राम पुनियानी का लेखः तालिबान और हिंदुत्ववादी पितृसत्तात्मकता, कितने समान और कितने अलग

आरएसएस और तालिबान दोनों ही पितृसत्तात्मक हैं। मगर समाज पर दोनों के असर में अंतर है। धर्म की आड़ में चलने वाली हर राजनीति में धर्म के पहचान से जुड़े पहलुओं का इस्तेमाल किया जाता है ताकि सामंती मूल्यों को कायम रखते हुए सत्ता पर नियंत्रण हासिल किया जा सके।

तालिबान और हिंदुत्ववादी पितृसत्तात्मकता, कितने समान और कितने अलग
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राम पुनियानी

भारत सरकार ने अफगानिस्तान के विदेश मंत्री अमीर खान मुत्ताकी के नेतृत्व में भारत आए प्रतिनिधिमंडल के लिए पलक पावंड़े बिछा दिए। जनरल प्रकाश कटोच ने सवाल किया "क्या भारत को तालिबान को सम्मान देना चाहिए?"

तालिबान के मानवाधिकारों के संबंध में रिकार्ड- खासकर महिलाओें के प्रति उसकी प्रतिगामी सोच- के बारे में सभी जानते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि तालिबान से रिश्ते कायम करना भूरणनीतिक दृष्टि से जरूरी है। मगर अफगानिस्तान की औरतें, जो मानवाधिकारों, विशेषकर शिक्षा और इकठ्ठा होने के अधिकारों से वंचित हैं, भारत में मुत्ताकी के स्वागत से छला हुआ महसूस कर रही होंगीं। मुत्ताकी की पहली पत्रकार वार्ता में महिला पत्रकारों को प्रवेश की अनुमति नहीं दी गई। हालांकि सख्त आलोचना के बाद दूसरी पत्रकार वार्ता में महिलाओं को आने दिया गया।

तालिबान के सत्ता में आने के बाद उसके द्वारा जारी किए गए फरमानों से सारी दुनिया को धक्का लगा। यह वही समूह है जिसने गौतम बुद्ध की 53 और 35 मीटर ऊंची आलीशान प्रतिमाओं को, दुनिया भर से ऐसा न करने के अनुरोध के बावजूद, नष्ट कर दिया था। दुनिया वहां हो रहे मानवाधिकारों के भीषण उल्लंघन को असहाय होकर देख रही है। इसी तालिबान ने गैर-मुस्लिमों पर जजिया लगाया था।

तालिबान तत्समय के युवकों के पाकिस्तान की प्रसिद्ध लाल मस्जिद सहित कुछ मदरसों में किए गए ब्रेनवाश का उत्पाद हैं। अब हालांकि तालिबान एक खुदमुख्तार संगठन बन गया है लेकिन जिन परिस्थितियों में उसका उदय हुआ, उन्हें याद रखना जरूरी है। तालिबान को मौलाना वहाब द्वारा प्रतिपादित इस्लाम के एक विशिष्ट संस्करण में ढाला गया है।

जब सोवियत सेना ने अफगानिस्तान पर कब्जा किया तब अमेरिका वहां अपनी सेना भेजने की स्थिति में नहीं था क्योंकि वियतनाम में हुई हार से उसकी हिम्मत पस्त थी। ऐसी स्थिति में किसिंजर की रणनीति पर अमल करते हुए कम्युनिस्ट शत्रुओं का मुकाबला एशियाई मुस्लिम युवकों के माध्यम से किया जाना था। मदरसों को प्रोत्साहन दिया गया और अमेरिका ने इसके लिए धन की व्यवस्था की। महमूद ममदानी अपनी पुस्तक ‘‘गुड मुस्लिम बैड मुस्लिम‘‘ में सीआईए के दस्तावेजों का हवाला देते हुए बताते हैं कि कैसे मुजाहिदीन को प्रशिक्षित किया गया और उन्हें 800 करोड़ डॉलर और 7000 टन हथियार और असलाह मुहैया कराए गए, जिनमें उस समय की नवीनतम स्ट्रिंगर मिसाइलें भी शामिल थीं।

