मृणाल पांडे का लेख: आखिर कब तक बिना प्रतिवाद किए चुप रहकर मुट्ठी भर आमदनी पर जीवन चलाएं किसान

कृषि क्षेत्र से होने वाली कुल आमदनी भले ही 7.8 फीसदी बढ़ी है लेकिन साथ ही मुद्रास्फीति 16 फीसदी की रफ्तार से बढ़ने से आज हमारा एक किसान औसतन सिर्फ 27 रुपये रोज कमा रहा है। खेती से होने वाली आय 48 फीसदी से कम होकर 38 फीसदी पर आ गई है।

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मृणाल पाण्डे

कठोर सालों में अगर किसी क्षेत्र ने खामोश विनम्रता से करोड़ों गरीबों को ग्रामीण क्षेत्र में जिलाए रखा, और शहरों की सुरसाकार भूख मिटाई तो वह किसानी ही है। फिर भी शहरी उद्योगों को विकास के नाम पर तवज्जो देते हुए किसान की पीठ पर नए कानूनों को रख देना उसे अपनी रीढ़ टूटना लग रहा है। 2019-20 से अगस्त, 2021 तक इस क्षेत्र से लगभग 20 लाख निराधार खेत मजूर बेदखल हुए हैं। फिर भी यह तादाद इसी दौरान शहरों में घटे 30 लाख 70 हजार रोजगारों से कम हैं। तालाबंदी के दौरान बेरोजगारों की एक भारी भीड़ शहरों से गांवों को भागी थी, आज वह फिर लौटने को बाध्य है क्योंकि उसने देखा कि किस तरह कृषि का क्षेत्र बदहाल होता जा रहा है।

भारतीय किसानों का नए किसानी कानूनों के खिलाफ लगभग साल भर से चल रहा धरना इसी दशा का आईना है। गुलाबी अखबारों में राजनीति से अर्थजगत तक में शहरी विकास के पैरोकार लगातार फैलते शहरीकरण की दुहाई देकर खेती की बजाय शहरी उद्योगों में ही अधिक निवेश करने का मंत्र सरकार के कानों में फूंक रहे हैं। पर चंद सच्चाइयां वे नहीं बता रहे।

एक, आज भी देश में अनौपचारिक क्षेत्र और उसमें भी खेती-बाड़ी सबसे अधिक (लगभग 58%) रोजगार मुहैया कराता है। और जब तालाबंदी के दौरान देश के उद्योगों और सेवा क्षेत्र की सकल उत्पाद दर औधे मुंह जा गिरी थी, उस समय भी किसानी ने ही बांह गही। गोदी मीडिया में इस धारणा को बल देते हुए प्रचंड उपभोक्तावाद और भौतिक वैभव के अशिष्ट दिखावे की छवियां दिखाई जा रही हैं, जैसे शहरों में कोई कारूं का खजाना धरा हो। सचाई यह है कि असली दुनिया में हताशा में अपनी उपज सड़कों पर फेंकने को बाध्य किसान तमाम कष्ट सहकर भी पहली बार लंबे धरने पर उतर आए हैं। सरकारी अवहेलना और शिखर की चुप्पी से उनका गुस्सा इतना गहरा चुका है कि उनको रोकने-तोड़ने की साम- दाम-दंड-भेद की कोई कोशिश परवान नहीं चढ़ सकीं। अलबत्ता हाल में अपनी पुलिस को लामबंद किसानों के सर फोड़ने का बेशर्म हुकुम देते अफसर को टीवी पर देखकर जनता का गुस्सा भी उबल पड़ा। लिहाजा वे पहले स्थानांतरित किए गए और फिर जांच होने तक छुट्टी पर भेज दिए गए।

