सिर्फ धार्मिक आधार पर वोट नहीं देते मुसलमान, आखिर सिर्फ मुसलमानों के वोटों को धार्मिक पहचान से क्यों जोड़ा जाता है!

एक बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव कुछ महीने बाद ही हैं। चुनाव का आना मुसलमानों की याद दिलाना है। मीडिया को अचानक ‘मुसलमान नागरिक’ और उनके ‘मत’ का ‘अधिकार’ याद आ जाता है।

प्रतीकात्मक फोटो
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नासिरुद्दीन

बात सन 1989 के लोकसभा चुनाव की है। भागलपुर और देश के कई शहरों में सांप्रदायिक हिंसा का असर था। कांग्रेस को वोट देने वाले मुसलमानों का एक बड़ा तबका उससे नाराज था। पटना सीट का चुनाव था। मतदान के दिन धीरे-धीरे यह साफ होने लगा कि मुसलमानों के एक हिस्से का वोट इस बार कांग्रेस के उम्मीदवार की जगह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार को जा रहा है। वह दौर मतदान पत्र का था। मुसलमान बहुल इलाकों में भाकपा के बस्ते की जगह ठीक-ठाक भीड़ जमा हो रही थी। दोपहर होते-होते एक बात तेज हवा की मानिंद फैली कि मुसलमान ‘फलाना’ को नहीं ‘फलाना’ को वोट दे रहा है। वे इलाके जो कई वजहों से पारंपरिक रूप से कांग्रेस के पक्के वोटर थे, उन्होंने अचानक भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार के हक में वोट की मुहिम शुरू कर दी। वह सीट भारतीय जनता पार्टी ने जीती। कांग्रेस दूसरे और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी तीसरे स्थान पर रही।

एक बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव कुछ महीने बाद ही हैं। चुनाव का आना मुसलमानों की याद दिलाना है। मीडिया को अचानक ‘मुसलमान नागरिक’ और उनके ‘मत’ का ‘अधिकार’ याद आ जाता है।

अरसे बाद, पटना के उस चुनाव का जिक्र इसलिए करना पड़ा कि मुसलमान नागरिकों का वोट, सिर्फ उनका ही मत तय नहीं करता बल्कि वह कुछ समूहों/समुदायों के मत को भी तय करता है। मुसलमानों के चुनाव को कैसे बेकार या बेआवाज साबित कर दिया जाता है, वह उसका भी उदाहरण है। ध्यान रहे, पटना में मुसलमानों का वह तबका सांप्रदायिक आधार पर या किसी मौलाना के फतवे के असर में अपने वोट तय नहीं कर रहा था। वह बतौर नागरिक अपने मत के अधिकार का इस्तेमाल कर रहा था। इसके बरअक्स कुछ और लोगों ने सांप्रदायिक आधार पर अपने वोट तय किए। मुसलमान नागरिकों के वोट पर बात करते वक्त यह बात किसी के ध्यान में क्यों नहीं आती? यही नहीं, जैसा पटना में उस चुनाव में हुआ, वह न तो पहला था और न ही आखिरी, यानी वह नया नहीं था। मगर कुछ सालों में इसमें काफी तेजी आई है। इसका दायरा बढ़ता जा रहा है।

लेकिन जब भी हम चुनाव के नजरिये से बात करते हैं तो हम मुसलमान नागरिकों के वोट देने के रुझान पर ही ध्यान देते हैं। खासतौर पर उत्तर भारत और उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के बारे में बात करते वक्त हमारे जहन में जिस मुसलमान की छवि रहती है, वह किसी फैक्ट्री के सांचे में बने-बनाए विचारों से तैयार लगती है। मुसलमान मतदाताओं के बारे में वैसे ही बात की जाती है, जैसे वे बाकियों से अलग और अजूबे प्राणी हैं, यानी उनके वोट देने के रुझान बाकियों से एकदम जुदा होंगे। इसीलिए जितना ध्यान मुसलमान नागरिकों के मत देने के फैसले पर दिया जाता है, वैसी ही ध्यान से चर्चा, दूसरे धार्मिक समूहों के वोट देने पर नहीं की जाती। क्या यह ध्यान इसलिए भी तो नहीं दिया जाता है कि दूसरे धार्मिक समूहों के वोट का रुझान तय किया जा सके? उनका रुझान एक खास ओर मोड़ा जा सके?

