कर्नाटक को लेकर बीजेपी के भीतर अजीब सा डर! लिंगायतों को प्रभावित करने में जुटे शाह

कुल 224 विधानसभा क्षेत्रों में से 100 में लिंगायत समुदाय के लोग प्रभावी हैं। इनमें से अधिकतर सीटें उत्तर कर्नाटक में हैं। कर्नाटक की आबादी में लिंगायतों का प्रतिशत 17 है।

फोटो: सोशल मीडिया
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नाहिद अताउल्लाह

केंन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह अप्रैल में तुमकुरु में सिद्धगंगा मठ में शिवकुमार स्वामी की 115वीं जयंती पर मौजूद रहे। अभी इसी महीने कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने चित्रदुर्गा मठ में लिंगायत धर्म की ‘ईष्ट लिंग दीक्षा’ ली। लिंगायत समुदाय के भारी-भरकम नाम माने जाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा को इसी महीने बीजेपी के केन्द्रीय संसदीय बोर्ड का सदस्य बनाया गया। इन तीनों ही घटनाओं का एक सामान्य संदेश है। भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस- दोनों ही 2023 में कर्नाटक में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के मद्देनजर लिंगायत समुदाय को लुभाना चाह रहे हैं। वीरशैव-लिंगायत समुदाय की सद इच्छाओं को हासिल करना बीजेपी-कांग्रेस के साथ-साथ जनता परिवार की चुनावी संभावनाओं के खयाल से जरूरी है। राज्य में इनकी जीत या उनका पिछड़ना समुदाय के रवैये पर निर्भर करता है।

करीब तीन दशक पहले पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने लिंगायत समुदाय के वीरेन्द्र पाटिल को कर्नाटक के मुख्यमंत्री-पद से अचानक ही हटा दिया था। इस वजह से यह समुदाय पार्टी से अलग हो गया। इसे इस तरह देखें 1989 में वीरेन्द्र पाटिल के नेतृत्व में पार्टी ने कुल 224 सीटों में से 179 सीटें जीती थीं जबकि अगले चुनावों में उसे 36 सीटें ही हासिल हो पाईं। बीजेपी के साथ भी ऐसा हो चुका है। 2008 में बीजेपी ने 110 सीटें जीतकर येदियुरप्पा के नेतृत्व में सरकार बनाई। यह दक्षिणी इलाके में बीजेपी की पहली सरकार थी। लेकिन अगले ही चुनाव- 2013 में उसकी सीटें घटकर 40 हो गईं। कारणः येदियुरप्पा बीजेपी से अलग हो गए थे और उन्होंने कर्नाटक जन पक्षपार्टी बना ली थी। भले ही उनकी पार्टी ने छह सीटें जीतीं लेकिन शेष इलाकों में उसने बीजेपी की संभावनाओं को खत्म कर दिया।


इतना महत्वपूर्ण क्यों: कुल 224 विधानसभा क्षेत्रों में से 100 में लिंगायत समुदाय के लोग प्रभावी हैं। इनमें से अधिकतर सीटें उत्तर कर्नाटक में हैं। कर्नाटक की आबादी में लिंगायतों का प्रतिशत 17 है। अन्य में वोक्कालिगा 15, मुसलमान 12.92, कुरुबा 9 और ब्राह्मण 3 प्रतिशत हैं। अभी विधानसभा में सभी पार्टियों को मिलाकर 54 लिंगायत विधायक हैं। इनमें बीजेपी के 37 विधायक हैं। 1952 से अब तक 23 लोग यहां मुख्यमंत्री रहे हैं। इनमें 10 लिंगायत समुदाय के रहे हैं जबकि 6 वोक्कालिगा, 5 पिछड़ी जातियों के और 2 ब्राह्मण रहे हैं। आने वाले चुनावों के मद्देनजर बीजेपी और कांग्रेस- दोनों ही इस समुदाय को अपने पक्ष में करने का पुरजोर प्रयास कर रहे हैं। येदियुरप्पा को पार्टी के केन्द्रीय संसदीय बोर्ड में शामिल कर उन्हें शांत किए रखना पार्टी के लिए जरूरी था क्योंकि एक तो 2021 में उन्हें मुख्यमंत्री-पद छोड़ना पड़ा था और फिर, उनके छोटे बेटे बीवाई विजयेन्दद्र को विधान परिषद का टिकट नहीं दिया गया। पार्टी ने उन्हें जिस तरह किनारे कर दिया, उससे येदियुरप्पा ने चुनावी राजनीति से संन्ययास की घोषणा करते हुए विजयेन्दद्र को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। उन्होंने कहा कि विजयेन्दद्र शिवमोगा जिले की शिकारीपुर सीट से चुनाव लड़ेंगे । यहां का प्रतिनिधित्व येदियुरप्पा करते रहे हैं।

जनता दल (सेकुलर) की मौजूदगी पुराने मैसुरू क्षेत्र तक सीमित रही है। यहां वोक्कालिगा समुदाय का प्रभाव है। कांग्रेस बीजेपी के लिंगायतों पर प्रभाव को सीमित करने का प्रयास कर रही है। कांग्रेस ने वरिष्ठ लिंगायत विधायक एम बीपाटिल को अपने अभियान समिति का प्रमुख बनाया है जबकि एक अन्य विधायक ईश्वर खान्द्रे प्रदेश इकाई के कार्यकारी अध्यक्ष हैं।

