पूरी दुनिया सुन तो रही है प्रदूषण बम की टिक-टिक, पर सिर्फ दिखावटी उपायों के आगे नहीं हो रही कोई बात

वर्ष 2022 में शक्तिशाली चक्रवात, सूखा, बाढ़, भूस्खलन और जंगल की आग की घटनाओं ने तमाम अनुमानों को पीछे छोड़ दिया है। ऐसी घटनाओं में तेजी आ गई है। इनके अलावा सशस्त्र संघर्ष और युद्धक मशीनों की वजह से भी आबोहवा लगातार दूषित हो रही है।

फोटो : सोशल मीडिया
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भारत डोगरा

मिस्र के शर्म अल-शेख में 6 नवंबर को शुरू हुए और 18 नवंबर को समाप्त होने वाले 27वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन (सीओपी 27) की बैठक में उम्मीद की किरणों पर संदेह की छाया रही। इसकी वजह साफ है। दुनिया भर में जो हालात हैं, उसे देखते हुए यह अहसास गहराता जा रहा है कि बीते दिन तो लौटने से रहे।

विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) की हालिया वैश्विक जलवायु रिपोर्ट से पता चलता है कि तीन प्रमुख ग्रीनहाउस गैसों (जीएचजी)- कार्बन डाइऑक्साइड, मिथेन और नाइट्रस ऑक्साइड– का स्तर 2021 में रिकॉर्ड स्तर तक बढ़ गया। चिंता की बात यह भी है कि कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में कई गुना ज्यादा हानिकारक मिथेन गैस की उत्सर्जन दर में भी रिकॉर्ड वृद्धि हुई।

2010-20 के दौरान समुद्र के स्तर में वृद्धि की दर 1990 के दशक की तुलना में लगभग दोगुनी थी। 2020-22 में यह दर और बढ़ गई। अब तो माना जाने लगा है कि ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्यिस तक सीमित रखने का लक्ष्य हाथ से निकल चुका है। डब्ल्यूएमओ प्रमुख प्रो. पेटरी तालस अफसोस भरे लहजे में कहते हैं, ‘(बर्फ के) पिघलने का खेल हम हार चुके हैं और समुद्र का स्तर भी बढ़ गया है।’ संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने भी स्वीकार किया कि 'वैश्विक जलवायु की हालिया रिपोर्ट जलवायु अराजकता का पुलिंदा भर है।’

वे 9 क्षेत्र जिनसे पृथ्वी पर जीवन को है सबसे ज्यादा खतरा

वैसे, जलवायु परिवर्तन कई गंभीर और जानलेवा पर्यावरणीय समस्याओं में से केवल एक है। स्टॉकहोम रेजिलिएंस सेंटर के वैज्ञानिकों ने उन नौ क्षेत्रों की पहचान की है जिनमें खास स्तर या दहलीज को पार करना पृथ्वी पर जीवन को खतरे में डाल सकता है। इन नौ क्षेत्रों में स्ट्रैटोस्फेयर स्थित ओजोन, भूमि उपयोग परिवर्तन, मीठे पानी का उपयोग, जैव विविधता, महासागरीय अम्लीकरण, जीवमंडल और महासागरों में नाइट्रोजन और फास्फोरस का मिलना, एरोसोल लोडिंग (वायु प्रदूषण) और रासायनिक प्रदूषण शामिल हैं। वैज्ञानिकों ने चेताया है कि इनमें से तीन- जलवायु परिवर्तन, जैविक विविधता और जीवमंडल में नाइट्रोजन इनपुट पहले ही बेलगाम हो चुके हैं और अगर इनमें से एक ने भी हद पार की तो दूसरों के लिए भी सुरक्षित दायरे में रहना मुश्किल होगा।

2022 में स्थिति और खराब हो गई है क्योंकि यूक्रेन युद्ध और बड़ी ताकतों की प्रतिद्वंद्विता ने भू-राजनीतिक प्राथमिकताओं को बदल दिया है और पर्यावरण के मुद्दे हाशिये पर चले गए हैं। उत्सर्जन घटाने के अंतरराष्ट्रीय समझौतों पर अमल शांति और स्थिरता की स्थितियों में सबसे अच्छे तरीके से हो पाता है। युद्ध जैसी अवस्था इसमें बाधक होती है और आज ऐसा ही हो रहा है। युद्ध और प्रतिबंधों को देखते हुए कई देश कोयले जैसे ऊर्जा के अधिक प्रदूषणकारी विकल्पों पर वापस चले गए हैं।


