कोरोना का टीका तो जल्द आ जाएगा, पर सामाजिक बीमारियों की वैक्सीन कब बनेगी?

कोरोना महामारी के आक्रमण के करीब साढ़े तीन महीने के भीतर दुनिया के वैज्ञानिकों ने मनुष्य जाति की रक्षा के उपाय खोजना शुरू कर दिया है। दुनिया भर में कम-से-कम सात वैक्सीन परीक्षण के दौर में हैं। हालांकि, पक्के तौर पर वैक्सीन बनकर आने में एक साल लग ही जाएगा।

फोटोः सोशल मीडिया
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प्रमोद जोशी

इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के अंत और तीसरे दशक की शुरुआत में ऐसे दौर में कोरोना वायरस ने दस्तक दी है, जब दुनिया अपनी तकनीकी उपलब्धियों पर इतरा रही है। इतराना शब्द ज्यादा कठोर लगता हो, तो कहा जा सकता है कि वह अपने ऐशो-आराम के चक्कर में प्रकृति की उपेक्षा कर रही है। कोरोना प्रसंग ने मनुष्य जाति के विकास और प्रकृति के साथ उसके अंतर्विरोधों को एकबारगी उघाड़ा है। इस घटनाक्रम में सकारात्मक और नकारात्मक- दोनों प्रकार के संदेश छिपे हैं।

कोरोना के अचानक हुए आक्रमण के करीब साढ़े तीन महीने के भीतर दुनिया के वैज्ञानिकों ने मनुष्य जाति की रक्षा के उपकरणों को खोजना शुरू कर दिया है। इसमें उन्हें सफलता भी मिली है, वहीं ‘वैश्विक सुरक्षा’ की एक नई अवधारणा सामने आ रही है जिसका संदेश है कि इंसान की सुरक्षा के लिए एटम बमों और मिसाइलों से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं- वैक्सीन और औषधियां। और उससे भी ज्यादा जरूरी है प्रकृति के साथ तादात्म्य बनाकर जीने की शैली जिसे हम भूलते जा रहे हैं।

चिड़ियों की चहचहाहट

इस कोरोना-दौर में आप जब सुबह उठते हैं, तो चिड़ियों की चहचहाहट फिर से सुनाई पड़ने लगी है। हालांकि वह उतनी मुखर नहीं है जितनी कि कभी होती थी, पर पक्षियों की वापसी हो रही है। हम कोरोना के कारण इंसानों की जान को लेकर परेशान जरूर हैं, पर शहरीकरण और औद्योगिक विकास के कारण दूसरे जीवधारियों का अस्तित्व जब संकट में आ गया था, तब हमने उसकी उपेक्षा की। कोरोना-दौर में ही गत 20 मार्च को हमें ‘विश्व गौरैया दिवस’ की याद नहीं रही।

पिछले साल इन्हीं दिनों संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में जारी एक वैज्ञानिक रपट में कहा गया था कि दुनिया की करीब 10 लाख प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं। इस रपट का निष्कर्ष था कि दुनिया की आर्थिक और वित्तीय-व्यवस्था इसके लिए जिम्मेदार है। यह जैविक संहार इंसान की गतिविधियों का सीधा परिणाम है और दुनिया के सभी क्षेत्रों में मनुष्य के लिए खतरा है। 50 देशों के 145 विशेषज्ञों ने इस रपट को तैयार किया था, जिसमें सुझाव दिया गया कि वैश्विक-अर्थशास्त्र ने किसी नई ‘पोस्ट ग्रोथ’ व्यवस्था को नहीं अपनाया, तो यह सब विनाशकारी होगा।

पिछले साल मई के पहले हफ्ते में प्रकाशित इस रिपोर्ट से जुड़ी खबरों को हमने एक मामूली खबर की तरह पढ़ा और रख दिया। रपट में कहा गया था कि आगामी दशकों में पृथ्वी पर उपस्थित 80 लाख जैविक प्रजातियों में से करीब दस लाख के विलुप्त होने का खतरा है। इनमें पौधे, कीट और प्राणी शामिल हैं। यह सब इसलिए क्योंकि प्रकृति की दोस्ताना व्यवस्था पर हमारे स्वार्थों ने जबर्दस्त हमला बोला है।

