भाषा पर इस सरकार की 'भाषा' स्पष्ट नहीं, नाकामी छिपाने के लिए पैदा करती है विवाद

अहंकारी और मनोरोगी नेता एक रणनीति, बेईमानी, विपक्ष का चरित्र हनन, कुप्रचार और सामाजिक ताने-बाने को रौंदकर सत्ता तक पहुंचते हैं। यही कपटी नेताओं का चारित्रिक गुण है, राजनैतिक विशेषता है। ऐसे नेताओं का अपना एजेंडा होता है जिसे वे सत्ता में आकर पूरा करते हैं।

भाषा पर इस सरकार की 'भाषा' स्पष्ट नहीं, नाकामी छिपाने के लिए पैदा करती है विवाद
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महेन्द्र पांडे

जब सत्ता के पास जनता को बताने लायक कोई मुद्दा नहीं होता है तब कभी भाषा का, कभी पहनावे का, कभी रंगों का और कभी धर्म का मुद्दा खड़ा कर दिया जाता है। हमारे देश में लगातार ऐसा ही हो रहा है। पर, दिक्कत यह है कि मुद्दे खड़े करने के बाद भी सत्ता के शीर्ष में बैठे राजनेता अपना एजेंडा लागू नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे राजनेता एक बार अपना एजेंडा सार्वजनिक तौर पर उजागर कर तो देते हैं और फिर तमाम विरोधों के बाद अगले कई दिनों तक अपने ही वक्तव्यों को गलत साबित करने में जुट जाते हैं।

शीर्ष से लेकर सभी संतरी-मंत्री पहले अपना एजेंडा स्पष्ट करते हैं और फिर विरोध होने पर अपना बयान बदलने लगते हैं। सत्ता के शिखर पर बैठे नेता कभी अंग्रेजी, कभी उर्दू तो कभी दूसरी स्थानीय भाषाओं पर अपमानजनक वक्तव्य देते हैं और अगले ही दिन अपने वक्तव्य से मुकर जाते हैं। देश की भाषाओं के साथ ही परंपरा और संस्कृति के साथ जितना अपमानजनक व्यवहार इस सरकार ने किया है उतना तो शायद अंग्रेजों और मुगलों ने भी नहीं किया था।

सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेताओं के वक्तव्य और आचरण भी कहीं से मेल नहीं खाते हैं। गृह मंत्री ने जिस दिन अंग्रेजी बोलने वालों को शर्म आने वाला बयान दिया था, उसके कुछ दिनों बाद ही मुस्कराते हुए “इमरजेंसी फाइल्स” नामक अंग्रेजी में प्रकाशित पुस्तक का विमोचन करते नजर आ रहे थे। हिन्दी को बढ़ावा देने, पूरे देश में लागू करने जैसे विषयों पर बात करने से पहले केंद्र सरकार को अपने कामकाज में भाषा के इस्तेमाल की विवेचना करनी चाहिए।

संसद में दिए गए अधिकतर लिखित उत्तरों के साथ ही अधिकतर मंत्रालयों की वेबसाइट पर मंत्रालय के गतिविधियों की पूरी जानकारी हिन्दी में उपलब्ध नहीं है। प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो के बुलेटिन मूलतः अंग्रेजी में प्रकाशित होते हैं, इनमें से अधिकतर बुलेटिन का अनुवाद हिन्दी में उपलब्ध नहीं है। नीति आयोग और सांख्यिकी मंत्रालय जनता से जुड़े मुद्दों पर तमाम रिपोर्ट केवल अंग्रेजी में प्रकाशित करता है।


जहां हिन्दी में जानकारी उपलब्ध है, वहां भी आप हिन्दी में क्या पढ़ रहे हैं यह नहीं पता। जी20 शिखर सम्मेलन के बाद घोषणापत्र का हिन्दी अनुवाद एक बार पढ़कर देखिए, आपको कुछ भी समझ में नहीं आएगा। हिन्दी में किस कदर गलत जानकारी मिलती है, इसका उदाहरण भारत मौसम विज्ञान विभाग की रिपोर्ट, वार्षिक जलवायु सारांश 2024, से स्पष्ट होता है। मूलतः अंग्रेजी में प्रकाशित इस रिपोर्ट में 3 पृष्ठों का हिन्दी में सारांश संलग्न है। हिन्दी में सारांश के अनुसार, वर्ष 2024 में प्राकृतिक आपदाओं के कारण देश में कुल 2400 लोगों की मृत्यु हुई, इसमें से 1280 मौतें आकाशीय बिजली गिरने के कारण हुईं। दूसरी तरफ रिपोर्ट के अंग्रेजी हिस्से के अनुसार वर्ष 2024 में प्राकृतिक आपदाओं में कुल 3207 मौतें हुईं, जिसमें से 1374 मौतें आकाशीय बिजली गिरने के कारण हुईं। जाहिर है, एक ही रिपोर्ट के हिन्दी और मौलिक अंग्रेजी हिस्से के आंकड़ों में भारी अंतर हो सकता है- अंग्रेजी में ज्यादा लोग मरते हैं और हिन्दी में कुछ मृतक वापस जिंदा हो जाते हैं।