इन प्रशिक्षित समूहों ने रूस-विरोधी शक्तियों के साथ मिलकर लड़ाई की और रूसी सेना को हार का मुंह देखना पड़ा। अफगानिस्तान और विशेषकर ईराक के युद्ध के बाद अमेरिका का जबरदस्त बोलबाला हो गया। तालिबानी जिस इस्लाम को मानते हैं वह उसका सबसे कट्टरपंथी संस्करण है। वह इस्लाम के नाम पर जनता पर हिंसक कहर बरपाता है। वहां मानवाधिकारों जैसे विचारों के लिए कोई जगह नहीं है। वहां महिलाओं और समाज के निचले वर्गों के मानवाधिकारों का सबसे अधिक हनन होता है। उन्हें बेरहमी से कुचला जाता है।


तालिबान के स्तर का पितृसत्तात्मक नियंत्रण और मानवाधिकारों का हनन अब तक हिन्दू राष्ट्रवाद, जो फिलहाल भारत की सत्ता पर काबिज है, में नजर नहीं आया है। हालांकि, पितृसत्तात्मकता के बीज इसमें मौजूद हैं और धीरे-धीरे मानवाधिकारों की अवधारणा का स्थान "उच्च जाति और धनी अभिजात वर्गों के अधिकार" एवं "निर्धन एवं हाशिए पर पड़े वर्गों के कर्तव्य" लेते जा रहे हैं, जिससे इन वर्गों के हालात और बुरे हो रहे हैं। सत्ताधारी बीजेपी की पितृ संस्था आरएसएस केवल पुरुषों का संगठन है। यह पूरी तरह हिन्दू धर्म के ब्राम्हणवादी संस्करण पर आधारित है जो, महात्मा गांधी, जिनकी हत्या हिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा में रंगे एक व्यक्ति द्वारा कर दी गई थी, के उदार एवं समावेशी हिन्दू धर्म से एकदम अलग है।

जब अम्बेडकर 'मनुस्मृति' जला रहे थे, तब आरएसएस के द्वितीय प्रमुख एम एस गोलवलकर मनुस्मृति जैसी किताबों का स्तुति गान गा रहे थे। भारतीय संविधान के लागू होने के बाद आरएसएस के मुखपत्र द आर्गेनाइजर ने संविधान की कड़ी आलोचना करते हुए कहा था कि इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है।‘‘ आरएसएस के सबसे महत्वपूर्ण सरसंघचालक माने जाने वाले माधव सदाशिव गोलवलकर मानते थे कि महिलाएं आधुनिकता से गुमराह हो रही हैं। केरेवेन के अनुसार, एक दोहे का हवाला देते हुए, जिसमें यह कहा गया है कि एक ‘सच्चरित्र महिला अपना शरीर ढक कर रखती है,‘‘ गोलवलकर ने खेद व्यक्त करते हुए कहा था "आधुनिक महिलाएं सोचती हैं कि अपने शरीर का अधिकाधिक हिस्सा लोगों को दिखाने में ही आधुनिकता है। कितना पतन हो गया है‘‘।

जब लक्ष्मी बाई केलकर (1936) ने यह इच्छा व्यक्त की कि महिलाओं को आरएसएस में शामिल किया जाए तब उनसे कहा गया कि वे एक अनुषांगिक संगठन के रूप में राष्ट्र सेविका समिति की स्थापना करें। इसके नाम से ही 'स्वयं' शब्द गायब है। इसके कई वर्षों बाद बीजेपी की तत्कालीन उपाध्यक्ष विजयाराजे सिंधिया ने सती का महिमामंडन किया। बीजेपी की ही मृदुला सिन्हा ने भी महिलाओं को परामर्श दिया कि वे परिवार के मानकों को मानें जिनके मुताबिक पति ही सर्वस्व होता है (सेवी पत्रिका, अप्रैल 1994)। संघ परिवार महिलाओं के जीन्स पहनने और वैलेंटाइन्स डे मनाने के खिलाफ है।

