आर्थिक, सामाजिक तौर पर जो हिंसा दिखाई पड़ती है, वह नए संसद भवन में भी दिखेगी

संप्रभुता किसी को झुकाने में नहीं है। किसी राष्ट्राध्यक्ष को झुकाकर हमारी संप्रभुता स्थापित नहीं होती। राजनीतिक व्यवस्था में स्वायत्त संस्थाओं को कैद करने से लोकतंत्र का विस्तार नहीं होता बल्कि उन संस्थाओं की निडरता, स्वदेश की भावना को बल प्रदान करती है।

आर्थिक, सामाजिक तौर पर जो हिंसा दिखाई पड़ती है, वह नए संसद भवन में भी दिखेगी
आर्थिक, सामाजिक तौर पर जो हिंसा दिखाई पड़ती है, वह नए संसद भवन में भी दिखेगी
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मीनाक्षी नटराजन

नए संसद भवन के उद्घाटन को लोकार्पण कहते हुए संकोच होता है। जब लोग भरी गरमी और महामारी में पुलिसिया तंत्र से नजर बचाते हजारों मील पैदल चले, जब दूसरे दौर में ऑक्सीजन की कमी से हजारों प्राण अल्पायु में छूट गए, तब इस इमारत की नींव सत्ता के मद में अंधा होकर सत्तासीनों ने रखी। ऐसे तंत्र में कहां कुछ भी लोक के लिए अर्पित होगा?

खैर, आज की बात करते समय यह याद रखना जरूरी है कि स्वराज संग्राम की नींव में क्या था? बापू ने उसका वर्णन हिन्द स्वराज में बखूबी किया है। हर तरह की पागल दौड़ से सावधान करते हुए अहिंसात्मक सत्याग्रह की बुनियाद पर खड़ी लोकसत्ता की कल्पना का स्वप्नरंजन किया है। उसका कितना ही मखौल उड़ाया जाए, अव्यावहारिक कहकर खारिज करते हुए अभिजात्य जन भी रोज अपने आसपास के घटते सत्य पर पर्दा नहीं डाल सकते। कल्पनाशीलता से खाली समाज ही इसे अव्यावहारिक करार करेगा।

जब पागल दौड़ की हिंसा व्यवहार के धरातल पर कभी जोशीमठ की धंसती जमीन, युवा आकांक्षाओं के आत्मदाह, तो कभी मैनहोल में घुटते दम, विस्थापन झेलते जनसमाज के रूप में सामने आती है, तो दौड़ और दौर का पागलपन प्रकट हो ही जाता है। उसे खारिज करने वाले अव्यावहारिक लगते हैं। स्वराज की नींव अहिंसा पर ही टिक सकती है। स्वतंत्र भारत ने अहिंसा की नींव पर टिके स्वराज के निर्माण का ही संकल्प किया जब 'नियति से साक्षात्कार' का भाषण संसद में दिया गया।

राष्ट्र निर्माण के दो रास्ते उस समय भी मौजूद थे। यदि स्वराज की ओर बढ़ना है, तो अहिंसा की ईंट पर राष्ट्र को खड़ा करना होगा। बिना अहिंसा के सत्यान्वेषण की शुरुआत भी नहीं हो सकती। अहिंसा निरंतर अन्वेषण के लिए मानस को खुला रखती है। अन्यपन को खारिज करती है। यह अपने आप में एक संपूर्ण व्यवस्था है जिसमें आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक प्रक्रिया को ढाला जा सकता है। अहिंसात्मक सत्याग्रह में आवश्यकता से अधिक पूंजी का संचयन, क्षारण चोरी मानी जाएगी।


अस्तेय, ब्रह्मचर्य, असंग्रह आर्थिक लोकतंत्र की कुंजी है। एक ऐसी व्यवस्था जहां पर नैसर्गिक/राष्ट्रीय संपदा सब की हो। समाज को अर्पित, समाजवादी हो। उन्हें सबसे पहले मिले जो सबसे अंतिम पायदान पर हैं। उस व्यवस्था में शासन के करीबी उद्योगपति को 2300 फीसदी मुनाफा कमाने की छूट नहीं होगी जब असंख्य लोग त्राहि-त्राहि कर रहे हों।

यह शब्दों का संघ व्यक्ति और समुदाय तथा राष्ट्र-राज्य का सामूहिक सिद्धांत होगा। गौरतलब है कि सामुदायिक अभ्यास के रूप में भारतीय आध्यात्मिक परंपरा की छह शाखाओं में से योग के यम-नियम का भी भाग है। यह कोई पाश्चात्य आयातित विचार नहीं है अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रहमचर्य, असंग्रह इस भूमि के प्राचीनतम विचार हैं।

