नए विश्व में उदार, समावेशी और समतावादी नेतृत्व का सवाल, खुशहाल और सुरक्षित भविष्य देने वाले नेता की जरूरत

एक संतप्त संसार जिसे अपनी खोह से एक वैश्विक महामारी द्वारा झकझोर कर बाहर रख दिया गया हो और जिस महामारी की विध्वंसकारी पहुंच मानवता के व्यापक बने रहने की सामूहिक क्षमता का मजाक उड़ाती हो, हमारे समान भविष्य के लिए जवाबों की मांग करता है।

फोटो: सोशल मीडिया
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अश्विनी कुमार

एक संतप्त संसार जिसे अपनी खोह से एक वैश्विक महामारी द्वारा झकझोर कर बाहर रख दिया गया हो और जिस महामारी की विध्वंसकारी पहुंच मानवता के व्यापक बने रहने की सामूहिक क्षमता का मजाक उड़ाती हो, हमारे समान भविष्य के लिए जवाबों की मांग करता है। स्पष्ट और ठोस असमान विश्व व्यवस्था इस वायरस और डिजिटल डिवाइड से और भी अधिक सुस्पष्ट तरीके से नाकामयाब नेतृत्व तथा सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों के असफल होने की कहानी पहले ही बता देती है।

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और इसीलिए इस क्षण में उपयुक्त नेतृत्व का प्रश्न शायद ही कभी इससे ज्यादा प्रासंगिक रहा हो। इतिहास हमें एक बार फिर इशारा करता है कि हम उस नेतृत्व का आह्वान करें जो हमें खुशहाल और सुरक्षित भविष्य की ओर ले जा सके और जिसकी जड़ें मानवता को व्याख्यायित करने वाले अनुल्लंघनीय मूल्यों में गहरी उतरी हों। चाहे कोई इस दृष्टिकोण से इत्तफाक रखता हो कि इतिहास अपने समय की महान स्त्रियों और पुरुषों की सफलताओं का एक वृत्तांत है, या फिर यह मानता हो कि उन्होंने इतिहास नहीं बनाया “...जैसा वे चाहते थे अपितु पहले से ही मौजूद परिस्थितियों के तहत...” नेतृत्व की केंद्रीयता इतिहास में परिवर्तन के उनक्षणों में आनुभविक रूप से स्थापित हैं। जैसा कि विलडुरांट हमें याद दिलाते हैं, “... नेता इतिहास का जीवन और रक्त हैं, और राजनीति तथा उद्योग इसके ढांचे हैं।” इसी तरह अर्नाल्ड ट्वानबी अपने महानतम कार्य ‘अ स्टडी ऑफ हिस्ट्री’ में हमें बताते हैं कि सभ्यताओं का उत्थान और पतन हमारे सामने आने वाली नियत कालिक चुनौतियों तथा हमारी प्रतिक्रिया का इतिहास हैं। स्पष्ट रूप से नेतृत्व का प्रश्न उस संदर्भ से आंतरिक रूप से जुड़ा हुआ है जिसमें उसका आह्वान होता है। मौजूदा परिस्थितियों का सर्वेक्षण डरावना है और निराशाजक भी। वैश्विक रूप से लोकतंत्रों का कदम पीछे खींचना, और अपने को संपूर्ण मानने वाली एक अपरिपक्व/अपरिष्कृत ताकत का जुनूनी अनुसरण जो कि नैतिक अनिवार्यता का निर्वासन है, संस्थात्मक वैधता का संकट और एक ऐसी राजनीतिक चेतना बनाने की चुनौती जो मुश्किल लेकिनआवश्यक निर्णय लेने के लिए अति आवश्यक हो, लोकतांत्रिक लचीलेपन की उद्घोषित धारणाओं की जांच करती है। एक जैसी चुनौतियों का सामना करने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोगी प्रयास के मुकाबले ‘कट्टर राष्ट्रवाद’ का उदय, सुरक्षा की मांग और नागरिक अधिकारों की पवित्रता के बीच एक विषम संतुलन, फेक न्यूज और गलत सूचनाओं का एक घिनौना इति वृत्त, ऐसा अभूतपूर्व वैश्विक वित्तीय संकट जिसने राष्ट्रीय अर्थव्यस्थाओं को पुनर्जीवित करने की हमारी सामूहिक क्षमताओं को कमजोर कर दिया हो, लाखों नौकरियों के साथ श्रमिक राजस्व में 3.4 ट्रिलियन डॉलर का अनुमानित नुकसान और फलस्वरूप सामाजिक संकट, भू-राजनीतिक शत्रुताओं में बढ़ोतरी, नस्लवाद, विदेशियों के प्रति घृणा और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों के जवाब में संयुक्त वैश्विक प्रतिक्रिया की निंदनीय अनुपस्थिति, सामूहिक रूप से सामाजिक अस्थिरता और राजनीतिक विघटन का एक शक्तिशाली मिश्रण (कॉकेटल) प्रस्तुत करते हैं।