श्रम मंत्रालय (आईएलओ) के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्र में ‘मनरेगा’ (जिसकी मौजूदा सरकार ने शुरू में जमकर खिल्ली उड़ाई और आवंटित राशि में कटौती की) ने सबसे कमजोर तबके, महिला खेत मजूरों को रोजगार तो दिया, पर 2020-21 की तुलना में उसके लिए आवंटित राशि 34 फीसदी कम होने से लगभग बीस लाख महिलाएं काम से बेदखल हो गईं। उनको राहत के नाम पर फौरी तौर से जो राशि या मुफ्त गैस सिलेंडर वगैरा बांटे गए, वह अंधेरे में भटके को चंद पल दिया सलाई की रोशनी दिखाने से अधिक नहीं निकला। लिहाजा ग्रामीण बेरोजगार फिर शहर लौटने को लाचार हुए। पर शहरों में भी धीरे-धीरे खुल रहे उपक्रमों में अभी उतनी नौकरियां नहीं हैं। शेयर बाजार का ताजा उछाल शहरी अर्थव्यवस्था की तरक्की का प्रमाण नहीं माना जा सकता| यह बढ़त फार्मा या शिपिंग या पेट्रो पदार्थों (तथा मीडिया) के मुट्ठी भर घरानों की निजी दौलत बेशुमार बढ़ने से उपजी है|

हमारे देश में आज भी 80 फीसदी लोग कम वेतन, कम सुरक्षा के बावजूद अनौपचारिक क्षेत्र में ही नौकरी पा रहे हैं जहां पहले अप्रशिक्षित महिलाओं की बड़ी तादाद होती थी। इधर कई हुनरमंद पुरुष औपचारिक क्षेत्र की छंटनियों से दर-बदर होकर इस क्षेत्र में घुस आए हैं और अधिकतर काम उन्होंने पकड़ लिए हैं। अनुभवी पुरुष घर आ जाने से ग्रामीण महिलाएं खेती क्षेत्र से भी बाहर जाने को मजबूर हो रही हैं। शहरों में वे प्रायः अवैतनिक घरेलू काम कर रही हैं या फिर निर्माण क्षेत्र में ठेके पर काम करते पुरुष मजूरों से कहीं कम तनख्वाह पर उनकी मदद।


हर तरफ से हारा सरकारी योजनाकार हारे को हरिनाम चरितार्थ करता हुआ धार्मिक पर्यटन को धुकाने में जुट गया है। कोविड की तालाबंदी के बीच सेवा क्षेत्र बंद हुआ तो सरकार एक अपरिचित शब्दावली धार्मिक पर्यटन और पवित्र स्नानों का हवाला देकर तीर्थ स्थलों के ताले खुलवाने लगी। ऐसे बिकाऊ धर्म में न पुरानी आत्मीयता है, और न ही लोकल स्वास्थ्य या पर्यावरण के लिए कोई चिंता। हमको कहा जा रहा है कि सरकारी निर्माण योजना से सड़क और पुल निर्माण में नौकरियां निकलने वाली हैं। साथ ही यह भी कि आपको यह अच्छी सडकें फोकट में नहीं मिलेंगी। भरपूर टोल देना होगा। कुदरती साधनों के दोहन से तैयार तथाकथित राजमार्गों और बेहतरीन पर्यटन सड़कों की दशा हिमालयीन इलाके में जाकर देख लें। अत्यधिक खोदा- खादी और ब्लास्ट ने इन बारिशों में ही पहाड़ों को मलबे में तब्दील कर सड़कों का ऐसा भुरकुस निकाला कि चारधाम यात्रा बार-बार बंद करनी पड़ी। इस बीच वॉटरशेड, यानी जलागम विकास के नाम पर हो रहा काम नदियों को गाद से भर गया! पर जब चमोली की तरह कोई बड़ी झील यकायक फटी, तब मुख्यमंत्री दिल्ली तलब हुए और आग लगने पर कुएं खोदे गए।

अभी उत्तराखंड के बीसेक गांवों के लोगों ने बिल्डरों द्वारा जल दोहन को लेकर नैनीताल में धरना दिया। हरित क्रांति ने करीब चार दशकों तक अपना हल-बखर चलाकर विकासशील दुनिया को उन्नत किसम के बीज बोने पर राजी कर लिया तो पहाड़ से मैदान तक बीजों के साथ कीटनाशक और भरपूर पानी की मांग बढ़ी। अब अन्न की उपज के साथ उसके वितरण के क्षेत्र में भी मेगा ग्लोबल कंपनियां आ गई हैं। सदियों से किसानों और बाजार के बीच का सेतु रही मंडियों को नए कानून चुनौती दे रहे हैं। बिना उनसे सलाह-मशवरा किए ताबड़तोड़ निर्माण या कृषि कानूनों पर ग्रामीण विनम्रता से बातचीत करना चाहते हैं, तो उनको सुनने वाले कान नहीं मिलते। उल्टे सड़कों पर अवरोधक लग जाते हैं।