कोई सुन नहीं रहा

इस रिपोर्ट के प्रकाशित होने के फौरन बाद 6 मई को स्वीडन की 16 वर्षीय पर्यावरण एक्टिविस्ट ग्रेटा थनबर्ग ने ट्वीट किया, इस संदेश को कोई सुन नहीं रहा है। बायोडायवर्सिटी और इकोसिस्टम सेवाओं से संबद्ध अंतर-शासन पॉलिसी प्लेटफॉर्म (इंटर-गवर्नमेंटल साइंस-पॉलिसी प्लेटफॉर्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विसेज आईपीबीईएस) की वैश्विक आकलन रिपोर्ट पिछले तीन साल के शोध का परिणाम थी। इस कार्यक्रम को संयुक्त राष्ट्र का अनुमोदन प्राप्त है।

इस रिपोर्ट का एक पहलू खासतौर से ध्यान खींचता है। इसमें कहा गया है कि स्थानीय जनजातियों और समुदायों ने इस प्राकृतिक संतुलन की काफी हद तक रक्षा कर रखी है। कोरोना-दौर में कम-से-कम भारत में एक और प्रवृत्ति देखने को मिल रही है। इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए हम अपने पारंपरिक ज्ञान का सहारा ले रहे हैं। कई प्रकार के आयुर्वेदिक, यूनानी क्वाथ और काढ़े घरों में तैयार हो रहे हैं। विलासिता की अफरा-तफरी को कुछ देर के लिए भुलाकर हम अपने पारंपरिक ज्ञान और अनुभवों की शरण में जा रहे हैं।

वस्तुतः यह हमारे आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के सामने खड़ी चुनौती है। सच यह है कि आधुनिक विज्ञान की दृष्टि भी हमें रास्ते से भटकने की प्ररेणा नहीं देती है। कई बार हम विज्ञान और तकनीक को एक समझने की भूल कर बैठते हैं। विज्ञान सत्य-सापेक्ष होता है और तकनीक समाज-सापेक्ष। हम अपने सामाजिक-सांस्कृतिक विकास की विसंगतियों के बारे में ज्यादा सोचते नहीं। दोष वहां पर है।

दुनिया में रहना है तो

कोरोना वायरस ने हमें बताया कि आपको दुनिया में रहना है, तो कुछ बातों को हमेशा ध्यान में रखना होगा। सामाजिक अनुशासन और व्यवहार के कुछ बुनियादी सूत्रों का पालन करना होगा। समूची मनुष्य जाति को एकताबद्ध होकर सामूहिक हितों की रक्षा करने के बारे में सोचना होगा, किसी एक देश, वर्ग, जाति, धर्म या संप्रदाय के बारे में नहीं। विडंबना है कि विश्व समुदाय की संरचना अलग-अलग टुकड़ों में विभाजित है। कोरोना से लड़ने के लिए दुनिया एक-दूसरे के करीब आ रही है, पर पृष्ठभूमि में भावी मोर्चों और गठबंधनों की योजनाएं भी बनती जा रही हैं।

बहरहाल कोरोना की रोकथाम के लिए दुनिया भर में तेजी से वैक्सीन बनाने का काम चल रहा है। उसकी तरफ ध्यान दें। खबरें हैं कि दुनिया भर में कम-से-कम सात वैक्सीन परीक्षण के दौर में प्रवेश कर चुकी हैं। इनमें भारतीय वैज्ञानिक भी शामिल हैं। टीके बनाने वाली कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने 27 अप्रैल को कहा कि ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा विकसित कोविड-19 वैक्सीन का उत्पादन दो से तीन सप्ताह में शुरू करने की योजना है। दो से तीन सप्ताह में इस टीके का परीक्षण भारत में शुरू हो जाएगा। परीक्षण सफल रहा तो अक्टूबर तक यह टीका बाजार में आ जाने की उम्मीद है। ब्रिटेन में इसका परीक्षण 24 अप्रैल से शुरू हो चुका है।