एक ‘सर्विलांस स्टेट’ का डिजिटल तकनीकों के दुरुपयोग तथा सभी प्रकार के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस तंत्रों के जरिये निजता में बढ़ता अतिक्रमण, सिद्धांत पर ताकत और नैतिकता पर कुशलता के दोषपूर्ण प्रभुत्व पर असहज करने वाले प्रश्न उठाते हैं। हालांकि व्यापक मानवता का प्रौद्योगिकी सशक्तीकरण का पूर्णतः स्वागत है लेकिन डिजिटल असमानता, अल्गोरिद्म संचालित प्लेटफॉर्म की सर्व व्यापकता और निजी डेटा का वाणिज्यिक एकत्रीकरण लोगों की निजता में मनमानी दखलंदाजी को लेकर बैचेन करने वाले प्रश्न उठाते हैं। स्वायत्त व्यवस्थाओं की जवाबदेही, साइबर सुरक्षा को लेकर प्रवर्तनीय वैश्विक मानकों की गैरमौजूदगी के चलते साइबर आक्रांताओं (बुलीज) की व्यापक होती पहुंच, सोशल मीडिया द्वारा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और हिंसा को सुगम बनाए जाने से जुड़े मुद्दों पर, अधिकारों के इस युग में प्रतिष्ठा और आजादी के भविष्य को लेकर प्रश्न पैदा होते हैं। बेलगाम प्रौद्योगिकी से संचालित इस संसार में ‘मेजर ऑफ ऑलथिंक्स’ की तरह तकनीक और उसके जन्मदाता के बीच में संबंध उलटे हो गए हैं। आज डिजिटल ‘कोड वार’ को नए विचारधारात्मक टकराव के रूप में देखा जा रहा है जो पूरे संसार को विभाजित करने की क्षमता रखता है। हमारे सामाजिक और राजनीतिक जीवन पर टेक्नोलॉजी के असर को रेग्यूलेट कर पाने की राज्य की अथॉरिटी के कमजोर पड़ जाने से सामाजिक करार का वास्तविक आधार ही प्रश्नों के घेरे में आ जाता है। “इन्सिडीअस क्रीप” लोकतांत्रिक राज्य के विचार को ही चुनौती देता है।


एक प्रवर्तनीय दार्शनिक मूल्यों के ढांचे की गैर- मौजूदगी जो डिजिटल दुनिया की सीमाओं को परिभाषित कर सके जिसमें “लाइफ एजअ ड्रामा ऑफ डिसिजन्स” का स्थान एलगोरिद्म्स और रोबोट ने ले लिया हो, हमें बाध्य करते हैं कि हम बिना हड़बड़ी के इस बात पर चिंतन करें कि हमें कैसी दुनिया चाहिए और हमें क्या चयन करना चाहिए। जिस नए संसार में जीवन की पुनः योजना (रि-इंजीनियरड) बनाई जाएगी और उसे अभूतपूर्व परिवर्तनों के अनुकूल बनाया जाएगा, वहां असाधारण नेतृत्व की आवश्यकता पड़ेगी जो नए दौर के ज्ञान का भविष्य की चुनौतियों को नैतिक ढांचे के भीतर ही सुलझाने के लिए उपयोग कर सके और स्वतंत्रता तथा निष्पक्षता को इच्छित मूल्यों के रूप में अनुष्ठित कर सके।

