संघ प्रमुख मोहन भागवत के बयानों का एकमात्र लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र के एजेंडे को आगे बढ़ाना है

सरसंघचालक मोहन भागवत के अनेक कथन अजीब से जान पड़ सकते हैं, लेकिन गहराई से विचार करने पर हमें यह अहसास होगा कि उनका एकमात्र मूल लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र के एजेंडे को आगे बढ़ाना है।

फोटोः सोशल मीडिया
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राम पुनियानी

आरएसएस शायद देश का एकमात्र ऐसा संगठन है, जो यह दावा करता है कि वह एक सांस्कृतिक संस्था है, लेकिन देश की केंद्रीय सरकार के एजेंडे का निर्धारण भी करता है। हिन्दू राष्ट्र के अपने एजेंडे को आगे बढ़ाते हुए आरएसएस आज देश का सबसे बड़ा संगठन बन गया है। उसके मुखिया (सरसंघचालक) आरएसएस पर तो पूर्ण नियंत्रण रखते ही हैं, अप्रत्यक्ष रूप से बीजेपी, विहिप, बजरंग दल, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और आरएसएस से संबद्ध अन्य सैकड़ों संगठन भी उनकी मुठठी में रहते हैं। ये संगठन देश के विभिन्न हिस्सों में सामाजिक-शैक्षणिक-राजनैतिक और आर्थिक क्षेत्रों में सक्रिय हैं।

संघ के मुखिया समय-समय पर अपने वक्तव्यों और भाषणों के जरिए इन सभी संगठनों के एजेंडे का निर्धारण करते रहते हैं। हाल में 24 फरवरी 2018 को आगरा में आयोजित ‘राष्ट्रोदय समागम‘ में बोलते हुए संघ प्रमुख मोहन भागवत ने हिन्दू राष्ट्र के संबंध में कई बातें कहीं। उनके अनेक कथन अजीब से जान पड़ सकते हैं, परंतु गहराई से विचार करने पर हमें यह अहसास होगा कि उनका मूल और एकमात्र लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र के एजेंडे को आगे बढ़ाना है।

भागवत ने कहा कि हिंदुओं को एक होना चाहिए और जाति के आधार पर आपस में संघर्ष या विवाद नहीं करना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि हिंदुस्तान, हिंदुओं का देश है और इस देश के अतिरिक्त वे कहीं और नहीं जा सकते। जिसे वे जाति-आधारित संघर्ष बता रहे हैं, दरअसल वह सामाजिक न्याय का संघर्ष है। हिंदू धर्म के जाति-आधारित ढांचे के विरोध में सदियों से आंदोलन खड़े होते रहे हैं। गौतम बुद्ध को हम इस आंदोलन का सबसे पुराना अगुआ कह सकते हैं। उनके बाद कबीर, तुकाराम और नामदेव जैसे संतों ने भी जाति प्रथा के विरूद्ध आवाज उठाई। भागवत जिसे जाति-आधारित संघर्ष बता रहे हैं, उसमें जोतिबा फुले का आंदोलन भी शामिल है, जिसका लक्ष्य अछूतों को शिक्षित करना था। डा. अंबेडकर ने इस संघर्ष को आगे बढ़ाया और जातिगत समानता के आंदोलन को एक नई धार दी।

स्वतंत्रता के पूर्व हिंदू महासभा और आरएसएस, स्वाधीनता आंदोलन के समानांतर चल रहे समाजसुधार आंदोलनों से बहुत परेशान थे और इसलिए उन्होंने हिंदुओं से एक होने का आह्वान किया था। जाति के सवाल पर हिन्दुत्ववादी संगठन यथास्थितिवादी हैं, जबकि अंबेडकर जाति के उन्मूलन के पक्षधर थे। अंबेडकर ने मनुस्मृति का दहन किया और भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने वाली समिति के अध्यक्ष के तौर पर हमारे देश को समानता पर आधारित संविधान दिया। इसके साथ ही, संविधान में वंचित और पिछड़े वर्गों के लिए सकारात्मक कार्यवाही करने संबंधी प्रावधान भी किए गए, ताकि समानता केवल कागजों तक सीमित न रह जाए वरन् जमीन पर भी उतरे।

हिन्दू राष्ट्रवादी राजनीति वंचित वर्गों की बेहतरी के लिए सकारात्मक कदमों की विरोधी है। वह आरक्षण नहीं चाहती। सरकारी नौकरियों में ‘योग्यता‘ को बढ़ावा देने के नाम पर उसने आरक्षण का विरोध करने के लिए ‘यूथ फॉर इक्वालिटी‘ जैसी संस्थाओं का गठन किया। सामाजिक न्याय के पक्षधर भी देश के असमानता पर आधारित ढांचे को ढहा कर समानता स्थापित करना चाहते हैं। इस दृष्टि से ऐसा लग सकता है कि भागवत और सामाजिक न्याय के पक्षधरों का एजेंडा एक ही है। लेकिन सच ये है कि संघ और उससे जुड़ी संस्थाओं का एक छुपा हुआ एजेंडा है, जो तब जाहिर हो जाता है जब वे भारतीय संविधान में मूलचूल परिवर्तन की बात करते हैं या उनके शीर्ष चिंतक गोलवलकर, मनुस्मृति की प्रशंसा में गीत गाते हैं। स्पष्टतः संघ परिवार को भारतीय संविधान पसंद नहीं है।

