आकार पटेल का लेख: सार्वजनिक विमर्श में दुर्भावना को खोलकर सामने रखना ही है इस सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि

इस सरकार ने राजनीति और राजनीतिक विमर्श में एक ऐसा विशेष लहजा शामिल करा दिया है, जिसका सिर्फ एक ही सिरा है। सिर्फ एक खास विचार या मत ही राष्ट्र हित में माना जाता है और उसका विरोध करना या उससे असहमति जताना आपको राष्ट्रविरोधी और गद्दार करार दे देता है।

फोटो : Getty Images
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आकार पटेल

जैसे-जैसे इस सरकार का कार्यकाल खत्म होने का समय आ रहा है, मैं उस सबकी तरफ ध्यान दिला रहा हूं जो इस सरकार ने इस दौरान किया और उसका देश के नाते हम सब पर क्या असर रहा। इस बार ये सब उस सप्ताह में देखा जा रहा है जब बाजार का सरकार और उसकी आर्थिक नीतियों में भरोसा खत्म हो चुका है। रुपया अपने ऐतिहासिक निचले स्तर पर पहुंच चुका है और हमें कहीं से यह तसल्ली नहीं दी जा रही कि मई से पहले हालात सुधरेंगे।

पिछले कई महीनों में बाजार ने जो कुछ तेज़ी दिखाई थी या इससे जो कमाई हुई थी, वह महज़ तीन दिन में स्वाहा हो गई। इस देश और देश की तरक्की में निवेश करने वाले गुजराती के तौर पर मैं नुकसान को महसूस कर सकता हूं, और मेरे साथ तमाम निवेशक भी ऐसा ही महसूस कर रहे होंगे।

बीते पांच वर्षों में देश की अर्थव्यवस्था में कोई तेज़ी नहीं रही, जो कि इससे पहले के दस साल के दौरान देखने को मिली थी। तरक्की की रफ्तार धीमी हुई है। हम कहते नहीं थकते कि आज की तारीख में हम दुनिया की सबसे तेज़ी से विकसित होती अर्थव्यवस्था हैं, वह सिर्फ इसलिए क्योंकि चीन के विकास की रफ्तार हमारे मुकाबले ज्यादा कमजोर हुई है। वास्तविकता तो यही है कि हमारी रफ्तार बहुत धीमी हो गई है। हां, एक अच्छी बात भी है, जिसका श्रेय सरकार ले सकती है, वह यह है कि इसके शासन में महंगाई मोटे तौर पर काबू में रही है। मौजूदा सरकार कालेधन के खिलाफ ठोस कदमों का दावा भी कर सकती है। हम सहमत हों या नहीं, लेकिन इसके नतीजे तो दिखे हैं।

अर्थव्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में यह इस पूरे लेख की पृष्ठभूमि है। कुल मिलाकर इस बात की संभावना नहीं के बराबर है कि सरकार जब 2019 का चुनाव प्रचार शुरु करेगी तो वह अर्थव्यवस्था के रिकॉर्ड को जनता के सामने रखेगी।

बेरोजगारी और विकास को लेकर दूसरे दावे भी हैं। भारत में इन दावों की सच्चाई आंकने के लिए प्रामाणिक डाटा उपलब्ध ही नहीं है। लेकिन जो लोग भी स्वतंत्र रूप से अपने तरीकों से रोजगार के हालात पर नजर रखते हैं, कहते हैं कि देश में रोजगार, और खासतौर से दफ्तरों वाली नौकरियों की स्थिति निराशाजनक है। और हां, यह पहले से कोई खास बेहतर भी नहीं है। यह सरकार प्रधानमंत्री के जरिए कुछ दावे करके रोजगार की स्थिति के विपक्षी दावों का जवाब तो देती है।

अगर हम किसानों के बड़े संगठनों, पाटीदार, जाट और मराठा आरक्षण की मांग के आंदोलन पर नजर डालें तो साफ हो जाता है कि देश में लोगों को खेती-किसानी के बजाए दूसरे रोजगार देने की कोशिशें नाकाफी ही रही हैं।

अब विदेश नीति की बात करते हैं। इस मोर्चे पर तो चीन हमें हमारे ही इलाके में प्रभावित करके रखा है। चीन ने सामरिक महत्व वाले लंका, नेपाल, मालदीव, भूटान, और तो और, पाकिस्तान तक में अपनी आर्थिक और सैन्य शक्ति का इस्तेमाल कर कब्जा जमा लिया है। आज हम अपने पड़ोसियों के बीच उतने प्रभावशाली नहीं रहे, जितने हुआ करते थे। खासतौर से हिंदा महासागर और दक्षिण एशिया में हमारी हैसियत पांच साल पहले जैसी नहीं रही। इस बात से कोई भी विशेषज्ञ इनकार नहीं करेगा।

मुझे लगता है कि इस सबके पीछे सरकार से भी बड़ी कुछ ताकतें हैं। मुझे नहीं लगता कि कोई भी सरकार चीन की ताकत का विरोध कर सकती है क्योंकि चीन के पास वह ताकत है, जो हमारे पास है ही नहीं। इसी तरह मुझे लगता है कि कोई भी सरकार रोजगार के मोर्चे पर भी कुछ कर पाती या पेट्रोल कीमत काबू में कर पाती या फिर रुपए की कमजोरी को रोक ही पाती। कोई भी सरकार क्या कर सकत है, क्या नहीं उसकी एक सीमा होती है।

लेकिन इस सरकार ने एक काम जरूर ऐसा किया है जो इससे पहले कोई भी सरकार नहीं कर पाई। इस सरकार ने राजनीति और राजनीतिक विमर्श में एक ऐसा विशेष लहजा शामिल करा दिया है, जिसका सिर्फ एक ही सिरा है। सिर्फ एक खास विचार या मत ही राष्ट्र हित में माना जाता है और उसका विरोध करना या उससे असहमति जताना आपको राष्ट्रविरोधी और गद्दार करार दे देता है।

यह बदलाव सिर्फ तत्व में नहीं हुआ है, बल्कि तात्पर्य और लहजे में हुआ है। आज हम जिस तरह से गंभीर मुद्दों पर बहस-मुबाहिसा करते हैं, उसमें 2014 के बाद से नाटकीय परिवर्तन आया है। इस सरकार ने हर मुद्दें पर बहस की परिभाषा तय कर दी है और वह है राष्ट्र हित। कालेधन से लेकर आंतकवाद तक और शरणार्थियों से लेकर अल्पसंख्यकों के अधिकारों तक, हर मुद्दे पर बहस के नियम तय कर दिए गए हैं।

अगर आपके विचार या तर्क इस परिभाषा की परिधि में नहीं आते हैं तो, आज यह संभव ही नहीं है कि आप किसी मुद्दे पर अपने विचार सीधे-सीधे या आसानी से रख सकें। अगर सैना की शक्ति या कभी इस्तेमाल न होने वाली मशीनों (हमने आखिरी बार अपने लड़ाकू विमानों का इस्तेमाल आज से 40 साल पहले किया था।) पर हो रहे खर्च से सहमत नहीं हैं, तो आप राष्ट्रवादी नहीं हैं। अगर आपको लगता है कि राष्ट्रगान और राष्ट्र ध्वज की अपनी जगह है, लेकिन हर जगह इसकी जगह नहीं है, तो इसका अर्थ होगा कि आप देश से नफरत करते हैं।

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