कोरोना वायरस से ज्यादा पूंजीवादी व्यवस्था से मर रहे हैं लोग, अनैतिक गठजोड़ के शोषण के लिए दर्ज होगा यह दौर

हमारे देश के साथ ही दुनिया के अधिकतर देश इस समय कट्टर पूंजीवाद के अधीन हैं। पूंजीवाद सबसे पहले सरकारों की प्राथमिकताएं अपने अनुरूप करता है, जिसका नतीजा भारत समेत पूरी दुनिया में दिख रहा है, जहां महामारी के दौर में भी कुछ उद्योगपतियों का भला किया जा रहा है और बाकी आबादी का शोषण।

फोटोः सोशल मीडिया
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महेन्द्र पांडे

सरकार द्वारा तमाम खबरें दबाए जाने और मेनस्ट्रीम मीडिया द्वारा दर्शकों को सरकारी प्रचार वाले भौंडे समाचारों में उलझाए रखने के बाद भी पूरी दुनिया हमारे देश के श्रमिकों की पीड़ा पिछले डेढ़ महीने से देख रही है। प्रधानमंत्री कभी विश्वगुरु होने की बात करते हैं, कभी आत्मनिर्भर पर प्रवचन सुनाते हैं तो कभी गर्व से जीडीपी के दस प्रतिशत की बात करते हैं, पर मजदूरों की बात कभी नहीं करते। अलबत्ता कभी औरैया जैसा बड़ा हादसा हो जाता है तो दुःख वाला ट्वीट कर भार टाल देते हैं। यह समय कोविड19 के कहर के लिए कम और आत्ममुग्ध और पूंजीवादी सरकार के लिए अधिक याद किया जाएगा, जो जनता को दिन-प्रतिदिन हरेक तरह से प्रताड़ित कर रही है।

यह पूंजीवाद का ही असर है जो डेढ़ महीने से चली आ रही श्रमिकों की परेशानी सरकार को दिखाई नहीं देती, और जब दिखाई देती है तब आर्थिक पॅकेज के नाम पर एक जुमला हवा में उछाल दिया जाता है। एक ऐसा जुमला, जिसपर वित्तमंत्रियों की जुगलबंदी अगले पांच दिनों तक प्रवचन सुनाती है। इससे श्रमिकों को तो कुछ नहीं मिला, अलबत्ता पूरी दुनिया को पता चल गया कि हमारी “सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास” वाली सरकार श्रमिकों के लिए कितनी निष्ठुर हो सकती है।

इस पूरे वाकये से यह भी फिर से स्पष्ट हो गया है कि सरकार के लिए श्रमिक और आम आदमी कुछ भी नहीं है। यह जुमला ऐसा था, जिसे सुनकर भी श्रमिकों के पांव आज तक थमे नहीं हैं, उन्हें भी पता है कि इस सरकार के जुमले कभी हकीकत नहीं होते। अब जो कुछ भी देश में हो रहा है, वह पूंजीवाद की चरम अवस्था है, जहां कोविड-19 जैसी महामारी के दौर में भी केवल कुछ उद्योगपतियों और पूंजीपतियों का भला किया जाता है और बाकी आबादी का शोषण।

हमारे देश के साथ ही दुनिया के अधिकतर देश इस समय कट्टर पूंजीवाद के अधीन हैं। पूंजीवाद सबसे पहले सरकारों की प्राथमिकताएं अपने अनुरूप करता है और इसका नतीजा भारत समेत पूरी दुनिया में दिख रहा है। न्यूजीलैंड और नॉर्वे, फ़िनलैंड जैसे कुछ यूरोपीय देश इसका अपवाद हैं, क्योंकि वहां समाजवाद और कुछ हद तक साम्यवाद हावी है। वर्तमान में अधिकतर समाजवादी देश कोविड-19 के असर से वास्तविक तौर पर उबर कर वापस अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का प्रयास कर रहे हैं, जबकि दूसरे देश संक्रमितों का और इससे होने वाली मौतों का आंकड़ा गिनने में व्यस्त हैं।

पूंजीवादी सरकारों वाले देश रोज संक्रमितों के बढ़ते आंकड़ों के बाद भी पूंजीपतियों के कहने पर खतरनाक तरीके से अर्थव्यवस्था वापस खोल रहे हैं। जितने भी पूंजीवादी व्यवस्था वाले देश हैं, सबमें स्वास्थ्य महामारी होने के बाद भी स्वास्थ्य विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों को हरेक नीतिगत फैसले से अलग रखा गया और हरेक फैसला अफसरशाही, राजनीतिज्ञ और पूंजीपति लेते रहे।

