विष्णु नागर का व्यंग्य: ये न सुधरे थे पहले कभी, न अब सुधरेंगे, चाहे लोकसभा चुनाव ही क्यों न हार जाएं

वेद और पुराण में क्या है, ये बताएंगे मगर खुद नहीं पढ़ेंगे, न देखेंगे, न जिसने पढ़ा है, उसे सुनेंगे।इनके पूर्वज पढ़ और सुन चुके, ये बेचारे दोबारा कष्ट क्यों करें, क्यों पढ़ें, जब ‘मोदी-मोदी’ करके काम चल सकता है तो पढ़ने जैसा ‘फालतू’ काम क्यों करें।

फोटो: सोशल मीडिया
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विष्णु नागर

ये न सुधरे थे पहले कभी, न अब सुधरेंगे। चाहे ये गोरखपुर की लोकसभा सीट हार जाएं या फूलपुर की या कैराना की या लोकसभा चुनाव हार जाएं, ये नहीं सुधरेंगे तो नहीं ही सुधरेंगे। ये 2014 के बाद से आज तक 27 में से 22 लोकसभा सीटें हार चुके हैं पर ये मूर्खता के जिस मटेरियल के बने हैं और घमंड की जिस तकनालाजी के जरिए बिकाऊ उत्पाद बने हैं, अब वह इतनी कचरा हो चुकी है, उसमें इतनी जंग लग चुकी है कि कोई लोहेलंगरवाला भी खरीदने को तैयार नहीं मगर ये, ये हैं, ये नहीं सुधरेंगे। ये उपचुनावों में हार जाएंगे तो कहेंगे, देखना इसका मतलब है कि हम लोकसभा में जीतने जा रहे हैं। ये लोकसभा चुनाव हार जाएंगे तो कहेंगे, ये 'अवसरवाद' की जीत है, ये 'अपवित्र गठबंधन' की जीत है। ये दरअसल हमारी नहीं, 'राष्ट्रवाद' की हार है। ये 'हिंदुओं' की हार है। जैसे हिंदू वही हो सकता है, जो इन्हें वोट दे, जो भले भूखा मर जाए, बर्बाद हो जाए मगर मोदी-मोदी ही करता रहे। आत्महत्या करे तो भी मोदी-मोदी करके ही फंदे पर झूले।

ये 'राष्ट्रवादी' तो इतने ज्यादा हैं कि इन बेचारों ने राष्ट्र की खातिर ही आजादी की लड़ाई नहीं लड़ी थी। इन्हें आजादी नहीं, हिंदू राष्ट्रवाद चाहिए था, जो ये जानते थे कि गांधी, नेहरू और भगत सिंह इन्हें दे नहीं सकते तो क्यों लड़ें लड़ाई? अब जब ये लड़ाई लड़ी और जीती जा चुकी है, तब ये आराम से अब राष्ट्रवाद के मैदान में टहलते-टहलते आए हैं और कह रहे हैं, हम हैं सच्चे राष्ट्रवादी। ऐसे धूर्त राष्ट्रवादी इस महान देश के अलावा और कहां मिलेंगे! ये इतने घनघोर हिंदूवादी हैं कि इन्हें नफरत करने के अलावा कुछ आता नहीं। ये नफरत करने के लिए कभी गाय को पकड़ लाते हैं, कभी 'लव जिहाद' की आग जलाकर उसमें अपने हाथ तापते हैं। इन्हें देश और उसके लोगों की आजादी से नफरत है, मुसलमानों, दलितों और औरतों से नफरत है। इन्हें हर उस चीज से नफरत है, जो लोकतंत्र की रक्षा करती है। ये न कभी सुधरे हैं, न अब सुधरेंगे।

सही भी है, जिसने सबको सुधारने का ठेका हथिया लिया हो, यह मान लिया हो कि एक वही है, जो सुधार सकता है, वह कैसे मान ले कि दरअसल सुधरने की जरूरत तो उसे है! इसलिए ये नहीं सुधरेंगे। बिगाड़ने का अर्थ इनके शब्दकोश में सुधारना है। ये इस तरह इतिहास भी 'सुधार' रहे हैं, 'भूगोल' भी, ये सबकुछ 'सुधार' देंगे, लेकिन खुद नहीं सुधरेंगे। ये 'सुधारनेवालों' की नस्ल के हैं, सुधरनेवालों की नस्ल के नहीं। ये बाबा हैं, प्रवचन दे सकते हैं, आशीर्वाद दे सकते हैं मगर किसी को सुन और देख नहीं सकते।

इस प्रजाति में भक्त होते हैं, समर्थक नहीं, उसी तरह जैसे टीवी पर संघ के प्रवक्ता नहीं होते, जो होते हैं सिर्फ 'विचारक' होते हैं। जहां विचार की जगह नहीं, जहां उसकी धूप नहीं, छांह नहीं, वहां 'विचारक' होते हैं। जहां बुद्धि का स्थान नहीं, वहां 'बौद्धिक' होते हैं। जहां अमित शाह जैसा परम अबौद्धिक, 'बौद्धिक' ज्ञान देता हो। जहां बुद्धि की हालत इतनी दयनीय हो, वहां अमित शाह ही 'बौद्धिक' हो सकते हैं, 'बौद्धिकों' को संबोधित कर सकते हैं और ऐसे 'बौद्धिक' भी मिल जाते हैं, जो इनसे संबोधित होने को तैयार हो जाते हैं। इसके बाद कहने के लिए बचता क्या है, सिर्फ भारत माता की जय, इसलिए ये न सुधरे थे, न सुधरेंगे।

वेद और पुराण में क्या है, ये बताएंगे मगर खुद नहीं पढ़ेंगे, न देखेंगे, न जिसने पढ़ा है, उसे सुनेंगे।इनके पूर्वज पढ़ और सुन चुके, ये बेचारे दोबारा कष्ट क्यों करें, क्यों पढ़ें, जब 'मोदी-मोदी' करके काम चल सकता है तो पढ़ने जैसा 'फालतू' काम क्यों करें। ये सूखी हुई घास हैं, ये धू-धूकर जल सकते हैं, हरे नहीं हो सकते। ये झड़े हुए पत्ते हैं, ये सड़ सकते हैं, पेड़ में  फिर लग नहीं सकते। ये कांग्रेस मुक्त ही नहीं, विपक्ष मुक्त करने आए थे। भारत की जनता अगर उनसे ही मुक्त होना चाहती है तो हो जाए मगर न ये पहले सुधरे थे, न अब सुधरेंगे। ये हार को जीत, अंधकार को प्रकाश बताएंंगे मगर सुधरेंगे नहीं। ये जली हुई रस्सी हैं, टेढ़े थे, टेढ़े ही रहेंगे। इसी तरह किसी दिन कूड़ेदान में चले जाएंगे मगर सुधरेंगे नहीं। इन्होंने ध्वजप्रणाम करके वचन दिया है कि हम न ही सुधरे थे और न हम कभी सुधरेंगे।

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