मृणाल पांडे का लेख: खेती के भविष्य के लिए उसके लोक विज्ञान को समझना जरूरी

जरूरत है कि परंपरा का ढोल पीटती शब्द बहादुर राजनीति पहले सही मायनों में लोकमुखी बनकर इसके पीछे के लोक विज्ञान को समझे। तभी वह अन्न के बाजार और खेतों का धंधा चलाने वाले उस अमूर्त ग्लोबल बाजार की ताकतों का फर्क समझ सकेगी जो मीडिया और अपने एजेंटों की मार्फत अन्न के विश्व उत्पादन पर कब्जा करना चाहती हैं

फोटो : ऐशलिन मैथ्यू
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मृणाल पाण्डे

पिछले लंबे दौर से हम देख रहे हैं कि साक्षरता से लेकर पर्यावरण या कृषि में सही सुधार लाने और जनचेतना जगाने की बातें हम आम जनता को लेकर अक्सर एक नकारात्मक टोन में शुरू करते हैं- कि हमारा किसानी प्रधान देश कॉरपोरेट किसानी से अज्ञानवश बिदकता है; कि हमारा ग्रामीण पर्यावरण जंगलों को चरागाह बनाने, पराली जलाने और भूमि के भीतर छुपे पानी के दोहन से बिगड़ रहा है। इसी तरह हमारे शहरी पर्यावरण की तबाही के लिए झुग्गी-झोपड़ियों के अनगिनत निवासियों की बढ़ती अवैध बस्तियां और उनका अवैध जल-मल व्ययन जिम्मेदार है। हमारे किसान जिद में सिर्फ गेहूं या धान ही उगाना चाहते हैं ताकि उनको न्यूनतम समर्थन मोल मिलता जाए। अपने बच्चों की पढ़ाई भी वे अक्सर अधबीच छुड़ाकर उनको कमाने पर लगा देते हैं... आदि।

सोच-विचार का यह तरीका हालात को बेहतर बनाने में अब तक अक्षम रहा है। अलबत्ता राजनीतिक पार्टियों को इससे यह फायदा हुआ है कि चुनावी जनसभाओं में किसी भी संज्ञा के आगे ‘जन’ या ‘लोक’ जैसे शब्द जोड़कर खुद को असली आदर्श जनसेवक, जनांदोलनकारी, लोक हितैषी, लोक चेतना का वाहक वगैरह बना कर प्रोजेक्ट करना और विपक्ष को वातानुकूलित कमरों के शहरी बहसबाज बताना उनके लिए आसान बन गया है। इतने लोक हितैषी दलों की जनसेवकाई और भारी आत्मप्रचार के बावजूद अगर किसानों का ताजा आंदोलन बिना राजनीतिक अगुआई और मीडिया से कवरेज मांगे सारे देश के किसानों को आंदोलित कर सका है, तो मतलब साफ है- अब समय आ गया है कि देश राजनीति और लोक या जन के नाम पर खेले गए ओछे भाषाई खेलों के परे जाकर खेती के भविष्य पर सोचे।


मौजूदा संकट बता रहा है कि भारत में खेती महज बाजार और उत्पादक के बीच तक सीमित मामला नहीं है। उसको खाद-पानी देने वाली जड़ें भारत के समग्रराज, हमारे बहुरंगी समाज और पर्यावरण से भी कैसी गहराई से जुड़ी हुई हैं। इसलिए सोचने की बात यह नहीं कि खेती का स्वरूप सहकारी बना कर उसे बेहतर अन्न भंडारण और बिक्री की राह देने वाले निजी कॉरपोरेट क्षेत्र का सहयात्री किस तरह बनाया जाए। बल्कि यह कि कॉरपोरेट क्षेत्र के बीज उपलब्धि, फसलों की खरीद-बिक्री, भंडारण और वाजिब दाम चुकाई के स्थापित तौर-तरीकों को हमारे देश की अपनी क्षेत्रीय जरूरतों के अनुरूप किस तरह तराशा जाए। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का मसला इतने दशकों तक चुनाव-दर-चुनाव राजनीति की जरूरतों से ही तय होता रहा है। लोकशक्ति, यानी किसानी वोट बैंकों को अंतिम बूंद तक दुहने वाले हमारे सभी राजनीतिक दल किसानी की सहज लोकबुद्धि की उपेक्षा के दोषी हैं। कभी जल विरल राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, हरियाणा या पंजाब के जो किसान जल की हर बूंद को रजत कण मानते हुए लोकबुद्धि से संजोते हुए कम पानी में उग सकने वाले मोटे अनाज पैदा करते थे, वे अब एमएसपी की तहत अधिकतम कमाई की गारंटी बन चुकी गेहूं, धान और गन्ना-जैसी फसलें उगाने में अधिक रुचि लेते हैं।