मुसलमानों में जातियां भी हैं। अमीर-गरीब और मध्यवर्ग भी है। जातियों का भी वर्ग है, यानी सारे मुसलमानों की पहचान महज ‘मुसलमान’ ही नहीं है। इसलिए वे वोट भी एकजुट होकर एक ही जगह करें, ऐसा मानना उनके साथ ज्यादती है। उनके चुनाव करने की सलाहियत पर शक करना है।

इसे एक और उदाहरण से भी समझा जा सकता है। एक विधानसभा सीट है मीरापुर। मुसलमान मतदाताओं की तादाद ठीकठाक है। सन 2017 के विधानसभा चुनाव में यहां से भाजपा उम्मीदवार अवतार सिंह भड़ाना जीते। दूसरे नंबर पर सपा के उम्मीदवार लियाकत अली थे और तीसरे पर नवाजिश आलम ख़ान। भाजपा को 69,035, सपा को 68,842 और बसपा को 39,689 वोट मिले। भाजपा को कुलमत का 33.95 फीसदी, सपा को 33.86 फीसदी और बसपा को 19.52 फीसदी वोट मिले। भाजपा उम्मीदवार को 0.09 फीसदी के अंतर से 193 वोट से जीत मिली। अगर मुसलमान एकजुट होकर एकतरफा वोट ही देते हैं तो नतीजा क्या आना चाहिए था? अगर हिसाब लगाया जाए तो पिछले चुनाव में ऐसी अनेक सीटें दिखती हैं जहां एक ही विधानसभा क्षेत्र में मुसलमानों ने अलग- अलग पार्टियों या उम्मीदवारों को वोट दिया। यह उनके ‘लोकतांत्रिक नागरिक’ होने का सबसे बड़ा सुबूत है।

इसीलिए सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) के चुनाव बाद सर्वेक्षणों में कुछ बातें बार-बार उभरती हैं। मुसलमान किसी एक पार्टी के बंधुआ नहीं हैं। अलग-अलग राज्यों में उसकी पसंद अलग-अलग हैं। एक ही राज्य में भी वे कई लोगों को पसंद करते हैं। जैसे, उत्तर प्रदेश के पिछले दो विधानसभा चुनावों को देखें तो 40-45 फीसदी मुसलमानों ने समाजवादी पार्टी को वोट दिया लेकिन बाकी मुसलमान ने नागरिक कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी और भाजपा को भी वोट दिया। अगर वे सिर्फ अपनी धार्मिक पहचान को ऊपर रखते और किसी के कहने पर वोट देते तो यह मुमकिन नहीं था। बेहतर है, जब हम मुसलमानों को वोटर के तौर पर देखें तो उनकी दूसरी पहचानों को नजरंदाज करने से बचें। उनके वोट देने के रुझान को जातीय और वर्गीय पसमंजर में भी समझने की कोशिश करें। मुसलमान के अशराफ का बड़ा समूह जिस पार्टी को पसंद करता है, जरूरी नहीं कि पसमांदा कहे जाने वाले तबके भी उन्हीं को वोट दें, यानी उनके वोट देने का आधार उनकी धार्मिक पहचान से इतर है।

हालांकि इस वक्त सब यह जानना चाहते हैं कि इस बार मुसलमान कैसे वोट करेंगे? कोई यह क्यों नहीं जानना चाहता है कि बाकी समूह या समुदाय कैसे वोट करेंगे? खैर, वैसे इस सवाल का जवाब इस बात से जुड़ा है कि पिछले कुछ सालों में, और खासकर कोविड महामारी के दौर में मुसलमानों के साथ मौजूदा सरकार का रवैया क्या रहा है? यहां यह ध्यान रखने वाली बात है कि सरकार के रवैये का अलग-अलग तबके पर अलग-अलग असर है। जैसा कि कुछ पत्रकार बता रहे हैं कि सरकारी योजनाओं का फायदा पाने वालों में मुसलमान भी हैं।

दूसरी ओर, इसके साथ-साथ बतौर मुसलमान नागरिक, उनकी मौजूदगी और पहचान को ही नकारने की कोशिश है। नागरिक के तौर पर उनकी आवाज को बेकार करने की कोशिश है। इससे एक साथ दो काम हो रहे हैं। मुसलमानों में अपने वजूद और मुस्तकबिल के लिए फिक्र पैदा हो रही है। वे बेचैन हैं। परेशान हैं। मगर दूसरी ओर, यह खास पार्टी के हक में बेखौफ गोलबंदी भी कर रहा है। एक डरा या दबा मुसलमान नागरिक भी किसी के काम आ सकता है! चुनाव जिताने की वजह बन सकता है। जाहिर है, इन सबका जवाब चुनाव के नतीजे ही दे पाएंगे।

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