कोविड-19 के दौर में संक्रमण होता, मौतें भी होतीं पर पूंजीवादी व्यवस्था ने इन आंकड़ों को और विकराल बना दिया है। बेरोजगारी, भूख, स्वास्थ्य तंत्र की नाकामी, भीड़ वाले माहौल पनपने देना, सुरक्षाकर्मी, सफाईकर्मी और स्वास्थ्य कर्मियों को पीपीई किट नहीं मिलना जैसे कारण, जो पूरी तरह से व्यवस्था की देन हैं, ने इन आंकड़ों को और विकराल बना दिया है। इन सभी समस्याओं का कारण एक ही है, और वह है पूंजीवाद- जिसके लिए आर्थिक लाभ मानव जीवन से बहुत ऊपर है।

पीपीई किट के ही उदाहरण को लें। प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भरता वाले संबोधन में बहुत जोर देकर तथ्यहीन ही सही पर महामारी में भी अवसर का उदाहरण देते हुए बताया था कि पीपीई किट निर्यात किये जा रहे हैं, पर प्रधानमंत्री जी क्या यह बता पाएंगें कि देश के सभी स्वास्थ्यकर्मियों को और दूसरे आवश्यक सेवाएं देने वालों को क्या पीपीई किट उपलब्ध कराया गया है? प्राइवेट हॉस्पिटल सबको पीपीई किट इसलिए उपलब्ध नहीं कराते, क्योंकि इससे मालिक का नफा थोड़ा कम हो जाएगा।

वहीं, सरकार सभी जरूरतमंदों को इसलिए आवश्यक उपकरण उपलब्ध नहीं कराती क्योंकि इससे बजट पर बोझ बढेगा, फिर टैक्स बढ़ाकर भरपाई करनी होगी और इससे पूंजीपति नाराज हो जाएंगे। नतीजा सबके सामने है- भारी संख्या में डॉक्टर और नर्सें, सफाईकर्मी और सुरक्षाबल के जवान कोविड-19 की चपेट में आ गए और अनेकों की मौत भी हो गई। इसके बाद भी, पूंजीवादी व्यवस्था में हालात नहीं बदलते।

कोविड-19 का आरंभ भले ही चीन से हुआ हो, पर कोरोना वायरस तो पूंजीवादी व्यवस्था की ही देन है, जिसने सारे प्राकृतिक संसाधनों को अपनी जागीर समझ कर नष्ट कर डाला। इससे पूंजी तो लगातार बढ़ती रही, पर खतरनाक वायरस, बैक्टीरिया, जानवर और प्रदूषण इंसानों की बस्तियों तक पहुंच गए और लोग हरेक दिन असमय मरते जा रहे हैं। सभी आविष्कार भी पूंजीवादी व्यवस्था को बढ़ाने के लिए ही उपयोग में आते हैं।

इस समय कोविड- 19 का दौर है, पूरी दुनिया महज 150 दिनों से इसकी गिरफ्त में है। जाहिर है इस समय इसकी वैक्सीन या फिर दवा यदि सफल हो जाती है तो फिर दवा कंपनियां मालामाल हो जाएंगी। पूरी दुनिया की छोटी बड़ी कंपनियां और अनुसंधान संस्थान इसी काम में लगे हैं। दूसरी तरफ एड्स, टीबी, मलेरिया जैसे रोग भी हैं, जो कुछ दशकों से लेकर अनेक शताब्दियों से गरीबों को मार रहे हैं पर इनकी वैक्सीन आज तक नहीं बनी। कारण स्पष्ट है, गरीब देशों के रोग पूंजीपतियों की आमदनी अधिक नहीं बढ़ा सकते, इसलिए इन पर काम ही नहीं होता।

हाल में ही ग्रेट ब्रिटेन के प्रतिष्ठित समाचारपत्र, द गार्डियन ने अपने ओपिनियन कॉलम में एक पत्र प्रकाशित किया है, जिसपर भारत समेत लगभग 600 विश्वविद्यालयों, संस्थानों और मानवाधिकार से जुड़े संगठनों के 4000 विद्वानों, समाजशास्त्रियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने हस्ताक्षर किये हैं। हालांकि यह पत्र कोविड-19 के प्रकोप के बीच काम करते श्रमिकों को आधार बना कर लिखा गया है, पर इसे पूरे श्रमिक समाज से आसानी से जोड़ा जा सकता है।

