'INDIA' वालों को न निराश होने की जरूरत, न हताश होने की, क्योंकि असली पिक्चर तो अभी बाकी है...

हाल के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के लिए निराशाजनक नतीजों के बावजूद अगले आम चुनावों के नजरिये से विपक्षी खेमे ‘INDIA’ के पास उम्मीदों को रोशन रखने की ठोस वजह है।

फोटो सौजन्य : @BharatJodoYtra
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आशीस रे

हिन्दी या ‘हिन्दू-हृदय राज्यों’- मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में चुनावी जीत के बाद भारतीय जनता पार्टी में जश्न का जो माहौल है, उसका कोई मतलब नहीं। वैसे ही, इन चुनावों में कांग्रेस के मजबूत प्रदर्शन की उम्मीद संजोए लोगों में भी जो निराशा है, उसका भी कोई मतलब नहीं। दोनों ही मोर्चों पर जो प्रतिक्रिया है, उसकी बड़ी वजह इन विधानसभा चुनावों के आईने में आगामी आम चुनावों की छवि को देखना है। लेकिन यह छवि आभासी है और दोनों ही मामलों में लोगों की कल्पना का प्रक्षेपण मात्र है। वजह, विपक्षी मोर्चा ‘INDIA’ मई, 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव को जीतने जा रहा है, बशर्ते घटक दलों को बस यह याद रहे कि दांव पर क्या है और वे एक विशालकाय जंगल को चंद पेड़ों का झुंड समझने की नादानी न करें।

राज्य-स्तरीय प्रतिद्वंद्विता जरूर ‘INDIA’ को तालमेल करने में दिक्कतें पैदा करेगी और इस मोर्चे पर दूरदर्शिता के साथ पेश आना होगा। उदाहरण के लिए, कांग्रेस और वामपंथी दल राष्ट्रीय स्तर पर बेशक एक ही पाले में हों, लेकिन केरल में वे एक-दूसरे के लिए बिना कोई मुरव्वत दिखाए आमने-सामने होंगे। इसका असर ‘INDIA’ की संख्या पर नहीं पड़ना चाहिए, क्योंकि राज्य की 20 लोकसभा सीटें ऐतिहासिक रूप से इन्हीं दोनों पार्टियों और उनके सहयोगियों के बीच साझा की जाती रही हैं और बीजेपी की वहां एक भी सीट पर कभी दाल नहीं गल पाई। 

पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और लेफ्ट का साझा मोर्चा बनाने की संभावनाएं हैं, हालांकि ऐतिहासिक कारणों से प्रदेश सीपीएम इकाई किसी भी समझौते पर पहुंचने के बजाय, तृणमूल के खिलाफ ही चुनाव लड़ेगी। कांग्रेस भी यही रुख अपनाती है या तृणमूल के साथ सीट बंटवारे पर सहमत होती है, यह देखना बाकी है क्योंकि यह एक मुश्किल फैसला होगा।

वैसे, बंगाल में बीजेपी ने जितनी भी ‘बहादुरी’ दिखाई हो, 2021 में हुए पिछले विधानसभा चुनाव के बाद के उप-चुनावों में वह तीसरे-चौथे स्थान पर ही रही है। इस लिहाज से अगर 2019 के लोकसभा चुनाव में जीती 18 सीटों में से वह आधी भी बचा सकी, तो बड़ी बात होगी। 

कांग्रेस ने ‘INDIA’ के बनने के पहले ही साफ कर दिया था कि उन राज्यों में जहां उसकी पकड़ उतनी नहीं है, वह बड़ी पार्टियों के लिए जमीन छोड़ने को तैयार है। इस फॉर्मूले के आधार पर समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में सबसे प्रभावी ताकत है और इस लिहाज से वह राज्य में ज्यादातर सीटों की मांग करेगी। जिन राज्यों में कांग्रेस क्षेत्रीय दलों की ताकत के आधार पर उनके लिए जगह छोड़ेगी, वहां सीटों पर तालमेल राज्य विशेष की राजनीतिक स्थितियों पर निर्भर करेगा। 


दिल्ली और अब पंजाब- इन दो राज्यों में सरकार में होने के कारण आम आदमी पार्टी दिल्ली और पंजाब में ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने की मांग करेगी। जब राहुल गांधी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान दिल्ली से गुजरे, तो उनकी स्वीकार रेटिंग सी-वोटर के अनुसार बढ़कर 55% हो गई। इससे पता चलता है कि राजधानी क्षेत्र में जमीनी हकीकत बदल गई है और इस बात को ध्यान में रखते हुए बात करें तो आम आदमी पार्टी के लिए यही व्यावहारिक होगा कि वह जमीनी हकीकत को समझते हुए कदम उठाए।