बीजेपी के प्रति झुकाव क्यों: 1989 तक लिंगायत कांग्रेस के पक्ष में थे। लेकिन 1990 में हृदयाघात से उबर रहे वीरेन्द्र पाटिल को जिस तरह मुख्यमंत्री-पद से हटाया गया, उससे इस समुदाय ने पार्टी से मुंह मोड़ लिया। पार्टी उससे अब तक नहीं उबर पाई है। मुख्यमंत्री के तौर पर रामकृष्ण हेगड़े ने बीजेपी को फलने- फूलने दिया और अविभाजित जनता परिवार के पास लिंगायतों और वोक्कालिगाओं की संयुक्त शक्ति थी। दो लिंगायत- एसआर बोम्मई और जे एचपटेल मुख्यमंत्री बने। 2000 के दशक में येदियुरप्पा लिंगायतों को एकजुट करने वाले व्यक्ति बने जबकि जनता परिवार में टुकड़े हो गए जिससे लिंगायत बीजेपी की तरफ झुक गए। वह घटना एक तरह से मोड़ थी जब पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी ने 2007 में येदियुरप्पा को सत्ता सौंपने से मना कर दिया। इससे लिंगायतोों और वोक्कालिगाओं के बीच विभाजन हो गया और सहानुभूति येदियुरप्पा को मिली जो 2008 में मुख्यमंत्री बन गए।

मठों का प्रभावः उत्तरीराज्यों की तरह कर्नाटक में भी जातियोों का प्रभाव है। यहां सभी धर्मों के मठ हैं। लेकिन लिंगायतों और वोक्कालिगाओं के प्रमुख वाले मठ राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। यहां मठों के प्रभाव वाली राजनीति 1960 के दशक से चलती रही है। उस वक्त एस निज लिंगप्पा मुख्यमंत्री थे। वह लिंगायत समुदाय के बानाजिगा उपपंथ के थे। उन्हें चित्रदुर्गा में होसादुर्गा क्षेत्र से हार का सामना करना पड़ा था। उसकी वजह एक अन्य लिंगायत उपपंथ सादर का प्रतिनिधित्व करने वाले स्थानीय, प्रभावी सिरिगेरे मठ के साथ प्रतिद्वंद्विता थी जिसने कुरुबा की जीत को सुनिश्चित किया। निजलिंगप्पा को चित्रदुर्गा जिले से बाहर चुनाव क्षेत्र की खोज करनी पड़ी और दो माह बाद वह बगल कोटसे निर्विरोध चुने गए। 1980 के दशक में पूर्व मुख्ययमंत्री रामकृष्ण हेगड़े ने प्रोफेशनल कॉलेजों की शुरुआत के लिए मठों को जमीन का आवंटन करना शुरू किया और राजनीतिज्ञ और साधु-संत मंचों पर एकसाथ आने लगे।

कई मर्तबा कुछ मठों ने सरकार पर दबाव भी बनाए। जैसे, जनवरी, 2020 में (लिंगायत समुदाय की उपजाति) पंचमसाली के गुरुपीठ प्रमुख वाचानंदा और येदियुरप्पपा के बीच उनके उपपंथ को कैबिनेट में जगह देने के सवाल पर सार्वजनिक मंच पर ही विवाद हो गया। संत ने धमकी दी कि अगर येदियुरप्पा पंचम साली से तीन मंत्री नहीं बनाएंगे, तो वे लोग उनका समर्थन नहीं करेंगे।

अभी के मुख्यमंत्री बासवराज बोम्मई पंचामसाली के दबाव में हैं। वे रोजगार और शिक्षा में बेहतर आरक्षण की मांग कर रहे हैं। पंचम साली की तरफ से अभियान चला रहे संत बासव जया मृत्युंजय ने इन पंक्तियों की लेखिका से कहा किवे 3 (बी) से शिक्षाऔर रोजगार में कर्नाटक की आरक्षण नीति से 2 (ए) श्रेणी में आरक्षण चाहते हैं जहां कोटा क्रमशःपांचप्रतिशत से 15 प्रतिशत है। उन्होंने कहा कि‘समुदाय येदियुरपपा को मुख्यमंत्री बनाने के लिए साथ रहा लेकिन जब वह हमें आरक्षण कोटा दिलाने में विफल रहे, तो उनका विरोध करना पड़ा। हम बोम्मई के सामने आंदोलन करते रहेंगे।’

अल्पसंख्यक धर्मविवादः लिंगायत मंत्रियों के एक वर् गऔर मठों के दबाव में सिद्दारमैया सरकार लिंगायतों को अल्पसंख्यक धर्म का टैग देने पर सहमत हो गई। इसे 2018 में केन्द्र ने ठुकरा दिया। लेकिन जगातिका लिंगायत महासभा के तहत लिंगायतों को अलग दर्जा दिलाने के लिए अभियान चला रहे पूर्व नौकरशाह एसएम जामदार ने कहा कि केन्द्र ने इसे इसलिए रोक दिया क्योंकि यह विचार है कि लिंगायतों के बीच अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों के लोग आरक्षण का दरजा खो देंगे। उन्होंने कहा कि‘यह गलत हैक्यों कि जाटों और सिखों के बीच अनुसूचित जातियोों और अनुसूचित जनजातियों के लोग आरक्षण लाभों के हकदार हैं। हमारी मांग लिंगायतों को वीरशैव से अलग धर्म के तौर पर मानने की है क्यों कि वीरशैव हिन्दू धर्म का एक पंथ है।

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