हर चुनाव में नेहरू-पटेल का मुद्दा उछालने वाले जानते ही कितना है पटेल के बारे में!

संविधान सभा में पटेल का हिंदुओं के लिए संदेश था, “यह हम बहुसंख्यकों की जिम्मेदारी है कि हम अल्पसंख्यकों के बारे में इस तरह सोचें कि अगर हम उनकी जगह होते और हमारे साथ भी वैसा ही व्यवहार होता।”

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आकार पटेल

इन दिनों हम चुनाव के एक और दौर से दो-चार हैं (ये सब कभी खत्म भी होता है?) और नेहरू बनाम पटेल का मुद्दा फिर से जिंदा कर दिया गया है। कुछ सप्ताह पहले की बात है जब केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह का यह बयान सुर्खियां बना था कि, “अगर सरदार पटेल पहले प्रधानमंत्री बनते तो कई समस्याएं खड़ी ही नहीं होतीं...”

दरअसल सत्तारूढ़ दल की कोशिश है कि नई पीढ़ी को यह सोचने पर मजबूर कर दिया जाए कि सरदार पटेल और बोस कांग्रेस से थे ही नहीं।

लेकिन आइए वापस चलते हैं उसी सवाल पर कि अगर जवाहर लाल नेहरू की जगह सरदार पटेल प्रधानमंत्री बनते तो क्या होता?

 ऐसा लगता है कि यह तथ्य विरोधी आख्यान कभी खत्म ही नहीं होगा, खासतौर से गुजरात में, जहां यह समझाया जाता रहा है कि पटेल के साथ नाइंसाफी हुई और वे नेहरू के मुकाबले कहीं अधिक सक्षम, कहीं अधिक राष्ट्रीय और कहीं अधिक पूंजीवादी थे।

नेहरू के बजाय पटेल के मुद्दे पर तीन कयास हैं। पहला तो यह कि सरदार वल्लभ भाई पटेल ने नेहरू के पीएम बनने से असहमति जताई थी। दूसरा यह कि नेहरू को प्रधानमंत्री बनाकर महात्मा गांधी ने गुजरातियों के साथ गलत किया। तीसरा यह कि पटेल निस्संदेह स्वतंत्र भारत के शुरुआती दौर का नेतृत्व किया होता तो हालात अलग होते। लेकिन आज क्या स्थिति होती, यह स्पष्ट नहीं है।

ऐसा  विश्वास दिलाने की कोशिश है कि पटेल ने पाकिस्तान का मुद्दा वहीं का वहीं खत्म कर दिया होता और आज हम कश्मीर समस्या से दोचार नहीं होते। एक और मिथ्या प्रचार और कयास है कि कश्मीर समस्या का केंद्र इस्लामाबाद है, न कि श्रीनगर। लेकिन हकीकत यह है कि हम पाकिस्तान के साथ किसी भी किस्म का समझौता कर लें या सहमति कर लें, 1972 में शिमला में किया भी गया था, लेकिन श्रीनगर में समस्या जस की तस बनी हुई है।

बुनियादी स्तर पर, बेशक पटेल का सवाल पूरी तरह से व्यर्थ है। नेहरू बनाम पटेल बहस में विचार करने के लिए महत्वपूर्ण तथ्य और "क्या हुआ होगा अगर सरदार पटेल प्रधान मंत्री होते" का जवाब यह है कि भारत के पहले आम चुनाव से पहले ही दिसंबर 1950 में पटेल का निधन हो गया था। अगर वह पीएम बन भी गए होते तो वे लंबे समय तक किसी भी सार्थक तरीके से राष्ट्र को प्रभावित करने के लिए मौजूद नहीं होते।


मृत्यु के समय पटेल की उम्र 75 साल थी और नेहरू उनसे 15 साल छोटे थे। पटेल नेहरू से पहले की पीढ़ी के थे और जिन्ना और महात्मा गांधी के साथ ही आजादी के बाद जल्द ही दुनिया से चले गए थे। महात्मा गांधी सबसे पहले जनवरी 1948 में गए, उनके बाद उसी साल सितंबर में जिन्ना का भी लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया था।

इतिहास में ऐसी मिसालें हैं जिनसे हेनरी किसिंजर की वह बात साबित होती है कि सत्ता सुख से एक अलग ही ताकत मिलती है। पी वी नरसिम्हा राव भी ऐसी ही मिसाल हैं। लेकिन पटेल की मौत असामयिक नहीं हुई थी। निधन से पहले वे काफी गंभीर रूप से बीमार हो गए थे। आजादी के 7 महीने और महात्मा गांधी की मृत्यु के दो महीने बाद मार्च 1948 में सरदार पटेल को दिल का दौरा पड़ा था और तब से ही उनकी सेहत लगातार खराब होती चली गई थी।