इसके अनुसार श्रमिक कोई संसाधन और श्रम कोई उत्पाद नहीं है- इस तथ्य को सरकारों को समझने की जरूरत है। जन स्वास्थ्य और लोगों की जिंदगी को केवल बाजार पर नहीं छोड़ा जा सकता है। कोविड 19 के संदर्भ में श्रमिकों के बारे में कहा गया है कि इस दौर में बीमारों की देखभाल करने वाले, खाद्य सामग्री को पहुंचाने वाले, स्वास्थ्य सेवाओं और आवश्यक सेवाएं प्रदान करने वाले, कचरा प्रबंधन करने वाले, छोटी दूकानें चलाने वाले या फिर अन्य काम करने वाले ही हैं जो लॉकडाउन के दौर में भी हमारी जिंदगी आगे बढ़ा रहे हैं। इन श्रमिकों के श्रम को एक उत्पाद मानना सबसे बड़ी भूल है।

श्रमिकों और श्रम को केवल बाजार के हवाले नहीं किया जा सकता है। इससे हरेक स्तर पर असमानता बढ़ती है। अब समय आ गया है कि श्रमिकों को भी हरेक स्तर पर नीति निर्धारण में शामिल किया जाए और उन्हें अपने जीवन और भविष्य को निर्धारित करने का मौका दिया जाए। इससे पूरे श्रमिक समुदाय के लिए सम्मान का जीवन सुनिश्चित किया जा सकेगा।

श्रमिक भी एक इंसान होता है, पर पूंजीवाद ने अपनी सुविधा से इसे “मानव संसाधन” का दर्जा दिया है। पूंजीवाद जब संसाधन शब्द का उपयोग करता है तब, इसका परिणाम सभी देख रहे हैं। पूंजीवाद के लिए पूरा पर्यावरण एक संसाधन है और पर्यावरण के हरेक अवयव हरेक तरीके से बर्बाद करता जा रहा है। प्रजातंत्र में असमानता के लिए कोई स्थान नहीं है, पर दुखद तथ्य यह है कि हरेक तरीके की असमानता समाज में लगातार बढ़ रही है। मालिक और श्रमिक के बीच पूंजी का बंटवारा नहीं होता। मालिक पहले से अधिक धनवान होता जाता है और श्रमिक पहले से अधिक गरीब.।

इस पत्र में कहा गया है, कि जिस तरह से 1980 के दशक से लैंगिक समानता पर चर्चा करते-करते अब महिलाएं देशों को संभालने लगी हैं और बड़ी कंपनियों और बैंकों को संभाल रही हैं, वैसा ही अब हमें श्रमिकों के बारे में सोचना पड़ेगा। दुनिया भर में श्रमिक संगठन खड़े हो गए हैं, पर कहीं भी ये अपने हितों की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि पूंजीवाद और सरकार एक ही सिक्के के दो पहलू बन गए हैं। इससे श्रमिकों की समस्याएं और पर्यावरण का दोहन- दोनों ही बढ़ गया है। इस पत्र के अनुसार स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे जीवन से जुड़े मामलों को किसी भी हालात में बाजार के हवाले नहीं किया जान चाहिए और दूसरी तरफ हरेक श्रमिक के लिए रोजगार गारंटी की व्यवस्था की जानी चाहिए।

पर, दुखद यही यह है कि सरकारें एक ही भाषण में लोकल को बढ़ावा देतीं हैं और उसी में दूसरी तरफ एफडीआई बढ़ाने की बात करती हैं। एक तरफ जनता को राहत देने की बात करती हैं और दूसरी तरफ हरेक क्षेत्र को पूंजीपतियों की झोली में डाल देती हैं। एक तरफ सार्वभौम कुटुम्बकम की बात की जाती है तो दूसरी तरफ अपने देश के ही करोड़ों मजदूर सडकों पर नंगे पांव सैकड़ों किलोमीटर चलने को मजबूर किये जाते हैं।

एक तरफ सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास की बातें की जातीं हैं तो दूसरी तरफ देश की केवल एक प्रतिशत आबादी विकास करने लगती है। एक तरफ तो सैमसंग की मोबाइल फैक्ट्री का इतराते हुए उदघाटन किया जाता है तो दूसरी तरफ स्वदेशी का मंत्रोच्चार किया जाता है। दरअसल, हम पूंजीवाद में इतना रम गए हैं कि श्रमिकों की बस्ती के आगे दीवार खडी कर देते हैं।

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