कांग्रेस की इस नई पहल ने आजादी के दिनों की याद दिला दी!
‘क्राउड फंडिंग’ शब्द जरूर आज का है लेकिन हमारे लिए यह कोई नई अवधारणा नहीं। आजादी की पूरी लड़ाई के दौरान कांग्रेस को पैसे की कभी कमी नहीं हुई, लोगों ने आंदोलन को जिंदा रखा।
![फोटोः IANS](https://media.assettype.com/navjivanindia%2F2023-12%2F96b81e7e-bf3e-4ab2-9d2e-6b81a3bbc7a3%2FCongress.jpg?rect=0%2C29%2C1000%2C563&auto=format%2Ccompress&fmt=webp)
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा शुरू की गई आशाजनक नई पहल जिसे अब ‘क्राउड फंडिंग’ कहते हैं, स्वतंत्रता संग्राम के उन दिनों की याद दिलाती है जब इसमें कोई अनूठापन नहीं था, बल्कि तब यह बड़ी सामान्य सी बात थी।
अभियान की घोषणा करते समय कांग्रेस ने मांगी गई राशि (138 रुपये और उसके गुणकों) को पार्टी की स्थापना से जोड़ा तो 1921 में असहयोग आंदोलन के दौरान गांधीजी के अभियान का उल्लेख करके स्वतंत्रता संग्राम की विरासत से भी जोड़ दिया। तब कांग्रेस के कार्यों को आगे बढ़ाने के लिए तिलक स्वराज कोष में एक करोड़ रुपये जुटाए गए थे।
इसमें संदेह नहीं कि गांधीजी धन जुटाने में बड़े अभिनव थे। यहां तक कि जो लोग उनका हस्ताक्षर चाहते थे, उनसे भी वह कुछ रुपये ले लेते थे! लेकिन यह विरासत इससे भी आगे बढ़कर स्वतंत्रता आंदोलन के लिए पैसे इकट्ठा करने में भारतीय लोगों के योगदान तक जाती है।
लगभग चार दशक पहले प्रोफेसर बिपन चंद्रा के नेतृत्व में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के इतिहास अध्ययन केन्द्र से हममें से एक समूह ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वालों और इसके गवाह रहे लोगों की बातों को इकट्ठा करने के लिए देश के कई अलग-अलग हिस्सों की यात्रा की। उस दौरान हमने जो सवाल पूछे, उनमें अक्सर यह भी होता: ‘पैसे कहां से आए?’ कार्यकर्ता-प्रतिभागियों की ओर से इसका जो सबसे आम जवाब मिला, वह यह था कि पैसे की बहुत कम जरूरत होती थी। पैसे कहां से आते थे, इसका जवाब राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने अपने अनोखे अंदाज में दिया। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि राजनीतिक कार्यकर्ता अपने खर्चों के लिए कोई भी पैसा लेने में बेहद अनिच्छुक थे। ज्यादातर ने पारिवारिक स्रोतों से अपना काम चलाया, केवल कुछ निहायत जरूरतमंदों ने ही मामूली निर्वाह भत्ता लिया। ऐसे मामलों में भी, कभी-कभी पूरे गांव ने उन लोगों के परिवारों की देखभाल की जिम्मेदारी उठाई जो उनके भरण-पोषण के लिए काम नहीं कर सकते थे।
सत्याग्रह अभियानों के दौरान, जब जत्थे या कार्यकर्ताओं के समूह गांवों में घूम रहे होते थे, तो उनके भोजन और रहने की व्यवस्था गांव वाले करते थे। विशाल रैलियों में लंगर या भंडारे किसान परिवारों द्वारा दिए गए अनाज के दान से चलाए जाते थे जिसमें हजारों लोगों की भोजन व्यवस्था की जाती थी।