अहिंसात्मक व्यवस्था पर आधारित सामाजिक/तहजीबी प्रक्रिया के गर्भ में निडरता होगी। निडरता ही सबको अपनाने की निर्मलता प्रदान करती है। निडरता में असुरक्षा नहीं होती। अहिंसा न तो अधीनता में है और न ही किसी को अधीनस्थ करने में है। 'सर्वत्र भय वर्जनं' से ही 'सर्व धर्म समानत्व' की ओर बढ़ा जा सकता है। उसी से 'स्वदेश' प्रेम की निर्मिति और अस्पृश्यता का लोप संभव है। अस्पृश्य माने किसी का बहिष्कार नहीं। जैसे रामकृष्ण परमहंस ने कहा कि जितने लोग, उतने धर्म के मार्ग। 'धृ' से उत्पन्न धर्म की एक व्याख्या धारा भी है। धाराएं, पंथ, पथ अनेक हो सकते हैं। शासन उन पंथों में निरपेक्ष रहेगा। यह उसका संवैधानिक मूल्य है।

यह मात्र हमारी अपनी अंदरूनी सामाजिक संरचना पर ही लागू नहीं होता। यही फलसफा हमारी संप्रभुत्व संपन्नता का भी आधार है। देश के पहले प्रधानमंत्री से इंग्लैंड दौरे के समय चर्चिल ने पूछा कि आप हमसे नफरत कैसे नहीं करते? उन्होंने सहजता से कहा कि मुझे निडरता और नफरत रहित होने का अभ्यास है। न मैं आपसे कभी डरा और न ही कभी नफरत की है। 27 मई को उनका स्मृति दिवस है। संप्रभुता किसी को झुकाने में नहीं है। किसी भी देश के राष्ट्राध्यक्ष को झुकाकर हमारी संप्रभुता स्थापित नहीं होती। राजनीतिक व्यवस्था में स्वायत्त संस्थाओं को बलात कैद करने से लोकतंत्र का विस्तार नहीं होता बल्कि उन संस्थाओं की निडरता, स्वदेश की भावना को बल प्रदान करती है।


अब नया संसद भवन होगा। उसकी नींव में अहिंसा नहीं होगी। संग्राम के दिनों में एक राह अहिंसा आधारित स्वराज की ओर बढ़ने की थी जहां राजनीति को आध्यात्मिक मार्ग के रूप में बापू ने माना। दूसरी राह संप्रदायों, धार्मिक मतों के राजनीतिकरण की थी। उस मार्ग की नींव में हिंसा को जायज ठहराया गया। वहां पुण्यभूमि के आधार पर स्वीकार्यता देना तय किया गया। उनके नायक को अच्छा नहीं लगा कि बरसों पहले शिवाजी महाराज ने कैद कर लाई गई मुस्लिम स्त्री को बाईज्जत वापस भेज दिया। उनका परोक्ष रूप से कहना था कि हिन्दुओं को बल आजमाईश करना चाहिए। कदाचित स्त्री पर भी। तभी हिन्दुत्व बढ़ेगा।

वहां भय वर्जन, समानत्व के लिए कोई जगह नहीं है। आज की व्यवस्था के भी सब प्रतीक गुस्से में दिखाई पड़ते हैं। अशोक चक्र के सिंह, हनुमान, राम, भारत माता सब गुस्से में हैं और ऐसे क्रोधी राष्ट्र राज्य के नायक के आगे छोटे सामुद्रिक देश नतमस्तक होते हैं। हमारी सौम्य वात्सल्यमयी भारत माता, करुणा निधान राम, बालसुलभ हनुमान के लिए इस नए भारत में जगह नहीं है। आर्थिक, सामाजिक तौर पर जो हिंसा दिखाई पड़ती है, वह संसद भवन में भी दिखेगी।

कुछ दिनों पहले ही लोकतंत्र की सदस्यता समाप्त की गई थी। कहते हैं कि लंकेश के दरबार में नवग्रह, यहां तक कि यमराज भी बंदी बनाकर बांधकर रखे गए थे। माने सब गुलाम थे। लोकतंत्र को बंदी बनाकर, संस्थाओं को बौना बनाकर, संसद के कक्ष में सीटें बढ़ाना क्या दिखाता है? शायद यह कि इस व्यवस्था ने अहिंसात्मक स्वराज की वैकल्पिक धारा के रूप में जो हिंसात्मक प्रवाह शुरू किया गया था, उसको चुना है। अपने माफीनामे में अंग्रेजी हुक्मरानों का स्वयं को पश्चातापी पुत्र कहने वाले इनके आदर्श नायक की जयंती भी उसी दिन है जबकि नए भवन का उद्घाटन हो रहा है।

यहां सवाल यह है कि लोकसमाज किस राह को चुनेगा? बौने होते लोकतंत्र या फिर निडर अहिंसात्मक समाज निर्माण की राह। मुस्तकबिल को तय लोकसमाज ही करेगा। 

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Published: 26 May 2023, 10:16 PM