विष्णु नागर का व्यंग्यः एक पार्टी है, जो खुद ही देती है लोगों को चाल, चरित्र और चेहरा

एक पार्टी है, उसमें शामिल हो जाओ तो एक के साथ एक मुफ्त शर्ट की तरह, चरित्र प्रमाण पत्र तो मिल ही जाता है, चाल भी मिल जाती है और साथ में चेहरा भी! आपके अपने चेहरे से उन्हें मतलब नहीं, चेहरा भी वो देते हैं। दूसरी पार्टियां सिर्फ ‘चरित्र’ दे पाती हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
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विष्णु नागर

यह बात दिलचस्प और आश्चर्यजनक है कि एकदम ऊपर से लेकर एकदम नीचे तक एक नहीं, दो नहीं, दस या सौ भी नहीं बल्कि शतप्रतिशत नेताओं का ‘चरित्र’ भी होता है और उसका समय -असमय ‘हनन’ भी होता रहता है! जैसे एक पार्टी है, उसमें शामिल हो जाओ तो एक के साथ एक मुफ्त शर्ट की तरह, चरित्र प्रमाण पत्र तो मिल ही जाता है, चाल भी मिल जाती है और साथ में चेहरा भी! आपके अपने चेहरे से उन्हें मतलब नहीं, चेहरा भी वो देते हैं। दूसरी पार्टियां सिर्फ 'चरित्र' दे पाती हैं। कुल मिलाकर हाल-फिलहाल स्थिति यह है कि राजनीति में वही आता है या उसे ही लाया जाता है, जिसका 'चरित्र' होता है। वह नहीं, जिसका 'चरित्र' नहीं होता! हम सब इसी दूसरी श्रेणी के जीव हैं, यानी 'चरित्रहीन' हैं, क्योंंकि राजनीति में नहीं हैं!

लेकिन अब नहीं हैं तो नहीं हैं। जीवन बर्बाद कर लिया, सो कर लिया। जैसे मर चुका आदमी रोने-धोने के बावजूद वापिस नहीं आता, वही स्थिति 'चरित्र' की भी है। हमने भी शुरू से 'चरित्र' की चिंता की होती तो यह नौबत नह़ी आती! अब तक हम राजनीति में आ और छा और शायद जा भी चुके होते या हो सकता है मोदी जी की तरह हुए होते। हालांकि, क्या मोदीजी इसे बर्दाश्त कर पाते?

राजनीति में होते तो हमारा 'चरित्र' जरूर होता, जो हमारे 'चरित्र हनन' का कारण भी बनता, भले ही वह मोदीजी-शाह जी की तरह 'अत्यंत आदर्श' होता, जिसमें चाल, चरित्र, चेहरा सबकुछ समाहित होता है! यह भी संभव था कि हमारा 'चरित्र' भी होता और 'बाल नरेंद्र'' की तरह 'बाल विष्णु' का चरित्र-चित्रण करनेवाले लेखक-प्रकाशक-फिल्मकार भी होते। ये हमारे उस 'चरित्र' के गुण गा रहे होते, जो कभी था भी नहीं और होगा भी नहीं। लेकिन अब पछताए का होत, जब चिड़िया चुग गई खेत!

सभी नेता 'चरित्रवान' होते हैं, इसका एकमात्र पुख्ता प्रमाण यह है कि 97-98 फीसदी नेता सफेद कुर्ता-पायजामा पहनते हैं (हाय, भगवा पहनना उन्होंने क्यों सीखा?)। जिस पर तमाम दाग-धब्बे होते हैंं, मगर एक भी दीखता नहीं! सफेद कुर्ते-पाजामे की इस खूबी से सिर्फ नेता वाकिफ हैं वरना साधारण जन तो ‘मैलखोर’ कपड़े खरीदना अपना अधिकार मानते हैं, जो कि संयोग से संविधान प्रदत्त भी नहीं है।