चूंकि भारत की दलगत राजनीति हाईकमान की रुचि-अरुचि से हांकी जाती है, हमारे कृषि मंत्रालय के मंत्री और उनके विशेषज्ञ संसद से यूएन की बैठकों तक में विज्ञान और नई तकनीक के नाम पर ट्यूबवेल की पैरोकारी करते हुए गेहूं-धान की भारी उपज को हरित क्रांति की संज्ञा देते रहे।

दरअसल समाज का अधिकांश हिस्सा अभी भी अपना जीवन उस ढंग से चलाना चाहता है जहां उसके हाथ में पहल, शक्ति और साधन बने रहें। पहले आनन-फानन लाई गई नोटबंदी, फिर कोविड के आगमन बाद की तालाबंदी और अंतत: कृषि के रूप को सिरे से बदलने वाले तीन नए कानून जिन पर विपक्ष या लाभार्थियों से मशवरा नहीं किया गया, सारे समाज को आशंका से भर गए हैं। ये सारे कदम अचानक नागरिकों से उनके निजी साधन, पहल और ताकत लेकर एक बेचेहरा सरकारी मशीन को थमाने वाले साबित हुए हैं। और वह मशीनरी भी अचानक आए बदलाव से कदम मिला कर चलने में बहुत काबिल नहीं साबित हुई है। हरेक पुराने समाज का अपना एक पारंपरिक गणित और गणितज्ञ होता है। खेतिहर समाज के लिए जो देश का तीन चौथाई रोजगार सृजक है, वह गणितज्ञ लोक कवि घाघ थे। घाघ का दिया मोटा मंत्र है, ‘जो हल चाले खेती वाकी, और नहीं तो जाकी ताकी।’ यानी जो खेती करता है, खेत उसी का होता है। स्थानीय मालिक के हाथ न रही, तो खेती न इधर की रहती है, न उधर की।


दिल्ली की सीमा पर बैठे बुजुर्ग किसानों से पूछिए, उनकी मुख्य चिंता यही है कि कहीं राजनेताओं और उनके मित्र कॉरपोरेट क्षेत्र की जरूरतों से संचालित सहकारी खेती भी तमाम राष्ट्रीयकृत बैंकों और सहकारी गन्ना मिलों की तरह देर-सबेर गरीब की वह जोरू न बन जाए जिसे हर कोई भाभी कह कर छेड़ जाता है। ऐसे में नई किसम की कृषि तकनीकी सीखने, सहकारी प्रयोग करने, नेट बैंकिंग अपनाने या कॉरपोरेट ताकतों से भाव-ताव न कर पाने की क्षमता की वजह से वे नए कानूनों को लेकर बहुत आशंकित हैं।

दिक्कत यहीं से शुरू होती है। हर कॉरपोरेटीकरण को फायदेमंद और वैज्ञानिकता आधारित कहने के चक्कर में नेतृत्व की लच्छेदार घोषणाओं ने और उनके पीछे इक्के के घोड़े की तरह सर झुकाए चलने वाली सरकार ने कई अच्छे उपजाऊ उपक्रमों की जड़ में घुन लगा दिया है। फिर भी अब तक कृषि सुधारों की बाबत हो रही सरकारी संस्थानों की बातचीत आधुनिक शाब्दिक खिलवाड़ से ऊपर नहीं उठ रही है।

