देश में बढ़ती आर्थिक विषमता से खत्म होता आजादी का मकसद

विख्यात आर्थिक पत्रिका फोर्ब्स अरसे से दुनिया भर के अरब-खरबपतियों की सूची छापती है। 1990 तक इसमें एक भी भारतीय नहीं दिखता था। आज इस लिस्ट में 100 से अधिक भारतीय हैं। पर यह कोई गुमान की बात नहीं, बल्कि बढ़ते सामाजिक तनाव और हिंसक अपराधों की घंटी है।

फोटोः सोशल मीडिया
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राजेश रपरिया

आज देश में आय की विषमता चरम पर है, जिसके कुप्रभाव देश की तरक्की और समाज पर दिखाई देने लगे हैं। इससे संविधान की मूल प्रस्तावना के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक न्याय का संकल्प बेमतलब हो गया है। आज देश की कुल आय के 51 फीसदी हिस्से पर महज 1 फीसदी लोगों का कब्जा है। पिछले तीन दशकों में तेजी से बढ़ी आर्थिक असमानता ने आजादी के मंसूबों पर पानी फेर दिया है और अधिसंख्य आबादी शोषण और अभावों के बीच जीने के लिए अभिशप्त है।

दुख की बात है कि बढ़ती आर्थिक विषमता पर सरकारी दस्तावेज मौन हैं। दो फ्रेंच अर्थशास्त्रियों लुकास चांसल और थॉमस पिकेटी का शुक्रगुजार होना चाहिए जिन्होंने देश में उपलब्ध आयकर के आंकड़ों पर गहन शोध कर विस्तार से बताया कि भारत में आय-असमानता ब्रिटिश गुलामी से भी ज्यादा हो गई है।

इन दोनों अर्थशास्त्रियों ने अपने शोध पत्र में बताया है कि 1930 के दशक के अंत में भारत की 21 फीसदी आय पर 1 फीसदी धनाढ़्यों का कब्जा था। 80 के दशक की शुरुआत में यह हिस्सा घटकर 6 फीसदी रह गया यानि 1 फीसदी धनाढ़्यों का देश की कुल आय के 6 फीसदी हिस्से पर आधिपत्य रह गया। पर अब धनाढ़्यों की कुल राष्ट्रीय आय में हिस्सेदारी बढ़कर 22 फीसदी हो गई है। इतनी आर्थिक विषमता अमेरिका, ब्रिटेन, चीन या अन्य यूरोपीय देशों में नहीं है।

आजादी के वक्त देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इस आय विषमता के सामाजिक और आर्थिक कुप्रभावों को लेकर काफी सतर्क थे। इसलिए उन्होंने विकास का ऐसा मॉडल चुना कि देश का उत्पादन बढ़े, आय बढ़े और संपदा निर्माण हो, लेकिन वह चुनिंदा हाथों में सिमट कर नहीं रह जाए। 18 जनवरी 1948 को ऑल इंडिया रेडियो पर प्रसारित भाषण में उन्होंने कहा था कि एक भूखे इंसान के लिए या एक बहुत गरीब मुल्क के लिए आजादी का कोई मतलब नहीं रह जाता है। इसलिए हमें उत्पादन बढ़ाना चाहिए जिससे हमारे पास काफी दौलत हो जाए और मुनासिब आर्थिक योजना से हम उसका ऐसा वितरण करें कि वह करोड़ों लोगों, खासकर आम लोगों तक पहुंच सके।

अन्य तमाम अध्ययन हैं जिनसे देश में आय और संपदा वितरण में गहरी खाई का पता चलता है। नेशनल सैंपल सर्वे कार्यालय के संग्रहित आंकड़ों का अध्ययन कर एक रिपोर्ट आई है। इसके अनुसार देश की कुल संपदा के 28 फीसदी हिस्से पर 1 फीसदी लोगों का कब्जा है, जो 1991 में 11 फीसदी था। एक और मानक है जिनी को इफिशंट। 1990 में यह कोइफिशंट (गुणांक) 45 था जो 2016 में बढ़कर 51.4 हो गया है। इसका मतलब है कि देश में आय विषमता तेजी से बढ़ी है। बढ़ती आय असमानता से संपदा वितरण पर प्रभाव पड़ता है।


निवेश बैंकिंग की ख्यात बैंक क्रेडिट सूइस की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार देश के एक फीसदी लोगों के पास कुल राष्ट्रीय दौलत का 51.5 फीसदी हिस्सा है और देश में 10 फीसदी लोगों के पास 77.4 फीसदी दौलत है। नीचे के 60 फीसदी लोगों की कुल राष्ट्रीय दौलत में हिस्सेदारी महज 4.7 फीसदी है। इनमें सबसे गरीब 20 फीसदी लोगों के पास कोई संपदा नहीं है, बल्कि उन पर 34 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है।