नारीवादी आंदोलन के सशक्त होने के साथ दहेज प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या और अन्य महिला विरोधी प्रथाओं के उन्मूलन की दिशा में प्रयास हुए। हालांकि आरएसएस ने इन सुधारों का विरोध नहीं किया लेकिन उसने कभी भी ऐसे संघर्षों को शुरू करने की पहल भी नहीं की। वह हिन्दू कोड बिल के भी खिलाफ था जो महिलाओं को एक हद तक बराबरी का दर्जा देता था।

चूंकि भारत में आजादी के बाद लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम हुई इसलिए, पिछले कुछ दशकों में आई गिरावट के बावजूद, और महिलाओं के काबिले तारीफ संघर्षों के चलते समाज में उनकी स्थिति बेहतर हुई है। बराबरी की मंजिल की ओर यात्रा में कुछ कदम तय किए गए हैं। आज आरएसएस से जुड़ी राष्ट्र सेविका समिति और दुर्गा वाहिनी और बीजेपी की महिला शाखा हैं जरूर किंतु उनके मूल्य आरएसएस की विचारधारा के केन्द्रीय तत्वों- श्रेणीबद्ध पदानुक्रम और लैंगिक असमानता- पर ही आधारित हैं। वे मनुस्मृति का बेहद सम्मान करती हैं। वे मुस्लिम पुरुषों को गुनाहगार मानती हैं मगर पितृसत्तात्मक मूल्यों को चुनौती नहीं देतीं।


यह सच है कि तालिबान शासित अफगानिस्तान और बहुत से अन्य मुस्लिम देशों में, जहां साम्प्रदायिक/कट्टरपंथी इस्लाम का प्रभाव है, महिलाओं के हाल ज्यादा बुरे हैं। तालिबान इस सूची में सबसे निचले स्थान पर है। भारत में हिन्दू राष्ट्रवाद की पकड़ मजबूत हो रही है मगर पितृसत्तात्मक विचारधारा को संघ परिवार द्वारा चुनौती नहीं दी जा रही है। वहीं महिला आंदोलन पितृसत्तात्मकता का मुकाबला करने के लिए भरसक संघर्ष कर रहा है। तालिबान पितृसत्तात्मकता के सबसे निकृष्ट पैरोकार हैं। हिन्दू राष्ट्रवाद, विचारधारा के स्तर पर उससे मूलभूत समानता रखता है। भारत में नारी आंदोलन ने कुछ महत्वपूर्ण सफलताएं हासिल की हैं, हालांकि वे नाकाफी हैं।

आरएसएस और तालिबान दोनों ही पितृसत्तात्मक हैं। मगर समाज पर दोनों के असर में अंतर है। धर्म की आड़ में चलने वाली हर राजनीति में धर्म के पहचान से जुड़े पहलुओं का इस्तेमाल किया जाता है ताकि सामंती मूल्यों को कायम रखते हुए उसमें दूसरे धर्म के लोगों के प्रति नफरत का तड़का लगाया जा सके। ईसाई कट्टरपंथी भी यही रणनीति अपनाते हैं। नाजीवाद, जो फासिज्म का कुरूपतम स्वरूप था, में भी महिलाओं को रसोईघर, चर्च और बच्चों तक सीमित रहने की बात कही जाती थी।

हम पितृसत्तात्मकता और मानवाधिकारों को मान्यता न देने की आलोचना तो करते ही हैं, हमें इस बात की ओर भी ध्यान देना चाहिए कि हर कट्टरपंथी राष्ट्रवाद का ढांचा धार्मिक पहचान या एक नस्ल की श्रेष्ठता पर आधारित होता है और उनके बहुत से कुत्सित मानक एक जैसे होते हैं!

(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)

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