यह भी गौरतलब है कि अमीर देशों की जिन बीज कंपनियों ने पहले ही विकासशील देशों में केले तथा कोको से लेकर रबर तक की विविध किस्मों की रज जमाकर शोध रोक दिया था, वे पारंपरिक तिलहनों की जगह सस्ते लेकिन पर्यावरण को खतरा पेश करने वाले पाम तेल का गुणगान शुरू करा रही हैं। बड़े ग्लोबल सौदागरों की झोली ऐसे तमाम टोटकों से भरी हुई है। बीजों की रज पर कब्जे का मतलब है पौधों की आनुवंशिकता से लेकर बिकवाली तक खेती से जुड़े हर फैसले पर किसान की बजाय कंपनी का नियंत्रण। किसानों का अब तक का अनुभव रहा है कि सिंचित इलाकों की अधिकतर फसल रोकड़ फसल होती है जो तिजोरी कुछ समय तक के लिए भरने की चीज भले दिखे, अंत में कीमती खरपतवार नाशक, कीटनाशक और बनावटी खाद के दाम उनकी कमाई को लीलने में देर नहीं लगाते।


इधर लंबे समय बाद राष्ट्रीय आंकड़ों के बड़े स्रोत नेशनल स्टैटिस्टिकल सर्वे के द्वारा 2019 में ग्रामीण इलाकों के खेतिहर परिवारों की आमदनी पर शोध आया है। वह (सिचुएशनल असेसमेंट सर्वे 2018-19) स्वीकारता है कि कृषि क्षेत्र से होने वाली कुल आमदनी भले ही 7.8 फीसदी बढ़ी है लेकिन साथ ही मुद्रास्फीति 16 फीसदी की रफ्तार से बढ़ने से आज हमारा एक किसान औसतन सिर्फ 27 रुपये रोज, यानी कुल 810 रुपये प्रतिमाह कमा रहा है। खेती से होने वाली आय तो 48 फीसदी से कम होकर 38 फीसदी पर आ गई है और जो आय की क्षीण बढ़ोतरी हुई है, वह खेती से नहीं, बल्कि पशुपालन और किसानी मजूरी दर बढ़ने से हुई है। सर्वे यह भी बता रहा है कि प्रति किसानी परिवार के सर पर फार्म लोन का बोझ 2012- 13 की तुलना में 2019 तक आते-आते 16.5 फीसदी (47,000 सालाना से बढ़कर 74,100 रुपये) हो गया है। इस सबके उजास में किसानों की हताशा और गुस्सा समझ में आते हैं।

आम तौर से देश के हाशिये पर शांति से अपना काम करता रहा किसान ऊपरी आश्वासनों पर भरोसा नहीं करता। इसीलिए सरकारी अमलों और नेताओं को किसानों ने मुज़फ्फरनगर, गाजीपुर, टीकरी, करनाल से अलीगढ़ तक मंच से बलपूर्वक उतारना शुरू किया है। सोचिए, जब उनको टीवी पर साफ दिखता हो कि हमारे उच्चवर्गीय शहरी युवा घर बैठे काम से इतना धन कमा रहे हैं कि हजार रुपया प्रति व्यक्ति की दर पर बड़े रेस्तरां से बजरिये स्विगी या जमाटो घर पर ही बेहतरीन खाना मंगवा सकें, तो वे जो देश के अन्नदाता हैं, कब तक 810 रुपये प्रतिमाह की अपनी कमाई पर चुपचाप बिना प्रतिवाद किए जिएं? जब चुनाव सर पर खड़े हों (और इस विशाल देश में वे कब नहीं होते?) तो गरीब मतदाता भी मंच पर सीधा खड़ा होकर मन की बात करने लगता है।

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