नई तरह की खेती, मने नई तरह के बीजों और रासायनिक खाद से पंप लगाकर हर तरह की जमीन से अधिकतम पैसा देने में सक्षम और ग्लोबल बाजारों में बिक सकने वाली पैदावार किस तरह हासिल की जाए। इसे साकार करने की प्रक्रिया में पिछले चार दशकों में उत्तर से दक्षिण तक, पूरब से पश्चिम तक, हर राज्य में कुदरत के बुनियादी नियमों को तोड़ा गया और पैदावारों के पुराने रूप और क्रम को बदल दिया गया। नदियों का बहाव बदला, जंगलों को काटकर खेत-कारखाने लगे, रासायनिक उर्वरकों के उत्पादन और छिड़काव को भरपूर सरकारी तवज्जो दी गई। नतीजा हुआ, बंजर बनती जमीन, पानी की बढ़ती किल्लत, प्रदूषित नदियां और झीलें तथा जंगली जानवरों से मानव बस्तियों तक कभी सार्स, कभी स्वाइन फ्लू, तो कभी कोविड-जैसे नए संक्रामक रोगों का आगमन। यह भारत ही नहीं, सारी दुनिया में हुआ है। हरी क्रांति के लाभ-हानि पर बहस अभी हमारे यहां ठीक से परवान भी नहीं चढ़ी कि उस क्रांति के जनक हम पर एक और क्रांति लाद रहे हैं। बीज क्रांति। इसके लिए उनको बड़े सहकारी फार्म चाहिए। भारत जैसे बीज विविधता भरे देशों के पारंपरिक बीजों का खात्मा चाहिए ताकि उनकी जगह नए सहकारी फार्मों में वे अपने प्रामाणिक उत्तम बीज बुआ सकें। उन बीजों का दबदबा बनाए रखने के लिए विदेशों में प्रशिक्षित हुए सरकारी कृषि वैज्ञानिकों ने कृषि विज्ञान का काग भगोड़ा हर राज्य के कृषि मंत्रालय के सामने खड़ा कर रखा है। ‘लोकल’, ‘ग्लोबल’, ‘वोकल’ की तुकबंदियां हो रही हैं जिनका जुमलेबाजी से आगे कोई मतलब नहीं।


जरूरत यह है कि परंपरा का दिन-रात ढोल पीटती शब्द बहादुर राजनीति पहले सही मायनों में लोकमुखी बनकर परंपरा के पीछे के लोक विज्ञान को समझे। तभी वह अन्न के बाजार और खेतों का धंधा चलाने वाले उस अमूर्त ग्लोबल बाजार की ताकतों का फर्क समझ सकेगी जो मीडिया और अपने एजेंटों की मार्फत अन्न के विश्व उत्पादन पर कब्जा करना चाहती हैं। घाघ पहले ही कह गए : ‘उत्तम खेती, मध्यम बान।’ पहले खेती, फिर वणिज।

अगर सरकार सचमुच चाहती है कि हमारे किसानों की आजीविका सुरक्षित रहे, उनका पैदा किया अन्न प्रदूषण रहित बने और वाजिब कीमत पर भारतीय उपभोक्ताओं को हासिल होता रहे, तो उसे दिन- रात राजनीतिक नफा-नुकसान या बजटीय आना-पाई का हिसाब बिठाने का मोह छोड़ना पड़ेगा। अपनी बात कहने को आतुर किसानों पर लाठी या पानी की तोप चलाने की बजाय अपने नीति निर्माता बाबुओं और कृषि पंडितों की फौज सहित आमने-सामने बैठकर किसानों से खेतिहर समाज की स्थानीय परंपराओं और शहरी विकास से उनके रिश्तों की बारीकियों को समग्रता से समझना होगा। कृषि और पर्यावरण के एक गहन अध्येता और जानकार अनुपम मिश्र के शब्दों में: ‘खेती का पवित्र रहस्य और उसकी सृजनशीलता वहीं है जहां वह हमेशा रही है, किसानी परिवारों में। ये ही किसान धरती के बीजों को सुरक्षित रखते आ रहे हैं, भविष्य में भी ये ही उन्हें सुरक्षित रख पाएंगे, बीजों के सौदागर नहीं।’

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