दौरे पर आने वाले आम नेता और कैडर स्थानीय कार्यकर्ताओं के घरों पर खाना खाते और सोते थे। बड़े नेताओं के लिए कुछ राष्ट्रवादी सहानुभूति रखने वाले स्थानीय संपन्न परिवार की ओर से रहने-खाने-पीने की व्यवस्था की जाती थी और इसके अलावा एक कार भी उपलब्ध करा दी जाती थी। यहां तक कि बड़े नेता जिस घोड़े पर बैठकर रेलवे स्टेशन या किसी बिंदु से सम्मेलन स्थल तक जुलूस का नेतृत्व करते थे, उसका इंतजाम भी ऐसे ही होता। जिसके पास अच्छा घोड़ा हुआ, दे देता था।
कार्यकर्ता कार्यालय चलाने जैसे अपने अन्य खर्चों के पैसे सम्मेलनों के लिए एकत्र किए गए अनाज और धन से कर लेते। वैसे, तब कार्यालय पर बहुत कम खर्च आता था। शहर में 1-2 कमरे का घर। यह कार्यालय आम तौर पर आने वाले कार्यकर्ताओं के लिए होटल का भी काम करता था।
चुनावों को भी ऐसे ही वित्तपोषित किया जाता था जिसमें 2 या 4 आने की छोटी राशि में पैसे इकट्ठा किए जाते। वास्तव में, चुनाव खर्च इतना कम होता था- दो या तीन हजार रुपये- कि उसके लिए इकट्ठा पैसे ही बच जाते और उनका इस्तेमाल अन्य मदों में किया जाता। अखिल भारतीय स्तर से कांग्रेस पार्टी का धन प्रांतीय स्तर पर देने का प्रमाण नहीं है बल्कि इसका उलटा होता था। सदस्यता शुल्क का एक हिस्सा प्रदेश कांग्रेस समिति द्वारा अखिल भारतीय कांग्रेस समिति को भेजा जाता था।
जब जवाहर लाल नेहरू-वल्लभ भाई पटेल जैसा कोई बड़ा नेता जनसभा के लिए आने वाला होता, तो कार्यकर्ता एक पखवाड़े पहले गांवों में जाकर किसानों को इसमें शामिल होने के लिए आमंत्रित करते और इसके साथ ही सभास्थल पर होने वाले लंगर के लिए अनाज के रूप में योगदान भी मांगते थे।
पंजाब के एक कार्यकर्ता ने बताया कि ऐसे ही एक मौके पर उन्होंने 1800 मन (एक मन लगभग 40 किलो के बराबर) अनाज इकट्ठा किया। कस्बों में दुकानदारों से छोटी मात्रा में नकदी का योगदान करने के लिए कहा गया था। इससे उन्होंने साझी रसोई या लंगर चलाया और इससे बचे पैसे से कुछ समय तक कांग्रेस कार्यालय चलाने का भी इंतजाम हो गया।
इस तरह, साम्राज्यवाद-विरोधी राजनीतिक गतिविधि को मूलतः लोगों द्वारा ही वित्तपोषित किया जाता था। राजनीतिक गतिविधि का वित्तपोषण- चाहे सम्मेलनों के लिए वस्तु और नकदी के रूप में छोटे दान के माध्यम से, या स्वयंसेवकों और कार्यकर्ताओं को भोजन और आवास के माध्यम से, या चुनाव के समय चार आने के सदस्यता शुल्क और इसी तरह के दान के माध्यम से हो- यह भी लोगों की भागीदारी का एक रूप था। यह अपने आप में एक राजनीतिक गतिविधि थी।
साफ है, आंदोलन की लोकप्रियता और उसके निर्वाह के लिए बाहर से पैसे के इंतजाम दो परस्पर विपरीत बातें थीं। एक लोकप्रिय आंदोलन स्वयं अपने संसाधन उत्पन्न करता और उसे शायद ही कभी पैसे की कमी का सामना करना पड़ता। इसके विपरीत, पैसे की कमी आमतौर पर आंदोलन की कमजोरी या उसकी थकावट का संकेत होती थी।
लोगों ने स्वेच्छा से दान दिया क्योंकि वे योगदान करना चाहते थे क्योंकि इससे उन्हें लगता कि इस आंदोलन में उनकी भी कोई भूमिका है और इससे उनमें आत्मसम्मान का भाव पैदा होता। गांधी जी ने इसे समझा और उन्होंने संघर्षों में गरीबों की सक्रिय भागीदारी के लिए ‘दरिद्रनारायण’ जैसी अवधारणा दी।