पटेल की सबसे बड़ी उपलब्धि उस समय के राजे-रजवाड़ों का भारत में विलय कराना रहा। इसीलिए नर्मदा के मुहाने पर जो विशाल प्रतिमा खड़ी है उसका नाम स्टेच्यू ऑफ यूनिटी रखा गया है। दरअसल आजादी से पहले के महीनों में और अगस्त 1947 में आजादी मिलने तक काफी कुछ हुआ था। सिर्फ चंद रियासतें ही थीं जो भारत में विलय से कतरा रही थीं। इनमें जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर शामिल थे, जो अंग्रेजों को जाने के बाद भारत में शामिल हुईं।

हकीकत यह है कि पटेल का ज्यादातर महान काम अगर पूरी तरह न भी मानें तो भी, आजादी से पहले का है। (हमें यहां यह भी जान लेना चाहिए कि हमने पटेल के उस वादे को कि भारत में विलय के बाद भी राजों-महाराजों को सरकारी तरफ से मोटी रकम मिलती रहेगी, हमने संविधान में 26वां संशोधन करके खत्म कर दिया था।) इसलिए इस तारीख के बाद उनके किसी काम को प्रभावशाली स्थिति में रखना उचित नहीं होगा।

तो फिर इस निरंतर आग्रह का क्या कारण है कि अगर पटेल प्रधानमंत्री बनते तो गांधी और नेहरू के किस काम को वे अलग तरीके से करते? मुझे लगता है कि "क्या होता अगर पटेल पीएम होते " की भावना उसी की प्रतिध्वनि है जिसे हम आजकल अपने आसपास देख रहे हैं। और वह है चरम हिंदुत्व, चरम मुस्लिम विरोधी राष्ट्रवाद। कुछ लोग पटेल के बहाने अपने विचार सामने रख रहे हैं कि हम किस तरह के राष्ट्र हैं और हमें क्या होना चाहिए।


वास्तविकता तो यह है कि ये सभी लोग पटेल को एकदम गलत तरीके से समझ रहे हैं। रफीक जकारिया ने अपनी किताब ‘सरदार पटेल और भारतीय मुसलमान‘ में पटेल की धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या की है। संविधान सभा में पटेल का हिंदुओं के लिए संदेश था, “यह हम बहुसंख्यकों की जिम्मेदारी है कि हम अल्पसंख्यकों के बारे में इस तरह सोचें कि अगर हम उनकी जगह होते और हमारे साथ भी वैसा ही व्यवहार होता।”

जकारिया के मुताबिक अल्पसंख्यकों को अपने धर्म के प्रचार का अधिकार देने में पटेल की अहम भूमिका थी। अल्पंसख्यकों को अपने संस्थान चलाने का अधिकार देने में भी पटेल ने अहम किरदार निभाया। यह वह काम नहीं है जो हम पटेल के बारे में बात करते हुए सोचते हैं।

बेशक, यह सच है कि बंटवारे के बाद पटेल मुस्लिम इरादों को शक की निगाह से देखते थे। लेकिन वह खुद को अपनी भावनाओं से ऊपर रखने में सक्षम थे। दरअसल पटेल ने ही बी आर आम्बेडकर की इच्छा के विरुद्ध, संविधान सभा में मुस्लिम नेताओं को भारत में अलग निर्वाचक मंडल की अपनी मांग वापस लेने का मौका दिया। यह वह बात थी जिसे सिखों ने गलत समझ लिया था और पटेल यह जानते थे कि मुसलमान भी अलग निर्वाचक मंडल चाहते थे। पटेल की इस महान भावना के कारण ही मुसलमानों को निरंतर अलगाववाद के आरोप से मुक्त कर दिया।

महात्मा गांधी ने कहा था., “मैं सरदार को जानता हूं... हिंदू-मुस्लिम मामले पर और कई अन्य मुद्दों पर उनका तरीका और दृष्टिकोण मुझसे और पंडित नेहरू से अलग है। लेकिन इसे मुस्लिम विरोधी बताना सच्चाई का उपहास उड़ाना है। सरदार के दिल में सभी को समायोजित करने की पर्याप्त जगह है।”

यह सच है और मिथ्या प्रचार के दौर में इसे मजबूती से दोहराया जाना चाहिए।

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