पूर्वोत्तर के राज्यों में बीजेपी का कैसे हुआ उदय?

बीजेपी एक ओर तो अपनी विचारधारा से असहमत व्यक्तियों को राष्ट्रविरोधी बताती है, वहीं उसे ऐसा संगठनों से हाथ मिलाने में कोई संकोच नहीं है जो अलग-अलग राज्यों या देश से अलग होने की बात करते आ रहे हैं।

फोटो: सोशल मीडिया
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राम पुनियानी

पिछले कुछ दशकों से पर्चों, पोस्टरों और अन्य तरीकों से अनवरत यह प्रचार किया जा रहा है कि ईसाई मिशनारियां बड़े पैमाने पर लोगों को ईसाई बना रहीं हैं। और इस सिलसिले में अधिकांश उदाहरण पूर्वोत्तर के राज्यों के दिए जाते हैं। इस प्रचार का इस्तेमाल पूरे देश में, विशेषकर चुनावों के दौरान, ईसाई समुदाय के खिलाफ नफरत फैलाने के लिए किया जाता है। इसी जहर ने पास्टर ग्राहम स्टेंस की जान ली, कंधमाल में भयावह हिंसा भड़काई और देश के अलग-अलग हिस्सों में चर्च पर हमले का सबब बनी। ऐसे में, भला बीजेपी, जो राममंदिर का झंडा बुलंद किये हुए है, जो गाय को माता बताती है और जो हिन्दू राष्ट्रवाद की पैरोकार है, क्यों और कैसे पूर्वोत्तर के राज्यों में हाल में हुए चुनावों में विजय हासिल कर सकी? आखिकार इन राज्यों में ईसाईयों की खासी आबादी है, बीफ यहां लोगों के रोजाना के खानपान का हिस्सा है और यहां ढेर सारी जनजातियां हैं, जिनके अलग-अलग और परस्पर विरोधाभासी राजनीतिक हित हैं और जो अलग-अलग संगठन बनाकर, अपनी-अपनी जनजातियों के लिए अलग राज्यों की मांग करती आ रही हैं।

पूर्वोत्तर के हर राज्य में स्थितियां अलग-अलग हैं। और इसलिए बीजेपी ने यहां के लिए जो चुनाव रणनीति बनाई है वह काफी लचीली है। पार्टी के पास संसाधनों की कोई कमी नहीं है, उसकी प्रचार मशीनरी अत्यंत सक्षम है और उसके पितृ संगठन आरएसएस के स्वयंसेवक उसके लिए पूर्ण समर्पण से काम कर रहे हैं। और यही कारण है कि वह एक के बाद एक राज्यों में सफलता के झंडे गाड़ रही है। असम में उसने बांग्लादेशी घुसपैठियों का मुद्दा उठाया और यह डर दिखाया कि अगर उन्हें रोका नहीं गया तो मुसलमान पूरे राज्य में छा जायेगें और हिन्दू अल्पसंख्यक बन जाएंगे। उसने अलगाववादी संगठनों से गठजोड़ बनाने में भी कोई गुरेज नहीं किया। इस क्षेत्र के अधिकांश निवासियों की यह धारणा है कि कांग्रेस ने इलाके के विकास पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। बीजेपी एक ओर तो अपनी विचारधारा से असहमत व्यक्तियों के बारे में गालीगलौज की भाषा में बात करती हैं और उन्हें राष्ट्रविरोधी बताती है, वहीं उसे ऐसे संगठनों से हाथ मिलाने में कोई संकोच नहीं है जो अलग-अलग राज्यों या देश से अलग होने की बात करते आ रहे है। त्रिपुरा की वाममोर्चा सरकार की ईमानदारी और सत्यनिष्ठा तो संदेह से परे थी परन्तु वह जनता की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में असफल सिद्ध हुयी। वह ओबीसी और आदिवासियों की आरक्षण सम्बन्धी मांगों को पूरा नहीं कर सकी और युवाओं को रोज़गार के अवसर निर्मित करने के मामले में उसका रिकॉर्ड बहुत ख़राब रहा। इससे बीजेपी को यह मौका मिल गया कि वह आम लोगों को विकास का स्वप्न दिखा कर अपनी और आकर्षित कर सके।

त्रिपुरा में बीजेपी ने मुख्य रूप से दो मुद्दों पर जोर दिया। पहला था विकास। हालांकि अब यह स्पष्ट हो गया है कि बीजेपी का विकास का नारा खोखला है और उसका उद्देश्य केवल वोट पाना है, परन्तु फिर भी वह त्रिपुरा में मोदी को “विकास पुरुष” के रूप में प्रस्तुत करने में सफल रही। माणिक सरकार के शासन में, कर्मचारियों को नए वेतन आयोगों की सिफारिशों का लाभ नहीं दिए जाने के कारण भी शासकीय कर्मचारियों और उनके परिवारों में भारी रोष था। आज जहां देश के अन्य हिस्सों में कर्मचारियों को सातवें वेतनमान का लाभ दिया जा रहा है, वहीं त्रिपुरा सरकार अब भी पांचवें वेतनमान पर अटकी हुयी है। त्रिपुरा में बीजेपी ने यह प्रचार किया कि वहां “हिन्दू शरणार्थी हैं और मुसलमान घुसपैठिये”। उनका उद्देश्य बंगाली हिन्दू मतदाताओं को प्रभावित करना था। आरएसएस के स्वयंसेवक, आदिवासी इलाकों में लम्बे समय से धार्मिक आयोजनों और स्कूल आदि खोल कर माणिक सरकार का तख्तापलट करने में सफल रहे क्योंकि यह सरकार आदिवासियों को रोज़गार के अवसर उपलब्ध करवाने में पूरी तरह असफल रही। बीफ के मामले में बीजेपी ने दोमुंही नीति अपनाई। उसने कहा कि वह अन्य राज्यों में गौहत्या और बीफ को प्रतिबंधित करने के पक्ष में है परन्तु पूर्वोत्तर में वह यह नीति नहीं अपनाएगी। परन्तु जानने वाले जानते हैं कि आरएसएस-भाजपा द्वारा उठाये जाने वाले अन्य मुद्दों की तरह, पवित्र गाय का मुद्दा भी समाज को विभाजित करने का एक राजनैतिक हथियार है और समय आने पर, वह केरल और गोवा की तरह, पूर्वोत्तर में भी बीफ और गौहत्या को मुद्दा बनाएगी।

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