बेशक बीजेपी ने दिल्ली में अपना आधार बरकरार रखा है और अभी उसका यहां की सातों लोकसभा सीट पर कब्जा है लेकिन कांग्रेस-आम आदमी पार्टी में अगर कोई समझौता हो जाता है, तो इस गठजोड़ में ताकत है कि वह बीजेपी के इस गढ़ में बड़ा उलटफेर कर दे।

पंजाब में अगर बहुकोणीय मुकाबला होता है तो बीजेपी ज्यादा से ज्यादा एक सीट जीत सकती है। कनाडा में हरदीप सिंह निज्जर की हत्या और अमेरिका में गुरपतवंत सिंह पन्नू की हत्या की साजिश में कथित तौर पर भारतीय एजेंसियों का हाथ होने की रिपोर्टों का लोगों में गलत संदेश गया है और बीजेपी को लोकसभा चुनाव में इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।

वहीं, पूरे दक्षिण भारत में जहां 130 सीटें हैं, बीजेपी को 15 सीटें जीतने के लिए भी एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ सकता है क्योंकि बीजेपी का दक्षिणी राज्यों में हिन्दी और हिन्दुत्व थोपना लोगों को रास नहीं आता। लिहाजा, ‘INDIA’ इस भाग से करीब 100 सीटें हासिल करने में सक्षम है।

मोदी सरकार प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई), आयकर विभाग (आईटी) और अन्य केंद्रीय सरकारी एजेंसियों के गैरकानूनी इस्तेमाल से बाज आने से रही। लेकिन ये एजेंसियां महाराष्ट्र को छोड़कर कहीं भी अपनी नापाक कोशिशों में कामयाब नहीं हो सकी हैं। हालांकि इसका एक यह असर जरूर हुआ है कि ‘INDIA’ के दिग्गज नेताओं में बीजेपी को उखाड़ फेंकने का संकल्प मजबूत हुआ है। 

विधानसभा के नतीजों को लेकर चुनावी मौसमी पंडित तरह-तरह की बातें कर रहे हैं और वे इसकी जटिल व्याख्या कर रहे हैं, इसलिए जरूरी है कि आंकड़ों की बात की जाए जो बड़ी निष्पक्षता के साथ जमीनी कहानी बयां कर रहे हैं। अगर चुनाव आयोग पर भरोसा करें तो तीनों में से किसी भी हिन्दी भाषी राज्य में कांग्रेस को मिले वोटों के प्रतिशत में कोई बहुत अधिक गिरावट नहीं आई है। दरअसल, राजस्थान में तो मुकाबला काफी करीबी रहा। सीएसडीएस-लोकनीति के सर्वे में कहा गया है कि राजस्थानी मतदाताओं पर अशोक गहलोत की तुलना में नरेंद्र मोदी सरकार के उपहारों का जादू ज्यादा चला। 

छत्तीसगढ़ में तो सरकार ने विभिन्न योजनाओं के जरिये परिणाम भी दिए थे जिसका लोगों पर अच्छा असर पड़ा था और इसलिए कांग्रेस भी आशावान थी। इसका नतीजा यह निकला कि कांग्रेस का वोट प्रतिशत बना रहा। चुनाव परिणाम में अंतर दूसरे दलों का जनाधार खिसकने से आया। चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक 2018 की तुलना में जनता कांग्रेस के कम-से-कम 80% और बसपा के 50% वोट बीजेपी में चले गए।


छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में महिलाओं के एक वर्ग जिनमें से ज्यादातर बीजेपी जैसी पुरुष अंधराष्ट्रवादी, स्त्री-द्वेषी पार्टी के खिलाफ वोट करते थे, ने पाला बदलकर बीजेपी को पसंद किया, यह जरूर कांग्रेस के लिए चिंता का विषय है। बीजेपी महिला मतदाताओं को यह समझाने में सफल रही कि कल्याणकारी योजनाएं, जैसे प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण जिनसे उन्हें लाभ होता है, वे सभी केंद्र सरकार की मेहरबानी हैं।

विधानसभा चुनावों की घोषणा होने और चुनाव से जुड़ी आदर्श आचार संहिता लागू होने के बाद नरेंद्र मोदी ने 5 नवंबर को मुफ्त राशन योजना को बढ़ा दिया जिससे 60% आबादी को ऐसे समय में लाभ हुआ जब खाद्य मुद्रास्फीति (खाने-पीने की चीजों की महंगाई दर) 9.2 फीसदी के चरम पर थी। तीनों राज्यों में हिन्दुत्व कार्यकर्ताओं की सेना ने गरीब-गुरबों को घर-घर जाकर उन्हें बार-बार समझाया कि मोदी उन्हें मुफ्त में राशन दे रहे हैं और ‘क्या आप उस हाथ को काटेंगे जो आपको खाना खिलाता है?’ 

