छत्तीसगढ़ में तीन बार के मुख्यमंत्री रमन सिंह बीजेपी में हुए अलग-थलग, पार्टी में लड़ रहे अस्तित्व की लड़ाई

लोकसभा चुनाव में रमन सिंह के पुत्र अभिषेक सिंह का टिकट भी बीजेपी ने काट दिया था। रमन सिंह को न केवल लोकसभा चुनाव में कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी गई, बल्कि झारखंड, ओडिशा, महाराष्ट्र और फिर बिहार चुनाव में भी उनको स्टार प्रचारकों की सूची में जगह नहीं दी गई।

फोटोः gettyimages
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आवेश तिवारी

छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह उन चंद नेतओं में से हैं जिनकी गिनती कभी बीजेपी के अग्रिम पंक्ति के नेताओं में होती थी। जिनकी नजीर दी जाती थी, जिनके कहे सुने की पार्टी के भीतर एक साख होती थी। लेकिन अब हालात तेजी से बदल रहे हैं। 15 वर्षों तक मुख्यमंत्री रहे डॉ रमन सिंह कहने को तो आज भी बीजेपी के उपाध्यक्ष हैं, लेकिन केन्द्रीय नेतृत्व ने उन्हें पहले विधानसभा फिर निकाय चुनावों में मिली करारी शिकस्त के बाद हाल-फिलहाल किसी भी किस्म की जिम्मेदारी देने से वंचित कर रखा है। इधर छत्तीसगढ़ में भी डॉ रमन सिंह और उनके समर्थक सड़कों पर कम सोशल मीडिया पर ज्यादा नजर आते हैं।

यह विडंबना ही है कि कभी किसानों को बढ़ाकर एमएसपी देने के समर्थक रमन सिंह कृषि कानूनों पर पीएम मोदी की आवाज में आवाज मिला रहे हैं, फिर भी नतीजा सिफर है। नहीं भूला जाना चाहिए कि पिछले लोकसभा चुनाव में डॉ. रमन सिंह के पुत्र अभिषेक सिंह का टिकट भी बीजेपी ने काट दिया था। सिर्फ इतना ही नहीं रमन सिंह को न केवल लोकसभा चुनाव में कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी नहीं दी गई, बल्कि झारखंड, ओडिशा , महाराष्ट्र और फिर बिहार विधानसभा चुनाव में भी उनको स्टार प्रचारकों की सूची में जगह नहीं दी गई। अब पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव से भी उन्हें अलग रखा गया है।

यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि डॉ रमन सिंह को बीजेपी में शुरू से ही आडवाणी के खेमे के नेता के तौर पर प्रचारित किया गया और वो खुद भी इस बात पर गौरवान्वित महसूस करते रहे। शायद यही वजह थी कि 2014 में जब केंद्र में बीजेपी की सरकार बनी और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री, तभी से केन्द्रीय नेतृत्व से उनका कोई सुखद समीकरण स्थापित नहीं हो पाया। स्थिति इस हद तक खराब हो चुकी थी कि घोषणा पत्र में किसानों को 21 सौ रुपये समर्थन मूल्य और 300 रुपये बोनस की घोषणा करने के बावजूद पिछली रमन सिंह सरकार अपना वायदा पूरा नहीं कर पाई, क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी किसानों को बढ़ा हुआ समर्थन मूल्य और बोनस देने के पक्ष में नहीं थे। नहीं भूला जाना चाहिए कि 2018 में प्रदेश में बीजेपी के पराजय के पीछे यह वादाखिलाफी बड़ी वजह बनी।

साल 2018 के विधानसभा चुनाव के दौरान बीजेपी के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और संगठन मंत्री सौदान सिंह ने चुनावी सभाओं में जिस तरह से डॉ रमन सिंह की परंपरागत प्रतिद्वंद्वी माने जाने वाली राज्यसभा सांसद और राष्ट्रीय महामंत्री सरोज पांडे को तरजीह देना शुरू किया था, उससे राजनैतिक हलकों में यह सवाल तेजी से उठने लगा था कि हो न हो छत्तीसगढ़ की राजनीति में बीजेपी अब डॉ रमन सिंह का स्थानापन्न ढूंढने में लगी है। रमन सिंह मंत्रिमंडल के पूर्व सदस्य रामविचार नेताम को केन्द्रीय संगठन में पहले से ही ठीक-ठाक जगह दे दी गई थी।

विधान सभा चुनाव के बाद निकाय चुनावों में करारी हार ने रमन सिंह की मुश्किलों को और बढ़ा दिया। उन्हें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष तो बनाया गया, लेकिन उनके स्वर सुनाई देने बंद हो गए। सबसे चौंका देने वाली बात यह रही कि रमन सिंह के नजदीकी माने जाने वाले और पूर्व छत्तीसगढ़ प्रभारी बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने चार माह पहले गठित की गई अपनी नई टीम में भी डॉ. रमन सिंह को पहले की तरह ही राष्ट्रीय उपाध्यक्ष की ही जिम्मेदारी सौंपी। जबकि रमन सिंह खेमे को इस बात की उम्मीद थी कि उनका कद निश्चित तौर पर बढ़ाया जाएगा।

