आकार पटेल का लेख: हिंदू राष्ट्र बनाने का परोक्ष मार्ग, जो न्यायपालिका से होकर गुजरेगा

अगर प्रोफेसर मोहन गोपाल सही साबित होते हैं तो देखना रोचक होगा कि हिंदू राष्ट्र की स्थापना न्यायिक पुनर्व्याख्या से होगी और इसमें जाति और चतुर्वर्ण के बारे में बात की जाएगी, लेकिन इसका नतीजा सबकुछ तहत-नहस कर सकता है।

9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा अयोध्या मामले में फैसले के बाद जश्न मनाता हिंदू पक्ष (फोटो - Getty Images)
9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा अयोध्या मामले में फैसले के बाद जश्न मनाता हिंदू पक्ष (फोटो - Getty Images)
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आकार पटेल

देश के मौजूदा हालात में बहुसंख्यवादी राजनीति को लेकर हमारा उत्साह हमें दो तरफ लेकर जा सकता है। मैंने इस बारे में काफी सोचा कि इस राह पर चलकर हम एक ही स्थान पर पहुंच सकते हैं, और वहां हम आखिर में कुछ देर के लिए पहुंचेंगे, लेकिन इसी संदर्भ में एक और नजरिया भी है जिस पर हमें विचार करना चाहिए। और यह कुछ सप्ताह पहले नेशनल लॉ स्कूल के पूर्व प्रमुख प्रोफेसर मोहन गोपाल द्वारा न्यायपालिका के बारे में दिए गए भाषण से सामने आया है।

उनके भाषण को वेबसाइट लाइव लॉ ने 'संविधान से ज्यादा धर्म में कानून का रास्ता तलाशने वाले धार्मिक जजों की संख्या बढ़ी' शीर्षक से प्रकाशित किया था। उनके ऐसा कहने का आधार सुप्रीम कोर्ट में 2004 से लेकर अब तक नियुक्त हुए जजों के रिकॉर्ड की छानबीन से निकला निचोड़ था। इस दौरान जो कुल 111 जज नियुक्त किए गए, उनमें से 56 की नियुक्ति यूपीए सरकार वाले दशक में और 55 की नियुक्ति मौजूदा बीजेपी सरकार के दौर में हुई है। इस तरह दोनों ही सरकारों में मामला बराबर ही है। इसके बाद उन्होंने इस बात को परखा कि इन जजों ने क्या प्रभाव छोड़ा और क्या यह जज पूर्वाग्रह से ग्रसित थे।

प्रोफेसर गोपाल मानते हैं कि ये जज पक्षपाती नहीं थे, क्योंकि यह सिर्फ व्यक्तिपरक व्याख्या से तय हो सकता है, इसलिए अगर असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है कि ये पक्षपाती थे। लेकिन उनके द्वारा दिए गए फैसलों को देखकर ही तय हो सकता है कि क्या किसी किस्म का पक्षपात हुआ। उनका निष्कर्ष था कि यूपीए के दौर में 6 जज संविधानवादी थे, यानी वे कानून सिर्फ संविधान की प्रधानता में ही विश्वास करते थे। एनडीए के शासनकाल में ऐसे जजों की संख्या 9 पहुंच गई थी।

इसके बाद, उन्होंने ऐसे जजों की पहचान की जिन्होंने संविधान से इतर जाकर हिंदू धार्मिक पुराणों के आधार पर फैसले दिए। इन जजों में यूपीए के दौर का एक भी जज नहीं था, लेकिन एनडीए दौर के 9 जज ऐसे थे, जिनमें से 5 अभी भी सुप्रीम कोर्ट बेंच में हैं। इन जजों ने अपने फैसलों में संविधान से बाहर जाकर धर्म में काननू की तलाश की है। अयोध्या फैसला ऐसा ही था जिसमें कानून से इतर जाकर फैसला दिया गया, इसी तरह हिजाब मामले में भी पुराणों का सहारा लिया गया।


प्रोफेसर गोपाल की धारणा है कि हिंदू राष्ट्र का स्वरूप 2047 तक दो तरीके से सामने आएगा। पहला तरीका तो होगा कि ऐसे जजों को नियुक्त किया जाएगा जो संविधान के इतर जाकर धार्मिक स्त्रोतों को अपने फैसले का आधार बनाएंगे। और दूसरा तरीका होगा ऐसे जजों की नियुक्ति जो धार्मिक कानूनों के स्त्रोतों की पहचान करेंगे। ऐसे में हिंदू राष्ट्र की स्थापना संविधान को दरकिनार कर नहीं बल्कि हिंदू ग्रंथों की तरह इसकी पुनर्व्याख्या कर की जाएगी।

