चुनावी राजनीति का परंपरागत ध्रुव और उसे चुनौती देता नया नैरेटिव

कांग्रेस करीब 10 साल बाद अपने ही तरीके और एकदम नई रणनीति के साथ चुनाव में उतरी, और प्रचार का आखिरी दिन आते-आते बीजेपी को मजबूर कर दिया कि वह अपने अहम मुद्दों को न सिर्फ बैकसीट पर धकेल दे बल्कि कांग्रेस के नैरेटिव का जवाब देने लगे।

फोटो सौजन्य : @INCIndia
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तसलीम खान

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों हो चुके हैं और कल (रविवार को) नतीजे आ जाएंगे। नतीजे जो भी रहें, लेकिन आमतौर पर इन चुनावों को आम चुनावों का सेमीफाइनल माना जाता रहा है, क्योंकि इनके चंद महीनों बाद ही लोकसभा चुनाव होते हैं। ऐसे में इन राज्यों के चुनाव न सिर्फ एक राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श स्थापित करते हैं, बल्कि सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों को अपनी रणनीतिक धार तेज करने का मौका भी देते हैं।

भारत में चुनावी राजनीति आमतौर पर एक ध्रुवीय ही रही है, यानी सबसे मजबूत राजनीतिक दल या उसका सबसे बड़ा नेता कुछ मुद्दे या नैरेटिव सामने रखता है, और फिर बाकी दल उस ध्रुव के आसपास अपनी रणनीति बनाते हैं। 2014 के बाद से यह काम बीजेपी करती रही है, और उसके सबसे महत्वपूर्ण नेता नरेंद्र मोदी ने देश के सामने मुद्दों और अपेक्षाओं-आकांक्षाओं का एक ध्रुव खड़ा किया। इसी ध्रुव को काउंटर करते हुए कांग्रेस और बाकी राजनीतिक दल चुनाव मैदान में उतरे।

लेकिन इस बार विधानसभा चुनावों में स्थितियां अलग दिखीं। प्रचार के दौरान इस बार बीजेपी ने शुरु में चुनावी रेवड़ियों का विरोध, वोटरों को रिझाने या भ्रमित करने वाले नैरेटिव और धर्म आधारित मुद्दे उठाए, लेकिन कांग्रेस न तो इस एक-ध्रुवीय नैरेटिव के पास आई और न ही उसने इस पर प्रतिक्रिया दी। कांग्रेस करीब 10 साल बाद अपने ही तरीके और एकदम नई रणनीति के साथ चुनाव में उतरी, और प्रचार का आखिरी दिन आते-आते बीजेपी को मजबूर कर दिया कि वह अपने अहम मुद्दों को न सिर्फ बैकसीट पर धकेल दे बल्कि कांग्रेस के नैरेटिव का जवाब देने लगे।

आम धारणा है बीजेपी 24 घंटे 365 दिन सिर्फ और सिर्फ चुनावी मोड में रहती है, लेकिन कांग्रेस ने इस बार महीनों पहले इन पांच राज्यों के लिए अलग-अलग रणनीति बनाई। बीजेपी ने पहले की तरह इस बार भी विधानसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी को ही चेहरा बनाया। उसने मान लिया है कि सबसे मजबूत वोट अर्जित करने वाला चेहरा यही है। वहीं कांग्रेस ने अलग-अलग राज्यों में स्थानीय नेताओं को अपना शुभंकर बनाया। मध्य प्रदेश में अगर कमलनाथ चेहरा थे, तो छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भूपेश बघेल और अशोक गहलोत। राजस्थान में सचिन पायलट को भी ठीकठाक अहमियत दी गई। मिजोरम में पूरी पार्टी एकजुटता से साथ थी, तो तेलंगाना में भी पार्टी ने मिलकर ही चुनाव लड़ती नजर आई।

कांग्रेस ने हर राज्य के लिए एक अलग रणनीति का खाका बनाया। सभी राज्यों के लिए पांच समितियां बनाई गईं, जिनका काम स्थानीय मुद्दों को जांच-परख कर अलग-अलग राज्य के लिए कार्यक्रम बनाना था। मुख्य तौर पर निम्नलिखित पांच कमेटियां गठित की गईंः

