विविधता को खतरा राष्ट्र पर खतरा, हिन्दी-हिन्दू एक संस्कृति जैसे भुलावे से सावधान होने की जरूरत

2011 की जनगणना राजनीतिक कारणों से जिस तरह स्थगित रखी गई है, उससे 2024 तक इसके होने के आसार नहीं हैं। 2031 तक भी ऐसे ही खींच लिया जाए तो हैरानी नहीं। लेकिन तब तक छोटी भाषाओं का एक बहुत बड़ा हिस्सा और उनकी विविधता का सफाया ही हो चुका होगा।

इस बात के लिए नेहरू को याद रखा जाएगा कि उन्होंने इसका विशेष ध्यान रखा कि औपनिवेशिक युग की तुलना में जनगणना की कवायद कहीं ज्यादा व्यापक और उपयोगी हो।
इस बात के लिए नेहरू को याद रखा जाएगा कि उन्होंने इसका विशेष ध्यान रखा कि औपनिवेशिक युग की तुलना में जनगणना की कवायद कहीं ज्यादा व्यापक और उपयोगी हो।
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गणेश एन देवी

आजादी की पूर्व संध्या पर, अपनी विराट सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और आर्थिक स्थिति के बावजूद समस्त भारतवासियों के लिए सम्माजनक स्थान बनाना भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के लिए एक बड़ी लेकिन विनम्र राजनीतिक चुनौती थी। उनके पास ठंडे बस्ते में डालने के लिए कुछ नहीं था- उन्हें देश को और ज्यादा विखंडन से बचाने और ‘राज्यों के एक संघ’ के रूप में इसकी अखंडता की रक्षा करनी ही थी, जिसका आजादी बाद की पीढ़ी के लिए एक स्वाभाविक उपक्रम मान बैठना सहज था। सौभाग्यवश उनके पास, भारत के पास- कांग्रेस के अंदर और उसके बाहर भी ऐसे बौद्धिक दिग्गज उपलब्ध थे, जो इन मसलों को अपने ज्ञान और अंतर्दृष्टि के साथ तोल सकते थे और देश के युवा लोकतंत्र के वाजिब सवालों से टकराने में सक्षम थे। इन्हीं पेचीदा चुनौतियों में एक सवाल भाषा का भी था।

कुछ यूरोपीय देशों के विपरीत भारत कभी ‘एकभाषी’ नहीं था। यह धरती हमेशा, हर ऐतिहासिक दौर में बहुभाषी रही है। भारत को एक भाषी राष्ट्रवाद पर मजबूर करने से निश्चित रूप से इसका विखंडन होता, और राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया के नाम पर यह किसी भी तरह की भाषाई अराजकता को तो अनुमति दे नहीं सकता था। अपने स्वयं और हम सभी को एक साथ बांधे रखने के राजनीतिक उद्देश्य के लिए अपने भाषाई वैविध्य और समृद्धि को पोषित करना न सिर्फ नाजुक बल्कि मुश्किल कवायद भी थी। देश की एकता की रक्षा करते हुए भारत की बहुभाषिक स्वायत्तता बनाए रखने के लिए यह संतुलन संविधान की अनुसूचियों और विभिन भाषा-भाषिक राज्यों से हासिल किया गया था।

26 नवंबर, 1949 को जब संविधान सभा ने भारत का संविधान अंगीकार किया, उस वक्त संविधान की आठवीं अनुसूची में 14 भाषाएं सूचीबद्ध थीं। बोलने वालों की आबादी के क्रम में उनका क्रम कुछ ऐसा था: हिन्दी, तेलुगु, बंगाली, मराठी, तमिल, उर्दू, गुजराती, कन्नड़, मलयालम, उड़िया, पंजाबी, कश्मीरी, असमिया और संस्कृत। पिछले 55 वर्षों में आठवीं अनुसूची में तीन संशोधन हुए हैं और मौजूदा समय में इसमें 22 भाषाएं दर्ज हैं। 

हैदराबाद और पंजाब के भाषाई आंदोलनों के बाद इनके जवाब में आंशिक रूप से राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन हुआ। लेकिन यह एक नए उभरते राष्ट्र के संघीय ढांचे को परिभाषित करने की आवश्यकता का प्रतिफल भी था। कहना न होगा कि आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, पंजाब, महाराष्ट्र और कर्नाटक के  भाषाई आंदोलनों का न सिर्फ एक मजबूत भावनात्मक आधार था बल्कि इन्हें व्यापक जनसमर्थन भी हासिल था।