हालांकि मध्य प्रदेश का मामला थोड़ा उलझाने वाला है। बीजेपी सरकार के पक्ष में पड़े 7.5% अतिरिक्त वोट आखिर कहां से आ गए जो तमाम तरह के भ्रष्टाचार और अक्षमता से घिरी अलोकप्रियता का सामना कर रही थी? 2018 की तुलना में बीएसपी और समाजवादी पार्टी वोटों के स्थानांतरण से उसे केवल 2.5% का लाभ हुआ।

इसके अलावा, जैसा कि मध्य प्रदेश के पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने कहा कि उनकी पार्टी डाक मतपत्रों में बीजेपी से 21% आगे थी लेकिन इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) की गिनती में 9% पीछे रह गई। इससे साफ है कि डाक मतपत्रों और ईवीएम वोटों के बीच बीजेपी के पक्ष में हैरान करने वाला 30% स्विंग रहा। कहीं दाल में कुछ काला तो नहीं क्योंकि आम तौर पर पोस्टल बैलेट में जहां किसी तरह की कोई गड़बड़ी की संभावना नहीं दिखती, ईवीएम-आधारित चुनाव की सत्यता और अभेद्यता प्रमाणित नहीं, इसलिए इस पर पूरी तरह भरोसा नहीं किया जा सकता।  

यह मानना तर्कसंगत होगा कि जिन राज्यों में बीजेपी सत्ता में है, वहां उसे फायदा होगा। उस लिहाज से मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की हार कांग्रेस के लिए झटका है। संक्षेप में कहें तो गुजरात, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भगवा ब्रिगेड बढ़त की स्थिति में है। अगर महाराष्ट्र अब भी बीजेपी के नेतृत्व वाली स्थिति में है, तो यह भी एक संवेदनशील मामला है। 

कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए की 2009 की जीत महाराष्ट्र और संयुक्त आंध्र प्रदेश में सफलता पर आधारित थी। ओपिनियन सर्वे से, अगर उन पर भरोसा करें तो, पता चलता है कि महाराष्ट्र में लोगों को शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस सरकार के गिरने और उद्धव ठाकरे और शरद पवार की पीठ में छुरा घोंपने से धक्का लगा था। सरकार गिराने वाले दलबदल के मामले में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका का भी असर पड़ा होगा। 

तेलंगाना में कांग्रेस की जीत का असर आगे आंध्र प्रदेश पर भी पड़ सकता है। जिस तरह कर्नाटक में कांग्रेस की वापसी ने तेलंगाना में भी उसके आने की राह तय करने में योगदान दिया, वैसे ही तेलंगाना में मिली जीत की वजह से आंध्र प्रदेश में बदलाव की बयार बह सकती है क्योंकि वह भी तेलुगु भाषी क्षेत्र है।


गुजरात में बीजेपी को भारी संख्या में सीटें मिलने की संभावना है और उत्तर प्रदेश और शायद मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी ज्यादातर सीटें बीजेपी के ही पक्ष में जाएं। फिर भी, बीजेपी की सीटें 150 से कम होंगी और यहीं पर उनके चुनावी रथ का पहिया दलदल में फंस जाएगा। लोकसभा में बहुमत के लिए जरूरी बाकी 122 सीटें कहां से आएंगी? भले ही बीजेडी, वाईएसआर कांग्रेस और बीआरएस को बीजेपी अपने पाले में शामिल होने के लिए बहकाया लेकिन वे अपने उद्देश्य के करीब भी नहीं पहुंच पाएंगे।

एक मोटा-मोटी आकलन है कि ‘INDIA’ के उम्मीदवार 450 से ज्यादा सीटों पर बीजेपी को पछाड़ सकते हैं। जाति जनगणना के लिए राहुल गांधी का आह्वान शायद मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ चुनावों को प्रभावित करने के लिए बहुत देर से आया लेकिन भारतीय राजनीति का सूत्र वाक्य है हिम्मत मत हारो, बटन दबाते जाओ, इनाम जरूर मिलेगा।