विश्व प्रसिद्ध वैक्सीनोलॉजिस्ट प्रोफेसर एड्रियन हिल का दावा है कि सितंबर तक दुनिया में पहली वैक्सीन आ जाएगी जो कोरोना को मात देने में मदद करेगी। ट्रायल में संकेत मिल रहे हैं कि कोरोना वायरस के खिलाफ सिर्फ एक डोज से काम हो जाएगा। पुणे स्थित सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया उन सात वैश्विक कंपनियों में शामिल है, जिनके साथ ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने टीके के उत्पादन के लिए साझेदारी की है।

कई मायनों में यह वैक्सीन अभी तक सबसे आगे दिखाई पड़ रही है, पर उसकी सफलता बहुत कुछ परीक्षणों की सफलता पर निर्भर है। अलबत्ता यह टीका सफल रहा, तो दुनिया राहत की सांस लेगी। हालांकि कंपनी इस टीके का पेटेंट नहीं कराएगी और इसे न सिर्फ भारत बल्कि दुनिया भर की कंपनियों के लिए उत्पादन और बिक्री करने के लिए उपलब्ध कराएगी, पर आखिरकार इसके कारोबारी सवाल कभी न कभी तो उठेंगे। वहां से सामाजिक-आर्थिक संरचना की भूमिका सामने आएगी? क्या हम वैश्विक संरचनाओं में परिवर्तनों की नेपथ्य से आती आवाजों को भी सुन पा रहे हैं?

वैश्विक सहयोग

ऑक्सफोर्ड की यह वैक्सीन दुनिया में वैक्सीनों के विकास से जुड़ी संस्था कोलीशन ऑफ एपिडेमिक प्रिपेयर्डनेस इनोवेशंस (सेपी) की आर्थिक सहायता से विकसित की जा रही है। यह संस्था अपने किस्म की सबसे बड़ी संस्थाओं में से एक है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से वैश्विक सहयोग की जो व्यवस्थाएं सामने आ रही हैं, उनका एक यह भी उदाहरण है। सेपी के सहयोग से वैक्सीन का विकास करने वाली ऑक्सफोर्ड तीसरी संस्था है, जो पहले चरण के परीक्षणों में प्रवेश कर गई है। यानी कुछ और संस्थाएं भी वैक्सीन के विकास में आगे आ चुकी हैं।

सामान्यतः एक वैक्सीन का विकास करने में दस साल तक लग जाते हैं, पर आज जिस गति से काम हो रहा है, वह मानवीय कौशल और सहयोग-संभावनाओं के प्रतिमान भी स्थापित कर रहा है। इन सकारात्मक समाचारों के बीच विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की मुख्य वैज्ञानिक सौम्या स्वामीनाथन ने कहा है कि किसी विषाणु की पहचान के बाद तीन महीने के भीतर सात वैक्सीनों का ह्यूमन ट्रायल के स्तर तक पहुंच जाना अपने आप में चमत्कार है।

बहरहाल उन्हें उम्मीद है कि पक्के तौर पर वैक्सीन बनकर आने में एक साल लग ही जाएगा, पर कोरोना एक स्थायी बीमारी के रूप में दुनिया में बना रहेगा। सच यह है कि मलेरिया जैसी पुरानी बीमारी भी आज तक दुनिया में मौजूद है। सबसे बड़ी बीमारी हमारी सामाजिक संरचना की है। कोरोना-दौर में हमने देखा कि एक तबके ने अपनी सुरक्षा के इंतजाम जल्दी कर लिए और एक बड़ा तबका सड़कों पर भटकता रहा। यह कोरोना से ज्यादा बड़ी बीमारी है। इसकी वैक्सीन बनाने का काम कोई नहीं कर रहा है। क्यों?

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Published: 02 May 2020, 7:59 PM