  • कोर कमेटी

  • प्रचार अभियान कमेटी

  • घोषणा पत्र कमेटी

  • प्रोटोकॉल कमेटी

  • संचार कमेटी

इनमें सबसे अहम कोर कमेटी थी, जिसमें केंद्रीय नेतृत्व का प्रतिनिधित्व और स्थानीय नेताओं का संगम था, और यह एक तरह से सर्वोच्च कमेटी थी। प्रचार कमेटी के जिम्मे राज्यों के हर रीजन, यानी क्षेत्र के स्थानीय मुद्दों को ध्यान में रखते हुए प्रचार को धार देना था। प्रोटोकॉल कमेटी का काम पार्टी के स्टार प्रचारकों के कार्यक्रम तय करना, उनकी जनसभाएं और रैलियों का आयोजन आदि को देखना था। संचार कमेटी का काम पार्टी की हर गतिविधि को प्रत्येक माध्यम से लोगों तक पहुंचाना था। इसके लिए हर राज्य में पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ताओं की टीम तैनात की गई। और सबसे महत्वपूर्ण घोषणा पत्र कमेटी जिसका काम स्थानीय स्तर पर समाज के हर वर्ग के लोगों से संवाद कर, उनके मुद्दे और समस्याओं को समझकर पार्टी के घोषणापत्र को अंतिम रूप देना था।


मध्य प्रदेश में कांग्रेस घोषणा पत्र को वचन पत्र कहा गया और उस पर प्रमुखता से कमलनाथ की तस्वीर नजर आई, राजस्थान में गहलोत और पायलट के चेहरे थे तो छत्तीसगढ़ में बघेल, हालांकि नेपथ्य में राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे और प्रियंका गांधी भी रहे। घोषणापत्र का मूल सार कांग्रेस की गारंटी और उन्हें पूरा करने का भरोसा रखा गया। चुनावी सभाओं, प्रेस विज्ञप्तियों, टीवी इंटरव्यू और सोशल मीडिया के माध्यम से कर्नाटक, छत्तीसगढ़ और राजस्थान का रिपोर्ट कार्ड सामने रखते हुए स्थापित किया गया कि ये वादे सिर्फ चुनावी जुमले नहीं हैं।

राजस्थान में चुनावों से पहले ही गहलोत सरकार ने चिरंजीवी योजना (इसमें 25 लाख रुपये तक का मुफ्त इलाज दिया जाता है) और प्रवासी मजदूरों के लिए विशेष योजना जैसी तमाम योजनाएं लागू कीं और इनके लाभार्थियों का भी एक खास रणनीति के तहत खूब प्रचार भी किया गया। इसी तरह छत्तीसगढ़ में किसानों, आदिवासियों और अन्य तबकों के लिए की गई घोषणाओं का रिपोर्ट कार्ड सामने रखते हुए भरोसे का घोषणा पत्र पेश किया गया। कर्नाटक, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस सरकारों के काम को मध्य प्रदेश और मिजोरम में भी वोटरों के सामने रखा गया।

कांग्रेस की इस रणनीति का नतीजा यह हुआ कि कर्नाटक चुनाव से लेकर इस साल अप्रैल-मई तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बीजेपी और सरकार की वकालत करने वाले अर्थशास्त्री जिन गारंटियों को आर्थिक बोझ का कारण और देश के लिए खतरा बता रहे थे, उनके सुर बदल गए। प्रधानमंत्री ने तो मध्य प्रदेश में ही एक रैली में साफ कहा था कि ‘चुनावी रेवड़ियां देश के लिए बहुत बड़ा खतरा हैं...।’

परिणामस्वरूप करीब 10 साल से चुनावी नैरेटिव सेट कर रही पार्टी बीजेपी कांग्रेस की गारंटियों का जवाब देने और वैसे ही वादे करने को मजबूर हो गई। पिछले चुनावों तक बीजेपी अपने घोषणा पत्र को संकल्प पत्र आदि का नाम देती रही थी, लेकिन इस बार उसने इसका शीर्षक ही ‘मोदी की गारंटी’ रख दिया, जिसके कवर पर स्थानीय नेताओं के लिए कोई जगह नहीं थी। इतना ही नहीं, हर राज्य के लिए बीजेपी ने करीब-करीब कांग्रेस को घोषणा पत्र को ही कॉपी कर लिया। कांग्रेस नेताओं ने इस पर व्यंग्य भी किए।