रमन सिंह के कद को लेकर जब कोई सवाल पूछा जाता है, तो बीजेप कहती है कि सांसद रेणुका सिंह को मंत्री बनाकर डॉ. रमन सिंह का कद बढ़ाया गया है। लेकिन नाम न छापने की शर्त पर डॉ. रमन सिंह के विरोधी खेमे के एक नेता बताते हैं कि रेणुका सिंह को मंत्री बनाने के पीछे जातीय और लैंगिक समीकरण थे, इसमें रमन सिंह की कोई भूमिका नहीं थी। महत्वपूर्ण है कि डॉ रमन सिंह के साथ अपनी रार को लेकर चर्चित बृजमोहन अग्रवाल और अनुसूचित जनजाति आयोग के पूर्व अध्यक्ष और आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग करने वाले पूर्व सांसद नंदकुमार साय भी चुनावों के बाद सार्वजानिक तौर पर पार्टी में रमन सिंह के कद को लेकर अक्सर बोलते देखे सुने जाते हैं।

नंदकुमार ने महज कुछ दिनों पहले आदिवासी नेताओं की बैठक बुलाई और उसमें कह दिया कि छत्तीसगढ़ जनजातीय समुदाय बाहुल्य प्रदेश है। इसलिए यहां जनजातीय समुदाय को नेतृत्व मिलना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि प्रदेश में पिछले 15 सालों में जनजातीय समुदाय की उपेक्षा हुई है, इसीलिए प्रदेश में बीजेपी की इतनी दुर्गति हो गई। इस दुर्गति से उबरने के लिए पार्टी को विशेष चिंतन-मनन करने की जरूरत है।

यह सच्चाई है कि बीजेपी सरकार के घोटालों का जिन्न डॉ. रमन सिंह का पीछा नहीं छोड़ता। न केवल सत्ताधारी कांग्रेस बल्कि खुद पार्टी के भीतर भी जब नहीं तब उसको लेकर बातें कही जाती हैं। पनामा पेपर में अभिषेक सिंह का नाम आने पर मचा हंगामा अभी तक सुलग रहा है। इसके अलावा बहुचर्चित नान घोटाला, पाठ्य पुस्तक निगम घोटाला और चिटफंड घोटाले में भी डॉ रमन सिंह का विरोधी खेमा उनके परिजनों का नाम लेकर हंगामा खड़ा करता रहता है। मौजूदा कांग्रेस सरकार इन तमाम मामलों में डॉ रमन सिंह के नजदीकी अफसरों की भूमिका की जांच करा रही है। कई के ऊपर कार्रवाई भी की गई है। यहां तक कि अभिषेक सिंह के खिलाफ अदालती आदेश के तहत मुकदमे भी हुए हैं, जिसकी चर्चा मीडिया मे जब-तब होती रहती है, जिसको लेकर भी बीजेपी का राष्ट्रीय नेतृत्व दलीलें देने से बचता है।

पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान छत्तीसगढ़ में आलम यह था कि राज्य में जो होर्डिंग्स लगाए गए थे, उनमें रमन सिंह का कद पीएम मोदी और अमित शाह से बड़ा रखा गया था। लेकिन शर्मनाक पराजय के बाद रमन सिंह धीमे-धीमे हाशिये पर चले गए। लोकसभा चुनाव में टिकटों का समूचा बंटवारा बीजेपी केंद्रीय नेतृत्व ने जब अपने हाथों में ले लिया तो यह स्पष्ट हो गया कि अब राज्य के पहले निर्वाचित मुख्यमंत्री के लिए पार्टी में अपनी जगह का निर्माण करना बेहद मुश्किल होगा।

यह कहने में कोई दो राय नहीं है कि अब बीजेपी में डॉ. रमन सिंह का कोई गॉडफादर नहीं रह गया है। एक तरफ जहां राज्य के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का कद बढाने में कांग्रेस पार्टी पूरा जोर लगा रही है, उन्हें नई जिम्मेदारियां दी जा रही हैं, दूसरी तरफ पहले विधानसभा और फिर निकाय चुनाव में करारी हार ने रमन सिंह को पार्टी की निगाह में निस्तेज कर दिया है। रमन सिंह बिना हथियारों और बिना ताकत के कांग्रेस के साथ-साथ बीजेपी में बैठे अपने प्रतिद्वंदियों से लड़ रहे हैं। आगे की राह मुश्किल भरी और अनदेखी है ।

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Published: 15 Jan 2021, 6:04 PM