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अलग-अलग ढांचों में ढले हुए नेताओं से यह अपेक्षा रहती है कि वे हमारी आशाओं के अनुरूप, संकीर्ण राष्ट्रवाद से प्रेरित निरंकुश सत्ता के प्रलोभन में फंसे बिना अपने ही प्रक्षेप पथ का अनुसरण करेंगे। वास्तव में, उन्हें ही यह तय करना पड़ेगा कि किस मार्ग का परित्याग करना है और किस मार्ग पर चलना है। नेताओं से यह अपेक्षा होती है कि वे लोगों की सामूहिक मीमांसा को एक ढांचे में ढालें और उसमें से एक ऐसे विजन को निकालें जो सौंपे गए कार्यभार के अनुकूल/उपयुक्त हो। उन्हें लोगों की भावनाओं और सत्ता के बीच एक सामंजस्य बैठाना होगा। अन्याय और टकराव से जख्मी संसार में नेतृत्व का अर्थ होता है हाशिये के लोगों को आशावान भविष्य देना, आकांक्षाओं का सम्मान करना और प्रतिस्पर्धी विचारों के बीच मध्यस्थता करना ताकि एक स्पष्ट-ठोस संदेश द्वारा सुदृढ़ राजनीतिक चेतना का निर्माण किया जा सके।

नेतृत्व में आज जिन गुणों की पहले से भी अधिक आवश्यकता है, वे हैं- सत्यनिष्ठा, तारतम्यता, संवेदना, अनवरत दृढ़संकल्प, अत्यधिक विनम्रता, बांधने की शक्ति रखने वाला नैतिक विस्तार और राजनीति के सैद्धांतिक तथा नैतिक अक्षत ढांचे के भीतर जनता को प्रेरित करने की क्षमता। एक ऐसा विशाल हृदय जो तुच्छ और व्यक्तिगत से ऊपर उठने को तैयार हो और क्षमता भी रखता हो, साथ ही आत्मसम्मानवादी वैश्विक समाज की स्थापना के लिए विचारों के द्वंद्व का आवश्यक बौद्धिक गहराई के साथ नेतृत्व कर सके, यही इस संकट के समय नेतृत्व की विशेषताओं को सही रूप से परिभाषित करते हैं। जिन विवादास्पद प्रश्नों का आज हम सामना कर रहे हैं, उनको संबोधित करने के लिए उन्नत नेतृत्व के शब्दकोश में अहंकार, अज्ञानता, ढीठपन, आत्मश्लाघा और बलिका बकरा बनाने-जैसे भावों और विचारों के लिए कोई स्थान नहीं है। सही नेतृत्व चुनने का सीधा मतलब है, एक वृहत्तर लक्ष्य के प्रतीक के प्रति अविरल निष्ठा का भाव। अगर बाहर से ऐसे नेतृत्व की बजाय किसी अन्य को चुनने का दबाव बनाया भी जाए, तो स्वेच्छा से चुने गए नेतृत्व के प्रतिअ पनी समर्पण भावना और निष्ठा के लिए जवाबदेही की कतई जरूरत नहीं। सारा मामला बड़े नैतिक उद्देश्यों के साथ राजनीति के निवेश का है। आज के मौजूद प्रश्न एक ऐसे प्रेरणादायक नेतृत्व का महत्व कई गुना बढ़ा देते हैं जो उदार, समावेशी और वास्तव में समानतावादी व्यवस्था को समर्पित हो। आज ऐसे नेतृत्व की यहां आवश्यकता है। वे जो नेतृत्व करने की आकांक्षा रखते हैं, उन्हें बहुत सारी चुनौतियों का सामना करना होगा और इस राह पर बहुत सारे पाठ सीखने होंगे।

लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं।

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