इस तरह इन चुनावों में बीजेपी के मुकाबले कांग्रेस कहीं ज्यादा संतुलित और एक खास प्लान के तहत काम करती नजर आई। हां, स्टार प्रचारक के तौर पर मल्लिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने कमान संभाल रखी थी, लेकिन चेहरा इन तीनों में से कोई भी नहीं था। चुनावी रैलियों में जहां मल्लिकार्जुन खड़गे तथ्यों और तर्कों के आधार पर बीजेपी को निशाने पर लेते हुए कांग्रेस का कार्यक्रम सामने रख रहे थे, तो राहुल और प्रियंका दोनों भाई-बहन बिना हिचक तरह-तरह के तीर चलाते हुए बीजेपी को ललकार रहे थे।


प्रियंका गांधी जहां पार्टी और परिवार की विरासत को भारत के इतिहास के साथ जोड़ते हुए उस पर गर्व करने का कारण बता रही थीं, तो राहुल खालिस चुनावी अंदाज़ में लोकप्रिय सूक्तियों का प्रयोग कर रहे थे। यहां तक कि राजस्थान का प्रचार आते-आते राहुल गांधी ने ‘पनौती’ का खेल भी खेल दिया। यह ऐसा शब्द था जिसमें नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार और बीजेपी शासित राज्यों की सरकारों की नाकामियों का सार था।

कांग्रेस ने इन चुनावों के दौरान बीजेपी को उसकी ही पिच पर जाकर हिलाने का काम भी किया। राहुल ने कभी अमृतसर में स्वर्ण मंदिर में कारसेवा की तो कभी केदारनाथ जाकर शिव आराधना में डूबे। प्रियंका गांधी ने भी चुनावी राज्यों में जहा-जहां भी प्रचार किया, वहां के स्थानीय मंदिरों में शीश नवाना नहीं भूला। इससे बीजेपी बेचैन रही। कमंडल पकड़े कमलनाथ अगर मध्य प्रदेश में हर मंदिर, मठ और बाबा की शरण में दिखे, तो छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल ने राम वन गमन पथ निर्माण के अपने काम सामने रखे। उन्होंने अगली बार पूरे राज्य में राम की 9 प्रतिमाएं  लगाने का ऐलान भी किया है।

लेकिन कमंडल को पकड़े रहने के बाद भी कांग्रेस नेताओं ने मंडल का साथ नहीं छोड़ा। ‘जितनी आबादी, उतना हक’ का नारा देकर राहुल गांधी ने एक लकीर खींची थी, उसी लकीर को और मजबूती देते हुए कांग्रेस ने लगातार जातीय जनगणना को ऊपर रखा। जातीय जनगणना के नैरेटिव में एक बात और निहित है और वह है हिंदू धर्म की एकता, जिसे कांग्रेस ने अपनी रणनीति और कार्यनीति से बीजेपी को अपने तरकश की तलाशी लेने को मजबूर कर दिया है।

नतीजा यह हुआ कि अक्टूबर में मध्य प्रदेश में जातीय जनगणना की मांग को समाज बांटने का कदम बताते हुए जिन प्रधानमंत्री मोदी ने विपक्ष को खूब खरी खोटी सुनाई थी, वही राजस्थान और तेलंगाना आते-आते आबादी में हिस्सेदारी के आधार पर हक की बात करने लगे। जाति जनगणना का ऐसा करेंट लगा बीजेपी को कि राजस्थान में पीएम मोदी गूर्जरों को साधने के लिए पायलट परिवार को लेकर झूठा नैरेटिव तक सामने रखने से बाज नहीं आए। वहीं तेलंगाना में तो अमित शाह खुलकर ऐलान ही कर आए कि उनकी सरकार बनी तो सीएम ओबीसी होगा।

कल्याणकारी योजनाओं का वादा इन विधानसभा चुनावों से राजनीतिक विमर्श और चुनावी रणनीतियों का केंद्रीय विषय बन गया है, हालांकि इसे आर्थिक शब्दावली में कार्यनीति कह सकते हैं। कांग्रेस ने गारंटियों के वादे किए हैं, और तीन राज्यों में उन्हें पूरा कर दिखाने का रिपोर्ट कार्ड सामने रखा।

कांग्रेस ने जिस तरह लगातार कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा, जाति जनगणना का वादा किया है, उन्हें लेकर मध्य वर्ग में भी में स्वीकृति का भाव ज्यादा दिख रहा है।

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