भाषा के संदर्भ में केंद्र सरकार का रवैय्या हमेश से अस्पष्ट रहा है। वर्ष 2004-2005 से क्लैसिकल, यानि पारंपरिक भाषाओं की चर्चा की जा रही है और अब तक महज 11 भाषाएं इस सूची में शामिल हैं। इन भाषाओं को आगे बढ़ाने के लिए सरकार अनुदान देती है, पर इसका बड़ा हिस्सा संस्कृत को मिलता है, जिसे बोलने वालों की संख्या नगण्य है। सरकारी तौर पर घोषित पारंपरिक भाषाओं में संस्कृत के अतिरिक्त तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, ओडिया, मराठी, पालि, प्राकृत, असमिया और बंगाली भाषाएं शामिल हैं।

आरटीआई के तहत पूछे गए एक प्रश्न के जवाब में केंद्र सरकार ने बताया है कि वर्ष 2014-2015 से 2024-2025 के बीच संस्कृत को बढ़ावा देने के लिए कुल 2532.59 करोड़ रुपये, यानि प्रति वर्ष औसतन 230.24 करोड़ रुपये का अनुदान दिया गया। यह राशि इसी दौरान तेलुगु, तमिल, कन्नड़, मलयालम और ओडिया भाषाओं को संयुक्त तौर पर दी जाने वाली आर्थिक सहायता से भी 17 गुना अधिक है। विडंबना यह है कि संस्कृत बोलने वाले देश में नगण्य हैं जबकि तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़ और ओडिया को संयुक्त तौर पर देश की 22 प्रतिशत आबादी बोलती है।

एक अध्ययन के अनुसार, अहंकारी और मनोरोगी नेता एक रणनीति, बेईमानी, जोड़-तोड़, विपक्ष का चरित्र हनन, कुप्रचार और सामाजिक ताना-बाना को रौंदते हुए सत्ता तक पहुंचते हैं। यही कपटी नेताओं का चारित्रिक गुण है, राजनैतिक विशेषता है और ऐसे नेताओं का अपना एजेंडा होता है जिसे वे सत्ता में आकर पूरा करते हैं। ऐसे नेताओं के समर्थक अधिक संख्या में, उग्र और हिंसक होते है और ऐसे नेता जैसे ही सत्ता में पहुंचते हैं अपनी हिंसक भाषा और व्यवहार से जनता के बीच पहले से अधिक हिंसा बढ़ाते हैं और सामाजिक ध्रुवीकरण भी। यही इन नेताओं का तुष्टीकरण है और एजेंडा भी। समर्थक अपने नेताओं को सही मानते हैं और उन्हीं का शिद्दत के साथ अनुसरण करते हैं।


ऐसे समर्थक विपक्षी और लिबरल नेताओं के तथ्य से परिपूर्ण बातों पर नहीं बल्कि अपने नेताओं के अनर्गल प्रलाप पर भरोसा करते हैं। हमारे अपने राजनेता ही हमें अधिक उग्र, असहिष्णु और हिंसक बना रहे हैं और हम आंखें बंद कर उनका समर्थन कर रहे हैं। एक अजीब तथ्य यह भी है कि राजनैतिक और आर्थिक अस्थिरता के दौर में समाज चरम कट्टरपंथी और भाषाई बाहुबली नेताओं पर अधिक भरोसा करने लगता है। यह इन मनोरोगी और कुटिल राजनेताओं को भी पता है, तभी सत्ता में आने से पहले ऐसे राजनेता सामाजिक अस्थिरता बढ़ाने में लिप्त रहते हैं और अपने समर्थकों के बीच यह संदेश पहुंचाने में व्यस्त रहते हैं कि सत्ता का विकल्प केवल कट्टरपंथी नेता ही हैं। ऐसे राजनेता भाषा को भी समाज से निकालकर एक वर्ग का और एक राजनैतिक दल का विषय बना देते हैं।

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