युद्ध और युद्ध की तैयारी भी बढ़ा रहे हैं प्रदूषण

उपलब्ध साक्ष्य यह भी बताते हैं कि युद्ध, युद्ध की तैयारी, हथियारों की होड़ और सैन्य-औद्योगिक गठजोड़ प्रदूषण और ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन के सबसे बड़े स्रोत हैं। हमने अपने विनाश का सामान खुद ही तैयार कर रखा है। अनुमान है कि दुनिया में करीब 13 हजार परमाणु हथियार हैं और इनके 5% का भी इस्तेमाल हो जाए तो इससे चंद दिनों में ही उतना नुकसान हो जाएगा जितना जलवायु परिवर्तन से होने में सालों लग जाएं।

इसलिए जलवायु परिवर्तन, जलवायु व्यवधान और आपदाओं पर अंकुश लगाने का मामला सीधे तौर पर सशस्त्र संघर्षों को रोकने, युद्ध की आशंकाओं को कम करने, हथियारों की दौड़ पर अंकुश लगाने और सामूहिक विनाश के हथियारों के उन्मूलन से जुड़ा है। यह सब जानते हुए भी हथियारों की ताकतवर लॉबी पर लगाम लगाने पर न तो ध्यान दिया जा रहा है और न ही इस दिशा में पर्याप्त प्रयास किए जा रहे हैं।

2019 के एक अध्ययन ने संकेत दिया कि अमेरिकी सैन्य मशीनों ने 140 देशों से ज्यादा ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन किया। युद्धक मशीनों को हर समय तैयार रखने के लिए भारी मात्रा में ईंधन की जरूरत होती है। ज्यादातर सेनाओं को समुद्र के बढ़ते स्तर, ग्लोबल वार्मिंग और प्रदूषण के नतीजों का बखूबी पता है लेकिन जलवायु परिवर्तन पर इन युद्धक मशीनों के असर की कोई बात नहीं की जाती।

खेती के तौर-तरीके बदलने से भी गहराया संकट

‘दि ग्रेट क्लाइमेट रॉबरी’ नामक एक अध्ययन में अंतरराष्ट्रीय संगठन ‘ग्रेन’ ने बताया कि ‘पिछली सदी के दौरान खेती के लिए नुकसानदेह तौर-तरीके अपनाए जाने की वजह से कृषि योग्य भूमि के 30 से 75 फीसदी और चारागाहों तथा घास के मैदानों से 50 फीसदी जैव पदार्थ नष्ट हो गए।’ पृथ्वी के वायुमंडल में जो अतिरिक्त कार्बन डाइऑक्साइड घुल रहा है, उसमें 25 से 40 फीसदी तक के लिए जैव पदार्थों का यह भारी नुकसान जिम्मेदार है। रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल से वातावरण में नाइट्रस ऑक्साइड घुलता है और यह कितना हानिकारक है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में लगभग 300 गुना ज्यादा नुकसानदेह है। इसके अलावा यह उन बड़े स्रोतों में है जिनके कारण पृथ्वी का सुरक्षा कवच ओजोन परत लगातार कमजोर होता जा रहा है।

हालांकि इस अध्ययन की सकारात्मक बात यह है कि इसके मुताबिक, ‘अगर दुनिया भर में सही नीतियां अपनाई गईं तो मिट्टी के जैव पदार्थों को 50 वर्षों में औद्योगिकरण से पहले के स्तर पर लाया जा सकता है। इससे होगा यह कि फिलहाल दुनिया में ग्रीन हाउस गैस का जो उत्सर्जन स्तर है, उसमें 24 से 30 फीसदी को निष्प्रभावी किया जा सकेगा।’ ये संभावनाएं उम्मीद जगाने वाली हैं लेकिन यह व्यवहार में उतर पाएं, तब तो!


न्याय और समानता भी है अहम पहलू

दुनिया भर में खेती-किसानी में रसायन का इस्तेमाल दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है, जीएम फसलों के विकास और उत्पादन को बढ़ावा दिया जा रहा है जबकि इनमें पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचाने वाली प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल किया जाता है और बहुराष्ट्रीय कंपनियों इनका बेलगाम उपयोग करती हैं।

भारत में जीएम फसल की लॉबी करने वाले जी-जान से कोशिश कर रहे हैं कि किसी तरह यहां भी इनका उत्पादन शुरू हो जाए। इसके लिए सबसे पहले वे जीएम सरसों के पक्ष में हवा बना रही हैं। जबकि यह बात साबित हो चुकी है कि इस विधि में इस्तेमाल किए जाने वाले रसायनों के कारण पर्यावरण से लेकर मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी गंभीर असर पड़ता है। यह एक गंभीर मुद्दा है लेकिन जलवायु परिवर्तन वार्ताओं में ऐसे अहम मुद्दों की अनदेखी कर दी जाती है।