नाकामियों को छिपाने के लिए विकास दर को अधिक दिखाने की परंपरा 5-6 साल में ही शुरू हुई है। लेकिन मूल सवाल यह है कि विकास देश के एक या 10 फीसदी लोगों के लिए है या बाकी आबादी के लिए भी, जिनमें मध्यम वर्ग भी शामिल है। बार-बार बताया जाता है कि कितने करोड़ भारतीय गरीबी रेखा से ऊपर आ गए हैं। सच यह है कि इनका दोबारा गरीबी रेखा के नीचे जाने का खतरा बना रहता है, क्योंकि आय विषमता के कारण इनकी आय नहीं बढ़ पाती। इलाज के खर्चों के कारण ही तकरीबन 5 करोड़ भारतीय गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं।

आर्थिक सुधार मुख्य रूप से राष्ट्रीयकरण को खत्म करने पर ही केंद्रित होकर रह गए और निजीकरण का मतलब हो गया सरकारी कंपनियां भी निजी क्षेत्र को सौंप देना। आर्थिक सुधारों से विकास दर तो तेज हुई, लेकिन जिस लाभ का दावा किया गया था, वह मिथ्या साबित हुआ। नतीजतन, देश के कुछ हाथों में ही आय और पूंजी का बड़ा हिस्सा सिमटकर रह गया। आर्थिक सुधारों और उदारीकरण के बाद वही हुआ जिसका डर पंडित नेहरू अनेक भाषणों में जता चुके थे। नए आर्थिक दौर के 30 सालों में ही देश की आय और संपदा पर चंद लोगों का शिकंजा कस गया। विख्यात आर्थिक पत्रिका फोर्ब्स अरसे से दुनिया भर के अरब-खरबपतियों की सूची छापती है। 1990 तक इसमें एक भी भारतीय नहीं था। आज इसमें 100 से अधिक भारतीय हैं। पर यह गुमान की बात नहीं, बल्कि बढ़ते सामाजिक तनाव और हिंसक अपराधों की घंटी है।

शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे सामाजिक क्षेत्रों में निजी क्षेत्र की बढ़ती घुसपैठ से 60 फीसदी आबादी बेहतर शिक्षाऔर इलाज से दूर होती जा रही है। आय की बढ़ती विषमता का अंतर कितना दर्दनाक होता है, यह नवजात और शिशु मृत्यु दर से समझा जा सकता है। मसलन सबसे कम आय वर्ग में नवजात मृत्यु दर 40.7 फीसदी है। जबकि शीर्ष धनाढ़्य वर्ग में 14.6 फीसदी है। पांच साल के आयु वर्ग में शिशु मृत्यु दर शीर्ष धनाढ़्य वर्ग में 19.8 फीसदी, जबकि सबसे कम आय वर्ग में 56.3 फीसदी है। ऐसा अंतर इन वर्गों में बच्चों के कुपोषण और महिलाओं की शिक्षा को लेकर भी है।


अत्यधिक विषमता विकास दर को भी लील लेती है। आर्थिक विकास दर तभी एक दिशा में रह सकती है, जब निर्धन की आय में सुधार हो, उसकी क्रय शक्ति बढ़े। यदि निर्धन और वंचित तबके की आय नहीं बढ़ती है तो मांग का चक्र बाधित होता है। आज चारों ओर से मंदी की खबरें आ रही हैं। पिछले तीन सालों में देश की एक बड़ी आबादी का ज्यादा खर्च आवश्यक वस्तुओं की खरीद पर हो रहा है। उपभोक्ता सामग्री की खरीद से इस वर्ग ने मुंह फेर लिया है, जो मंदी में और विकास दर में लगातार घट-बढ़ का कारण है। यह विकास दर पर बढ़ती आय विषमता का नतीजा है।

मुश्किल यह है कि सरकार इस समस्या से जानबूझ कर अंजान बनी हुई है। असल में अकूत दौलत जमा हो जाने के कारण यह छोटा-सा वर्ग सरकारी नीतियों और निर्णयों को प्रभावित करने में समर्थ हो जाता है। यह वर्ग चुनावों में मतदान को प्रभावित करने की स्थिति में आ जाता है। यही दुनिया भर की हकीकत है। जो दल उनके हक में नीतियां बनाता है, उसके लिए यह चुनावों में पानी की तरह पैसा बहा देता है। तमाम विधायक-सांसद इनकी जेब में होते हैं। थिंक टैंकों का वित्त पोषण करते हैं जो उनके पक्ष में जनहित की सब्सिडी खत्म करने का प्रपंच रचते हैं और चाय पर चर्चा चलाते हैं।

संवैधानिक संस्थाओं में अपने प्रभाव के कारण कर-चोरी के अनूठे रास्ते ढूंढ़ने में यह वर्ग माहिर है ।इससे सरकार का कर संग्रह कम हो जाता है और सामाजिक व्यय कम करने या यथास्थिर रखने का सरकार को बहाना मिल जाता है। पर धनाढ़्यों को राहत देने या आर्थिक सहायता देने के लिए सरकार को कभी तंगी महसूस नहीं होती है। मीडिया भी इस वर्ग के इशारे पर नाचता है। देश में यह सब विसंगतियां बखूबी देखी जा सकती हैं। आर्थिक विषमता का दूसरा पहलू यह भी है कि इससे समाज में आपसी वैर बढ़ता है और हिंसक अपराधों में बेहिसाब तेजी आती है, जिनकी खबरों से आजकल अखबार-टीवी अटे रहते हैं।

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