संदेह नहीं, ओबीसी वोट अहम है। बिहार में राज्य सरकार द्वारा की गई जाति जनगणना से ओबीसी के बीच समाज में उनकी ताकत के बारे में जागरूकता बढ़ने की संभावना है और उन्होंने इस मामले को उनके संज्ञान में लाने के लिए जेडीयू-आरजेडी के प्रभुत्व वाली सत्तारूढ़ सरकार की तारीफ भी की है। 

कांग्रेस को दलित वोट बैंक में बड़ी सेंध लगाने की जरूरत है। पिछली बार जब जगजीवन राम पार्टी के पहले दलित अध्यक्ष थे, तब पार्टी ने 1971 के लोकसभा चुनाव में जीत हासिल की थी। बीजेपी द्वारा जिस तरह से आबादी में 14 फीसदी की भागीदारी रखने वाले मुसलमानों पर सितम ढाया जा रहा है, उससे समुदाय ‘INDIA’ के साथ अपनी किस्मत आजमाने के बारे में जितना गंभीर आज दिखता है, उतना शायद पहले कभी नहीं रहा। 

ऐसा लगता है कि राहुल गांधी की यात्रा के बाद उनकी लोकप्रियता रेटिंग और जिन राज्यों में उन्होंने यात्रा की, वहां कांग्रेस को मिले वोटों के प्रतिशत के बीच रिश्ता है, जैसा कि सी-वोटर के सर्वेक्षण से पता चलता है। दूसरे शब्दों में, जहां रेटिंग 50 फीसदी से ऊपर थी, वहां कांग्रेस की जीत हुई। इसमें मध्य प्रदेश जरूर अपवाद रहा जहां उन्होंने राज्य के केवल एक छोटे हिस्से को कवर किया था। उदाहरण के लिए:

  • कर्नाटक में राहुल की रेटिंग 57.7 फीसदी थी; कांग्रेस को जीत मिली। 

  • तेलंगाना में उनकी रेटिंग 55.6 थी; कांग्रेस जीती। 

  • राजस्थान में उनकी रेटिंग 40.8 प्रतिशत थी; कांग्रेस हार गई।

  • महाराष्ट्र में राहुल ने केवल पूर्वी हिस्से को छुआ जहां उनकी रेटिंग 52.2 फीसद और दिल्ली में 55 फीसद रही।  

    इस नजरिये से देखें तो गुजरात और महाराष्ट्र समेत पूरे हिन्दी भाषी राज्यों में एक और यात्रा करने की जरूरत दिखती है। इसके साथ ही लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी जिस तरह अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन के जरिये हिन्दुत्व को सियासी फायदे के लिए इस्तेमाल कर रही है, उसकी भी काट खोजनी होगी। विपक्ष को बीजेपी के जहरीले 80:20 के नैरेटिव को निष्प्रभावी करने के तरीके निकालने होंगे। उसे महंगाई, बेरोजगारी और असमानता जैसे जनता को प्रभावित करने वाले असल मुद्दों को जोरदार तरीके से उठाना होगा। उसे लोगों को यह बताने के भी तरीके निकालने होंगे कि संस्थागत कल्याण और चुनावी मौसम के उपहारों में क्या अंतर है।  


देश की आधे से भी कम 46% श्रमिक आबादी वास्तव में काम करती है और मोदी प्रशासन के साढ़े नौ सालों में यह आंकड़ा स्थिर बना हुआ है। 25 वर्ष से कम आयु के स्नातकों में बेरोजगारी 42% है। औसतन 25% स्नातक बेरोजगार हैं। लोग ज्यादा उधार ले रहे हैं, कम उपभोग कर रहे हैं और अपनी संपत्ति और बचत को खत्म कर रहे हैं। लोगों की बचत 50 साल के निचले स्तर 5.1% पर आ गई है। 16.3% बच्चे अल्पपोषित हैं; पांच साल से कम उम्र में तो वे भूख से मर रहे हैं। जब भी ‘INDIA’ के दल न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय करने बैठें तो उन्हें इन आंकड़ों के साथ जनता के बीच जाना चाहिए क्योंकि ये तथ्य ‘मोदी की गारंटी’ की पोल खोलने वाले हैं। 

बीजेपी 2024 के आम चुनाव में भी कल्याणवाद का अपना खेल जारी रखेगी। लेकिन ऐसे ‘जुमलों’ की लंबी फेहरिस्त है जहां मोदी के वादे जमीन पर नहीं उतरे। यह सही है कि सरकार की शातिर विज्ञापनबाजी और चीयरलीडर बने मीडिया के इस दौर में इसकी काट आसान नहीं लेकिन विपक्ष को जनता को यह बात बार-बार याद दिलानी होगी कि उनसे क्या वादा किया गया और वास्तव में उन्हें क्या मिला।  

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