इस वर्ष बहुत कठिन है मनरेगा की राह, आंकड़े तो यही कह रहे हैं

मनरेगा की प्रगति के कार्य के आकलन में लगे मनरेगा संघर्ष मोर्चे के अनुसार पहले की बकाया राशि 18350 करोड़ रुपए है, अतः इसे घटा दें तो मात्र 54650 करोड़ रुपए मनरेगा के लिए वास्तव में उपलब्ध होंगे।

फोटो: सोशल मीडिया
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भारत डोगरा

वित्तीय वर्ष 2020-21 व 2021-22 में ग्रामीण निर्धन वर्ग की बढ़ती कठिनाईयों के बीच मनरेगा की भूमिका उल्लेखनीय रही है। ऐसा तो नहीं कह सकते हैं कि इस कठिन समय में मनरेगा ने पूरी क्षमता में काम किया, पर फिर भी सरकार की जिन योजनाओं से लोगों को राहत मिली, उनमें मनरेगा की भूमिका उल्लेखनीय रही। मनरेगा को यूपीए सरकार के कार्यकाल में आरंभ किया गया था और इसे यूपीए सरकार की एक बड़ी उपलब्धि माना गया था।

वित्तीय वर्ष 2020-21 में मनरेगा पर 111,000 करोड़ रुपया खर्च हुआ और वर्ष 2021-22 में यह खर्च 98,000 करोड़ रुपए (संशोधित अनुमान) के आसपास रहेगा। दूसरी ओर वर्ष 2022-23 में इसके लिए 73000 करोड़ रुपए का बजट ही रखा गया है। मनरेगा की प्रगति के कार्य के आकलन में लगे मनरेगा संघर्ष मोर्चे के अनुसार पहले की बकाया राशि 18350 करोड़ रुपए है, अतः इसे घटा दें तो मात्र 54650 करोड़ रुपए मनरेगा के लिए वास्तव में उपलब्ध होंगे। देश में 9.94 करोड़ जॉब कार्ड (मनरेगा के अंतर्गत रोजगार प्राप्त करने के लिए बनाए गए कार्ड) सक्रिय हैं। यदि यह सभी परिवार रोजगार प्राप्त करने का प्रयास करे तो मौजूदा उपलब्ध बजट में प्रति परिवार 16 दिन का रोजगार ही प्राप्त हो सकेगा, जबकि कानून में 100 दिन के रोजगार का प्रावधान है।


दूसरी ओर मनरेगा का आकलन करने वाले एक और समूह पीपल्स एक्शन फॉर इम्प्लायमेंट गारंटी का कहना है कि मनरेगा के खर्चों की बकाया राशि 21,000 करोड़ रुपए है अतः 73000 करोड़ रुपए में से मात्र 52,000 करोड़ रुपए ही इस वर्ष के लिए उपलब्ध होंगे। इस समूह ने इस आधार पर अनुमान लगाया है कि जितने परिवारों ने 2021-22 में रोजगार प्राप्त किया उतने ही 2022-23 में रोजगार मांगेगे। इसके अध्ययन से पता चलता है कि इस स्थिति में प्रति परिवार 21 दिन का ही रोजगार उपल्ब्ध होगा जबकि 100 दिनों का कानूनी प्रावधान है। अध्ययन और मानिटरिंग समूह ने यह भी बताया है कि 31 जनवरी 2022 को 15 दिन से अधिक समय तक भुगतान न होने वाली मजदूरी की बकाया राशि 3273 करोड़ रुपए की थी। यह राशि लगभग 2 करोड़ भुगतानों से जुड़ी थी।

सरकारी पक्ष यह है कि जरूरत पड़ने पर राशि बढ़ा दी जाएगी, पर सवाल यह है कि यदि महत्त्वपूर्ण वृद्धि की जरूरत अभी से स्पष्ट नजर आ रही है तो उसमें देर क्यों की जाए। आरंभ से पर्याप्त राशि सुनिश्चित न होने के कारण ही सही योजनाबद्ध ढंग से कार्य करने में, समय पर भुगतान करने में कठिनाई आती है और बीच में कुछ समय ऐसा भी आता है जब संसाधनों के अभाव में अनेक स्थानों पर यह कार्य बढ़ जाते हैं।


एक अन्य मुद्दा यह है कि रोजगार की कितनी मांगों की पूर्ति नहीं हो पाती है। वर्ष 2021-22 में सरकारी आंकड़ों के अनुसार इनकी संख्या 83 लाख थी यानि औसतन 11 प्रतिशत मांगों की पूर्ति नहीं हो सकी। मांग की पूर्ति को पूरी न करने का प्रतिशत सबसे अधिक इन चार राज्यों में था - गुजरात (34.7 प्रतिशत), बिहार (25.6 प्रतिशत), मध्य प्रदेश (22.7 प्रतिशत) और हरियाणा (20.7 प्रतिशत)। यह आंकड़े दैनिक भास्कर ने प्रकाशित करते हुए 8 फरवरी को बताया कि रोजगार न प्राप्त होने वालों का प्रतिशत राष्ट्रीय स्तर पर 16.3 है और यह निरंतर बढ़ रहा है। वर्ष 2018-19 में यह 14.8 प्रतिशत था, 2019-20 में 15.6 था, वर्ष 2020-21 में 16 प्रतिशत था और वर्ष 2021-22 में यह 16.3 है।

कुल मिलाकर इस समय मनरेगा की स्थिति बहुत कठिन है और इन कठिनाईयों को समझना बहुत जरूरी है। जहां ग्रामीण निर्धन वर्ग की स्थिति चिंताजनक बनी हुई है और उन्हें अधिक रोजगार की जरूरत है, वहां मनरेगा के सिकुड़े हुए बजट के कारण उन्हें रोजगार प्रादान करने में बहुत कठिनाई आ सकती है।

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Published: 12 Mar 2022, 10:00 PM
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