता है। 

हालांकि अमेरिका में ही जन्म लेने वाले भारतीयों का उदारता की ओर झुकाव अपनी पिछली पीढ़ी से कहीं ज्यादा है और उनकी ज्यादा चिंता मानवाधिकारों, लोकतांत्रिक अधिकारों और वंचितों के अधिकारों के प्रति है। इस पीढ़ी के लोगों का भारत से संपर्क बड़ा कमजोर सा रह गया है। वे भारतीय खाना पसंद कर सकते हैं, बॉलीवुड फिल्में देख सकते हैं लेकिन उनके लिए भारतीय मूल का इतना ही मतलब है। 

जैसा कि मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने कहा था- ‘नैतिक ब्रह्मांड का चाप विशाल है लेकिन इसका झुकाव न्याय की ओर होता है।’ 

(लेखक अशोक ईश्वरन ने तीन दशकों तक उत्तरी अमेरिका से रिपोर्टिंग की है। वह साउथ एशियन अखबार के संपादक और एक प्रवासी प्रतिपालक संगठन के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर भी रहे हैं)

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