इसे ब्रिटिश सरकार ने भी माना। मार्च, 1939 में भारत सरकार के इंटेलिजेंस ब्यूरो के निदेशक द्वारा कांग्रेस के वित्त पर एक रिपोर्ट में निष्कर्ष निकाला गया कि ‘कांग्रेस के पास नियमित वित्त के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण विकल्प हैं। देशभक्ति की अपील बहुत सारा खर्च बचाती है। रेलवे या सार्वजनिक मोटर परिवहन से मुफ्त यात्रा, कांग्रेस स्वयंसेवकों द्वारा बैठकों, मेलों आदि में एकत्र किया गया स्वैच्छिक योगदान इसके उदाहरण हैं।’
वायसराय, लॉर्ड लिनलिथगो ने भी खास तौर पर पूछा था कि ‘क्या कांग्रेस गांधीवादी तरीके से पैसे इकट्ठा करना छोड़कर भी लंबे समय तक अपना अस्तित्व बनाए रख सकती है?’ उसी रिपोर्ट में उन्हें जो उत्तर मिला, वह ऐसे था: ‘कांग्रेस की सामान्य गतिविधियों और चुनावी उद्देश्यों के लिए पैसे गांधीवादी अंधविश्वास (गांधीवादी प्रभाव पढ़ें) से कहीं कम महत्वपूर्ण हैं। स्थानीय कांग्रेस संगठन जनता से इतना समर्थन प्राप्त कर सकते हैं, कि वे बिना पैसे ही चुनाव लड़ने की स्थिति में हैं।’ (गृह विभाग, राजनीतिक शाखा, एफ.4/14-ए/1940, भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार)
यदि कार्यकर्ता अपने लिए पैसे का इंतजाम खुद करे और सभाएं ज्यादातर खुले में की जातीं, तो इसमें ज्यादा पैसे की जरूरत ही कहां थी? और अगर लोग 4 एकड़ भूमि पर खड़ी फसलों का त्याग करने को तैयार थे जिससे कुछ महीनों तक तो उनके परिवारों का काम चल ही जाता- जैसा कि 1936 में हरकिशन सिंह सुरजीत ने किया था जब गांव की सरकारी जमीन पर जनसभा की इजाजत अधिकारियों ने नहीं दी तो सुरजीत ने चार एकड़ में खड़ी फसल का बलिदान दे दिया जिस पर जवाहरलाल नेहरू की सभा हुई- फिर जगह किराये पर लेने का सवाल कहां था?
इसका अनुभव हमें भी हुआ जब हम स्वतंत्रता आंदोलन के सामूहिक ज्ञान को इकट्ठा करने के लिए गांव-गांव घूम रहे थे। स्थानीय लोगों ने ही हमें अपने घरों पर ठहराया, खिलाया-पिलाया। कुछ लोग अपने आप दुभाषिए बन गए। जब हम स्वतंत्रता सेनानियों के घर गए तो उनके परिवारों ने खुशी-खुशी हमें भोजन, नाश्ता, चाय-कॉफी उपलब्ध कराई।
इस अनुभव के साथ हम यह सवाल करने पर कि ‘आपने खर्चे का इंतजाम कैसे किया?’ गवाहों के चेहरे पर उभरने वाले उलझन का मतलब समझ सके। अगर हम जो स्वतंत्रता संग्राम पर केवल शोध कर रहे थे, इतने कम संसाधन पर जीवित रह सकते थे क्योंकि हमारी अच्छी तरह देखभाल उन लोगों ने की जिन्हें हम जानते भी नहीं थे, तो हमें यह मान लेना चाहिए कि वैसे स्वतंत्रता सेनानी, जिन्हें लोग प्यार करते थे, वे तो अपना काम इससे भी कहीं कम में चला लेते होंगे। यदि हम आजादी की लड़ाई के खत्म होने के इतने लंबे समय बाद भी उसकी गर्माहट महसूस कर सकते हैं और उसकी चमक देख सकते हैं, तो यह कल्पना करना मुश्किल नहीं है कि जिन लोगों ने इसमें हिस्सा लिया, वे कैसे इसकी प्रचंड गर्मी से घिरे थे।
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मृदुला मुखर्जी ने चार दशक से अधिक समय तक जेएनयू में इतिहास पढ़ाया और बेस्ट-सेलर, इंडियाज स्ट्रगल फॉर इंडिपेंडेंस की सह-लेखिका हैं।
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