भागवत जब यह कहते हैं कि हिंदुओं के पास बसने के लिए हिंदुस्तान के अतिरिक्त कोई और देश नहीं है, तब इससे उनका क्या आशय है? क्या वे नहीं जानते कि पूरी दुनिया में बेहतर अवसरों की तलाश में लोग अन्य देशों बसते आ रहे हैं और भारतीय हिंदू इसका अपवाद नहीं हैं। बड़ी संख्या में भारतीय हिंदू, अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया और इंग्लैंड में जा रहे हैं और इन देशों की नागरिकता भी ले रहे हैं। इसलिए संघ प्रमुख का यह कथन कि हिंदुओं के पास भारत के अतिरिक्त रहने के लिए कोई अन्य देश नहीं है, तथ्यात्मक रूप से गलत है।

इसी तरह यह कहना भी सही नहीं है कि भारत केवल हिंदुओं का देश है। कौन इस देश का नागरिक है और कौन नहीं, इसका निर्धारण भारत का संविधान करता है। भारत किसका देश है यह इससे भी स्पष्ट है कि भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में सभी जातियों, धर्मों और वर्गों के लोगों की भागीदारी थी। भारत प्राचीनकाल से ही नस्लीय और धार्मिक विविधताओं का देश रहा है। भारत के उत्तर में शक, हूण और मुसलमान, आक्रांता के रूप में आए और उन्होंने इस देश को अपना घर बनाया। दक्षिण भारत में समुद्र के रास्ते यहूदी, मुसलमान और ईसाई पहुंचे। सच तो यह है कि हिंदू शब्द मूलतः भौगोलिक है और यह एक धर्म का नाम बहुत बाद में बना।

भारत में विविध धर्मों के लोग निवास करते हैं अतः यह कहना कि भारत में रहने वाले सभी लोग हिंदू हैं, तथ्यों के साथ खिलवाड़ करना होगा। भागवत के इस दावे में कोई दम नहीं है कि हिंदू मूलतः सहिष्णु हैं और विविधता का सम्मान करते हैं। हिंदुत्व चिंतक सावरकर ने हिंदू की परिभाषा देते हुए कहा था कि केवल वे ही लोग हिंदू हैं, जिनकी मातृभूमि और पुण्यभूमि दोनों भारत में हैं। यह साफ है कि इस परिभाषा के अनुसार मुसलमान और ईसाई हिंदू नहीं हो सकते। सिक्खों, बौद्धों और जैनियों का एक बड़ा तबका भी स्वयं को हिंदू कहलवाना नहीं चाहता। भागवत इस अर्थ में सही कह रहे हैं कि गांधी जैसे लोगों की विचारधारा में ढले हिंदू, अन्य धर्मों का सम्मान करते हैं और धार्मिक विविधता को खुले मन से स्वीकार करते हैं। परंतु संघ-मार्का हिंदुओं को सहिष्णु नहीं कहा जा सकता। संघ परिवार का एजेंडा, पंथवाद और संकीर्णता पर आधारित है। वह आर्थिक विकास और सामाजिक और लैंगिक न्याय की बात नहीं करता। उसका जोर बांटने वाले मुद्दों पर रहता है। ऐसे मुद्दों पर जो लोगों को असहिष्णु बनाते हैं। कोई भी यह नहीं कह सकता कि गौरक्षा, राममंदिर, लव जिहाद, घरवापसी, वंदेमातरम् इत्यादि जैसे मुद्दे विविधता को प्रोत्साहन देते हैं या कम से कम उसे स्वीकार करते हैं।

संघ परिवार के सदस्य जो कुछ कहते आए हैं या कह रहे हैं, वह भारतीय संविधान की आत्मा के खिलाफ है। उनका यह कथन भी घोर अनुचित और असंवैधानिक है कि भारत के सभी लोगों को ‘भारत माता’ को अपनी मां मानना चाहिए। संविधान कहता है, “भारत अर्थात इंडिया राज्यों का संघ होगा।” इसमें भारत माता कहां से आ गईं? और ऐसे अन्य धर्मावलंबियों, जो किसी भी कारण से भारत माता की जय नहीं कहना चाहते, को इसके लिए मजबूर किया जाना किस तरह से उचित या संवैधानिक है? यह कहना कि मुसलमान भी हिंदू हैं, एक डरावना बयान है। पहले उन्हें हिंदू बताया जाएगा और फिर यह कहा जाएगा कि वे हिंदू धर्मग्रंथों का सम्मान करें और भगवान राम और गाय को पूज्यनीय मानें। यह एक फिसलन भरी राह है।

भागवत, राणाप्रताप के अकबर के साथ हुए युद्धों को भारतीय स्वाधीनता संग्राम का हिस्सा बताते हैं। राणाप्रताप अपनी मंसबदारी के लिए लड़ रहे थे, अंग्रेजों के खिलाफ नहीं। अगर हम भागवत की मानें तो हर मुसलमान राजा के खिलाफ युद्ध स्वाधीनता संग्राम है। इसमें सबसे दिलचस्प बात ये है कि वे अच्छी तरह से यह जानते हुए ऐसा कह रहे हैं कि राणाप्रताप के साथ अकबर के युद्धों में अकबर की सेना का नेतृत्व राजा मानसिंह के हाथों में था।

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