प्रोफेसर गोपाल कहते हैं कि ऐसा एक मामला हिजाब पर आया फैसला है। इस फैसले में संविधान पर धर्म को लागू किया गया क्योंकि सेक्युलरिज्म के लिए हिंदी में इस्तेमाल होने वाला शब्द धर्मनिरपेक्ष नहीं बल्कि पंथ निरपेक्ष है यानी किसी विशेष समुदाय के लिए है। ऐसे में संविधान धर्म निरपेक्ष नहीं बल्कि स्वंय धर्म है यानी सनातन धर्म है।

हिजाब मामले का फैसला कहता है, “पंथ निरपेक्ष शब्द का संविधान में इस्तेमाल होने से धर्मनिरपेक्ष और पंथनिरपेक्ष का अंतर स्पष्ट हो गया है। पंथ या संप्रदाय किसी एक खास विश्वास में आस्था दर्शाता है, भगवान के किसी रूप की पूजा या इबादत दर्शाता है, लेकिन धर्म पूर्ण और अनंत मूल्यों का प्रतीक है जिसे कभी बदला नहीं जा सकता, उसी तरह जिस तरह प्रकृति के नियमों को नहीं बदला जा सकता। धर्म वह है जो प्रजा (नागरिकों) और समग्र रूप से समाज की भलाई और उत्थान में धारण करता है, बनाए रखता है और परिणाम देता है।"

संवैधानिक कानून इस तरह धर्म है। कर्नाटक के स्कूलों में होमा की इजाजत है और हिजाब की नहीं, और इसका कारण है कि हिजाब विश्वास है जबकि होमा मानवजाति के कल्याण का धर्म है।

प्रोफेसर गोपाल एनडीए के तहत संवैधानिक न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि कॉलेजियम उस दिशा में अंधा नहीं है जिस दिशा में बीजेपी देश को ले जा रही है। जजों की नियुक्ति को लेकर कॉलेजियम और सरकार के बीच मौजूदा खींचतान में यह प्रतिरोध सामने आ रहा है। उनके द्वारा उठाये गये दो अन्य महत्वपूर्ण बिंदुओं को संक्षेप में लिया जा सकता है। पहला यह कि भारत पर शासन करने वाले अल्पतंत्र को संविधान में विरोध मिलता है जो समानता, धर्मनिरपेक्षता, गरिमा आदि जैसे मूल्यों पर जोर देता है। पाकिस्तान के विपरीत, जहां अल्पतंत्र और संविधान एक साथ हैं, भारत के अल्पतंत्र द्वारा सरकार पर कब्जा करने का प्राथमिक प्रतिरोध संविधान से आता है। और इसलिए बीजेपी ने अपनी की ऊर्जा वहीं केंद्रित की है।

और आखिरी बात यह कि, न्यायपालिका में धर्म, जाति, लिंग या क्षेत्र की विविधता की कमी है और इसने एक तरह के खुद को कब्जा करने के लिए मुहैया करा दिया है। चूंकि यहां मोटे तौर पर उच्च जाति के हिंदू पुरुषों की अधिसंख्या है इसलिए एक तरह से इसने इस प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने में मदद की है।


इस सबके आलोक में प्रोफेसर गोपाल का मानना है कि न्यायपालिका में नियुक्तियों में सरकारी दखल को रोकने के लिए कोलेजियम को बचाना फौरी लक्ष्य होना चाहिए।

मौजूदा बहुसंख्यावाद का अंत परिणाम क्या होगा, उसके बारे में मैंने यहां और अपनी किताबों में लिखा है। और वह यह है कि हिंदुत्व का केंद्र बिंदु अल्पसंख्यक हैं और यह अपने आंतरिक सुधारों पर जोर देने के बजाए इनके शोषण में ही लगा रहता है। और अगर प्रोफेसर गोपाल सही साबित होते हैं तो देखना रोचक होगा कि हिंदू राष्ट्र की स्थापना न्यायिक पुनर्व्याख्या से होगी और इसमें जाति और चतुर्वर्ण के बारे में बात की जाएगी, लेकिन इसका नतीजा सबकुछ तहत-नहस कर सकता है।

स्पष्ट तौर पर प्रोफेसर गोपाल ने अपनी धारणा में अल्पसंख्यकों की प्रताड़ना को अलग नहीं किया है। उन्होंने एक और तत्व जोड़ा है जिस पर मैंने विचार नहीं किया है। उनका भाषण एकदम स्पष्ट, तीक्ष्ण और सीधा है और उसे यूट्यूब पर देखा जा सकता है। जरूरत है उसे सुनने, समझने और उस पर बहस करने की।

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Published: 16 Apr 2023, 4:52 PM