एक और उपेक्षित पहलू न्याय और समानता का है। अगर वस्तुओं का उत्पादन पर्यावरण और कार्बन उत्सर्जन को ध्यान में रखते हुए हो तो वैसी वस्तुओं का उत्पादन घटाया जा सकता है जो अत्यधिक विलासिता वाली हैं, जो पर्यावरण को ज्यादा नुकसान पहुंचाती हैं और मुट्ठी भर लोगों के इस्तेमाल की होती हैं। इसके साथ ही शराब, तंबाकू और खतरनाक रसायन का भी उत्पादन कम करने और पूरी मानव जाति की बुनियादी जरूरतों के हिसाब से उत्पादन समय की मांग है। लेकिन यह महज सिद्धांत की बातें होकर रह गई हैं और होता इसका ठीक उलटा है।

वादे बड़े, हिस्सेदारी छोटी

यह भी एक बड़ी चिंता की बात है कि धनी देश जलवायु परिवर्तन कोष के लिए सालाना 100 अरब डॉलर की राशि जुटाने में विफल रहे हैं। इस राशि का इस्तेमाल अन्य देशों को पर्यावरण अनुकूल तकनीक अपनाने के लिए बढ़ावा देने में किया जाना था। यह विचार पहली बार 2009 में आया और इन प्रतिबद्धताओं को साल-दर-साल दोहराया जाता रहा लेकिन 2020 के अंत तक हालात में कोई बहुत अंतर नहीं आया। 2020 में अमीर देश बमुश्किल 16 फीसदी योगदान के स्तर तक पहुंच सके।

इसी तरह, नुकसान के लिए उचित प्रावधान अभी तक नहीं किया जा सका है। हालांकि इस साल पाकिस्तान में विनाशकारी बाढ़ के बाद इसकी मांग उठ रही है। हॉर्न ऑफ अफ्रीका जैसे क्षेत्रों में, लोग जलवायु परिवर्तन के सबसे बुरे प्रभावों को झेल रहे हैं जबकि इसके लिए वे बिल्कुल भी जिम्मेदार नहीं। पहले हुई जलवायु वार्ताओं में इस ऐतिहासिक अन्याय के प्रति कहीं अधिक संवेदनशीलता थी और इस सुझाव के लिए समर्थन था कि समृद्ध देश गरीब देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद करें। हालांकि धनी देश गरीब देशों को इसके लिए वित्तीय-तकनीकी सहायता उपलब्ध कराने और मुआवजा तथा क्षतिपूर्ति की प्रतिबद्धता से पीछे हट गए हैं।

एक ओर तो दुनिया भर के धनी देश मिलकर भी गरीब देशों के लिए 100 अरब डॉलर नहीं जुटा पा रहे हैं, दूसरी ओर अकेले अमेरिका हर साल शराब पर 252 अरब डॉलर खर्च कर देता है और उसका घोषित सैन्य बजट लगभग 778 अरब डॉलर के आसपास है।


यूं ही नही हो रही बेमौसम और बेतहाशा बारिश

पाकिस्तान में, निश्चित रूप से इस वर्ष की शुरुआत में हुई अत्यधिक वर्षा के पीछे जलवायु परिवर्तन एक कारक था लेकिन वन क्षेत्र में तेज और लगातार गिरावट भी हालात को बदतर बनाने के लिए कम जिम्मेदार नहीं। लकड़ी माफिया और उन्हें फलने-फूलने देने के लिए जिम्मेदार अधिकारी अपनी गलती से मुंह नहीं मोड़ सकते।

दक्षिण एशिया और दुनिया के कई अन्य हिस्सों में हाल के वर्षों में असामान्य रूप से हुई भारी बारिश के कारण शहर के शहर बाढ़ से तबाह हो गए लेकिन इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि इसके पीछे शहरी नियोजन की भयानक विफलता भी बड़ा कारक है। आर्द्रभूमि और जल निकायों का अतिक्रमण और उचित जल निकासी प्रणाली न होने की वजह से स्थिति और खराब हो जाती है। निहित स्वार्थ और भ्रष्टाचार के मेल से अक्सर यही गलतियां बार-बार दोहराई जाती हैं। दिल्ली समेत राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र को ही लें। यहां साल-दर-साल वायु प्रदूषण का स्तर बद से बदतर होता जा रहा है। इससे लोगों को गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं हो रही हैं।