नेता होने की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि एक तरफ 'चरित्रवान' बने रहना होता है, दूसरी तरफ निरंतर अपना 'चरित्र-हनन' करवाते रहना होता है! कुछ लोग कहते हैं- शायद मजाक में ही कहते होंगे कि जो है नहीं, उसका 'हनन' कैसे हो  सकता है। लेकिन यह भी तो देखिये सबसे ज्यादा 'अपमान' अगर धर्म का होता है तो सबसे अधिक 'चरित्र- हनन' नेताओं का ही होता है! इस प्रकार नेताओं का संघर्ष दोहरा होता है। यह संघर्ष हमारे प्रधानमंत्री को तब भी करना पड़ता था, जब वह प्रधानमंत्री नहीं थे,अब भी ऐसे संघर्षों में वह मुब्तिला रहते हैं। राफेल वाला संघर्ष अभी वह कर ही रहे हैं और करना भी पड़ेगा। टीवी चैनल उनके चरित्र की सर्फ से इतनी धुलाई बड़ी मेहनत से रात को करते  हैं, मगर सुबह फिर गंदा हो जाता है। फिर शाम को धुलाई मशीन चलती है, फिर सुबह वही हाल!

वैसे बड़े नेता 'चरित्र हनन' के सभी प्रयासों को विफल करना अच्छी तरह जानते हैं, लेकिन संघर्ष तो उन्हें भी करना ही पड़ता है। क्योंकि चरित्र- प्रबंधन  का 'संघर्ष' भी तो आखिर संघर्ष ही है। यह भी होता है कि आज की सफलता कल की विफलता में बदलकर इस कद्र गले पड़ जाती है कि नेता का दम घुटता है, फिर भी वह छटपटाता नहींं, रोता-बिसूरता नहीं, आत्महत्या या आत्महत्या करने का प्रयास तक नहीं करता बल्कि कैमरे की तरफ मुस्कुराते हुए, साथ ही दृश्य या अदृश्य समर्थकों को दो ऊंगलियां दिखाते हुए, बलिदानी मुद्रा में जेल जाता है। जैसे वह नहीं, भगत सिंह का कोई अवतार प्रकट हुआ हो! यही वह एकमात्र 'वीरता' है, जिसके मध्ययुगीन 'अवशेष' इक्कीसवीं सदी में नेताओं में आज भी पाए जाते हैं। इन 'अवशेषों' को सुरक्षित रखने की जरूरत है ताकि जब भी 'वीरता म्यूजियम' बनाने का प्लान बने तो उसमें समय के साथ वीरता की बदलती अवधारणा वाले हिस्से में इन्हें भी रखा जा सके। ऑफकोर्स उस म्यूजियम में बलात्कारी और लिंचिंग वीरों को भी 'सम्मानजनक' स्थान मिलना चाहिए क्योंंकि यह उनका 'जन्मसिद्ध अधिकार' है! इतना कहने के बावजूद आशंका है कि वीरों की सूची में इन नेताओं को कभी नहीं शामिल किया जाएगा, लेकिन उनके 'अमूल्य योगदान' का विस्मरण करना भी इतिहास के साथ 'अन्याय' करना होगा।

प्रसन्नता की बात है कि देश का कुशल नेतृत्व इस 'अन्याय' को दूर करने की कोशिशों में आजकल जोरशोर और भोर से लगा हुआ है। ध्यान से देखें, आज के किसी अखबार या किसी टीवी चैनल पर ऐसी ‘ब्रेकिंग न्यूज’ जरूर चल रही होगी।

बस एक बात समझ में नहीं आती कि नेताओं की सुरक्षा के लिए साधारण सिपाही से लेकर ब्लैक कैट कमांडों तक दिन-रात लगे रहते हैं, फिर कोई कैसे उनका 'चरित्र हनन' करके चुपचाप सुरक्षित चला जाता है। इसे रोकने के लिए कोई कड़ी कार्रवाई निवर्तमान या वर्तमान सरदार पटेलों के होते न हुई  है, न होने जा रही है और अगर हो रही है तो इसकी जानकारी जनता को नहीं दी जा रही है! आरटीआई लगाकर यह पूछूंगा तो सरकार की ओर से जवाब जरूर आएगा कि ‘सरकार इस समस्या की गंभीरता से पूर्णतः अवगत है। सरकारी स्तर पर इस पर पहले से ही विस्तृत विचारविमर्श चल रहा है। इसके लिए एक समिति नियुक्त करने का निर्णय हुआ है, जिसकी प्रक्रिया जारी है।इसकी रिपोर्ट आने पर संसद में पेश की जाएगी और उपयुक्त कार्रवाई करने के निर्देश उपयुक्त अधिकारियों को दिए जाएंगे।’

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