इतिहास के उस कालखंड में हमारे पास जनजातीय भाषाओं में ऐसे आंदोलन खड़े करने की क्षमता नहीं थी। वह क्षमता दशकों बाद आई और सन 2000 में झारखंड-छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों का अस्तित्व में आना उसी का प्रतिफल है। भाषाई सरकारों का गठन दरअसल भारत की बहुभाषिक गरिमा का स्वीकार तो था ही, उन सभी को ‘राज्यों के संघ’ के तौर पर भारत के विचार प्रति प्रतिबद्ध भी बनाए रखना था। इसने संघीय राष्ट्र के रूप में भारत के हमारे विचार का आधार तैयार किया।

आधुनिकता और राष्ट्रवाद पर नेहरू की समझ की छाप इन दोनों कार्रवाइयों में साफ देखी जा सकती है। प्रधानमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल में उन्होंने इस बात का खास ध्यान रखा कि औपनिवेशिक युग की तुलना में जनगणना की कवायद कहीं ज्यादा व्यापक और उपयोगी हो सके। अक्सर भुला दिया जाता है कि यह एकमात्र भारत ही था जिसकी जनगणना में हर मातृभाषा को शामिल किया गया था और यह काम 1961 में नेहरू के समय में ही हुआ था। इससे पहले या बाद में भी कभी किसी भी जनगणना में भारत का भाषाई परिदृश्य इतनी व्यापकता और ऐसी पारदर्शिता के साथ प्रस्तुत नहीं हुआ। 1961 की जनगणना में ‘मातृभाषाओं’ की सूची में 1,652 प्रविष्टियां दर्ज थीं।

आजादी के बाद से भारतीयों ने हमारी भाषाई विविधता को एक सामाजिक मानदंड और इस राष्ट्र की एक अविछिन्न विशेषता के तौर पर स्वीकार किया है। नागरिकों के रूप में, हम अन्य भाषाओं के प्रति अपनी सहिष्णुता, अपना सम्मान जताने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ते हैं। 19वीं सदी में जब यूरोप में राष्ट्रवाद का उदय हो रहा था, तो इसे एक ‘राष्ट्रीय भाषा’ के अनुरूप नागरिकता की विशेषता के तौर पर देखा गया। हालांकि यूरोपीय राष्ट्रवाद के विचारों से प्रेरित, भारत की आजादी का संघर्ष किसी भी तरह के भाषाई रूढ़िवाद में कभी नहीं उलझा।

1971 की जनगणना में तत्कालीन सरकार ने सिर्फ वही भाषाएं सूचीबद्ध करने का फैसला लिया जिन्हें 10,000 से अधिक लोग बोलते थे: उस सूची में 108 प्रविष्टियां थीं और 109वीं पर ‘शेष सभी’ था। कट-ऑफ आंकड़े की इस परिपाटी ने पहले से ही हाशिये पर पड़ी छोटी भाषाओं को और अलग-थलग कर दिया। धीरे-धीरे वे राजनीतिक विमर्श से भी लुप्त होने लगे और स्वाभाविक रूप से इसका असर सामाजिक जीवन में इसके क्षरण के रूप में सामने आया और यह वहां से भी लुप्त होने लगे।


इसका दूरगामी असर होना ही था और उन इलाकों में जहां हाशिये की ये भाषाएं बोली जाती हैं, वहां से वैसे इलाकों के लिए पलायन शुरू हो गया जहां मुख्यधारा की भाषाएं बोली जाती थीं। यह भारत की भाषाई विविधता में व्यापकता की भावना को ठेस पहुंचाने वाला था। पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि बीते पचास सालों के दौरान अनुमानत: 250 भाषाएं हमारे नक्शे से गायब ही हो गई हैं। दूसरे शब्दों में, ऐसा लगता है कि स्वतंत्रता के बाद से भारत ने अपने ‘विश्व विचारों’ का लगभग एक चौथाई हिस्सा कहीं खो दिया है।