प्रदूषण फैलाने वाले देश ही कर रहे हैं इसे रोकने की वकालत

पराली जलाने के अलावा उद्योगों और वाहनों के प्रदूषण को कम करने की तमाम योजनाओं और दावों तथा भारी खर्चे के बाद भी समाधान नहीं निकल रहा है। जलवायु परिवर्तन का हवाला देकर स्थानीय विफलताओं को छिपाने की प्रवृत्ति विकृत है। कोई भी इससे इनकार नहीं कर सकता कि टाली जा सकने वाली गलतियों और नीतिगत विफलताओं के कारण बाढ़, सूखा, तटीय कटाव और भूस्खलन की घटनाएं हो रही हैं।

जहां गरीब देशों का प्रदूषण फैलाने वाले अमीर देशों से मुआवजा मांगना जायज है, वहीं उनकी जिम्मेदारी भी है कि इसका लाभ सबसे गरीब तक पहुंचे। दुर्भाग्य से तथ्य यह है कि कॉर्पोरेट क्षेत्र ने जलवायु से जुड़े कार्यों के उभरते हुए नए क्षेत्रों से सबसे अधिक लाभ कमाने की कोशिश की है। इसलिए न्याय की जरूरत सिर्फ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं बल्कि गरीब देशों के भीतर भी है।

सीओपी सहित अंतरराष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन सम्मेलनों में यह आम बात है कि जिन चंद देशों के कारण प्रदूषण की यह स्थिति हुई है, वही इसके सबसे बड़े हितैषी बनने की कोशिश करते नजर आते हैं। अपनी प्रदूषणकारी गतिविधियों को कम करने के बजाय इन्हें कार्बन ट्रेडिंग जैसे संदिग्ध प्रस्तावों को आगे बढ़ाते देखा जा सकता है।


पेड़ लगाने के नाम पर जमीनें कब्जाने की कोशिश

उदाहरण के लिए, प्रदूषण फैलाने वाली कोई इकाई यह दावा करती है कि उसके कारण जितना प्रदूषण हो रहा है, उसे बेअसर करने के लिए वह पेड़ लगा रही है। उसके बाद ऐसी इकाइयां उन जमीनों पर कब्जा करने की कोशिश करती हैं जिन्हें गरीब समुदाय अपने पशुओं को चराने या फिर किसी सार्वजनिक प्रयोजन के लिए इस्तेमाल करते हैं। अगर ये इकाइयां पेड़ लगा भी दें तो उसका वह असर नहीं होता। कारण, ये इकाइयां एक ही तरह के पेड़ लगाती हैं जबकि प्राकृतिक जंगल में इस तरह का पैटर्न नहीं होता, उसमें तरह-तरह के पेड़ प्राकृतिक तरीके से उगे होते हैं और इसलिए उनका पारिस्थितिकी पर कहीं अधिक सकारात्मक असर पड़ता है। इस तरह, प्रदूषक तत्वों के उत्सर्जन को ‘बेअसर’ करने के नाम पर जो किया जा रहा है, उससे उद्देश्य पूरा नहीं होता।

रुके हथियारों की होड़

खराब शासन, घरेलू हिंसा और राजनीतिक उथल-पुथल ने जलवायु परिवर्तन से निपटने और पीड़ितों को राहत प्रदान करने के प्रयासों को बुरी तरह प्रभावित किया है। इथियोपिया के टिग्रे क्षेत्र में भीषण सूखे के बाद आधी आबादी भुखमरी के कगार पर है। विश्व खाद्य कार्यक्रम (डब्ल्यूएफपी) द्वारा दूरदराज के इलाकों में भोजन बांटने के प्रयासों में इस कारण बाधा आ रही है कि स्थानीय अधिकारियों की मिलीभगत से बड़े पैमाने पर ईंधन की चोरी का धंधा फल-फूल रहा है। मई में विनाशकारी बाढ़ का सामना करने वाला पाकिस्तान राजनीतिक रूप से अस्थिर बना हुआ है। म्यांमार में चक्रवात के शिकार लोगों को इस कारण मदद नहीं मिल पा रही है कि वहां सैन्य जुंटा और स्थानीय मिलिशिया के बीच गृहयुद्ध छिड़ा हुआ है।

नई शुरुआत का समय आ गया है। युद्ध से बचने, हथियारों की होड़ और सामूहिक विनाश के हथियारों को खत्म करने को जलवायु संरक्षण योजनाओं का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। कृषि-पारिस्थितिकी की ओर बढ़ते हुए चंद लोगों के लिए विलासिता का संसार बसाने वाली और प्रदूषण फैलाने वाली वस्तुओं के उत्पादन में कमी लाकर भी ग्रीन गैस के उत्सर्जन में कमी लाई जा सकती है। इस संदर्भ में ताकतवर लॉबी के भ्रामक ‘समाधान’ के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए।

(भारत डोगरा ‘कैंपेन टू सेव अर्थ नाऊ’ के मानद संयोजक हैं)

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