2018 में जारी हुए पिछली जनगणना (2011) के आंकड़े के अनुसार,  भारत के नागरिकों ने अपनी ‘मातृभाषाओं’ के तौर पर 19,569 नाम दिए जिन्हें तकनीकी तौर पर ‘रॉ रिटर्न’ का नाम दिया गया है। पहले से उपलब्ध भाषाई और समाजशास्त्रीय जानकारी के आधार पर अधिकारियों ने फैसला किया कि इनमें से 18,200 किसी भी ज्ञात स्रोत या जानकारी से ‘तार्किक रूप’ से मेल नहीं खाते। भाषाओं के नाम के तौर पर कुल 1,369 नाम या ‘लेबल’ तकनीकी रूप से ज्ञात के आधार पर चुने गए थे। छोड़ दिए गए ‘रॉ रिटर्न’ में लगभग 6 लाख की भाषाई नागरिकता को समाप्त कर दिया गया। इन्हें विचार के लायक भी नहीं समझा गया।

इस आकलन में चुने गए 1,369 ‘मातृभाषा’ नामों के अलावा भी 1,474 अन्य नाम मातृभाषा के तौर पर शामिल थे। उन्हें सामान्य लेबल ‘अन्य’ के तहत रखा गया था क्योंकि वर्गीकरण प्रणाली उनके द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं की पहचान नहीं कर सकती थी। भाग्यशाली 1,369 को कुल 121 ‘समूह लेबल’ के तहत एक साथ रखा गया और इन्हें देश के सामने ‘भाषा’ के रूप में प्रस्तुत किया गया। इनमें से 22 भाषाओं को संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल किया गया है जिन्हें तथाकथित ‘अनुसूचित भाषाएं’ कहा जाता है। शेष 99 को ‘गैर अनुसूचित’ भाषाओं के रूप में व्याख्यायित किया गया था। 

इनमें से अधिकांश समूहों को मजबूर किया गया था। उदाहरण के लिए, ‘हिन्दी’ के अंतर्गत लगभग 50 अन्य भाषाएं भी थीं। 50 लाख से ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाने वाली और अपना खुद का सिनेमा, रंगमंच, साहित्य और शब्दावली वाली भोजपुरी को ‘हिन्दी’ के रूप में दर्शाया गया। राजस्थान की लगभग 30 लाख आबादी की अपनी भाषाएं थीं लेकिन उनकी मातृभाषा के नाम पर भी हिन्दी ही दर्शाई गई। महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में आदिवासियों की पावरी उसी तरह हिन्दी से जुड़ी थी, जैसे उत्तराखंड की कुमाउनी।


जमीनी सच्चाई के विपरीत रिपोर्ट में दर्शाया गया कि 528,347,193 (528 लाख से ज्यादा) लोग अपनी मातृभाषा के तौर पर हिन्दी बोलते हैं। 2011 की जनगणना राजनीतिक कारणों से जिस तरह स्थगित रखी गई है, उससे कम-से-कम 2024 तक तो इसके होने के आसार नहीं ही हैं। 2031 तक भी इसे इसी तरह खींच लिया जाए तो हैरानी नहीं होगी। मान लेना चाहिए कि तब तक तो छोटी भाषाओं का एक बहुत बड़ा हिस्सा और जिस विविधता का वह प्रतिनिधित्व करते हैं, उसका सफाया ही हो चुका होगा! 

लगभग तय हो चुका है कि सबसे अधिक प्रभावित होने वाले समुदाय आदिवासी और खनाबदोश होंगे जिनकी संख्या अपेक्षाकृत काफी कम है। हालांकि ऐसे समुदायों की कुल संख्या जिनकी भाषाएं अगली जनगणना में दर्ज भी नहीं होंगी, चिंता पैदा करने के लिए काफी बड़ी हैं। जाहिर है, इन समुदायों के लोगों को अन्य भाषाओं, मुख्य रूप से हिन्दी के तकनीकी आंकड़ों में शामिल कर लिया जाएगा, क्योंकि आदिवासी समुदायों का बड़ा वर्ग हिन्दी भाषी क्षेत्रों के हाशिये पर ही तो रहता है। संविधान भले ही अभिव्यक्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकर करता हो, कोई फर्क नहीं पड़ता कि भाषा जो हम इंसानों के लिए अभिव्यक्ति का प्राथमिक साधन है, ‘हिन्दी-हिन्दू राष्ट्रवाद की सेवा में’ भारत में आदिवासियों और घुमंतू खानाबदोश समुदाय की सैकड़ों भाषाओं को आधिकारिक रिकार्ड से ही समाप्त कर दिए जाने की आशंका सामने है। मुगालते में न रहें, एक ‘बहुभाषी राष्ट्र वाला भारत’ का वह महान सोच (नजरिया) अब खतरे में आ चुका है।

(जीएन देवी भाषाविद और सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं)

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