देश की सत्ता कॉरपोरेट-हिन्दुत्व गठजोड़ की जकड़ में, एक का लक्ष्य छप्परफाड़ मुनाफा, दूसरे का लूट को आसान बनाना

पहले नजरबंद शिविर और विशेष जेलें बनेंगी, फिर उनके रख-रखाव के खर्च को लेकर टैक्सपेयर्स की जेब पर बोझा बढ़ने की दुहाई दी जाएगी और फिर देशी-विदेशी कॉरपोरेट्स को बैंक, जमीन, नदी, जंगल, फोन, रेल और तेल आदि के साथ अंततः नजरबंदी शिविर और जेलें भी दे दी जाएंगी।

फोटोः सोशल मीडिया
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नवजीवन डेस्क

‘नागरिकता संशोधन कानून’ और प्रस्तावित देशव्यापी ‘राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर’ की असंवैधानिकता, उसके सांप्रदायिक स्वरूप और इन दोनों में अंतर्निहित फासीवादी इरादों के बारे में इस बीच नित नई जानकारी और व्याख्याएं सामने आ रही हैं। यह कहना बिलकुल अतिरेक नहीं होगा कि यह समय भारत की बुनावट और अस्तित्व की बुनियाद दोनों के लिए आजादी के बाद का सबसे चुनौतीपूर्ण समय है। अगले कुछ महीने इस बात का फैसला करेंगे कि अगले कुछ वर्षों, दशकों के दौरान भारत की दशा और दिशा क्या होगी। एक तरफ जनप्रतिरोध उबाल पर है तो दूसरी तरफ देश की अमनपसंद, लोकतंत्र हिमायती, धर्मनिरपेक्ष जनता की उम्मीदें सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हुई हैं।

इस वक्त देश की सत्ता पर कॉरपोरेट और हिन्दुत्व के पक्के गठबंधन की मजबूत जकड़ है। कॉरपोरेट का एकमात्र लक्ष्य छप्परफाड़ मुनाफा कमाना है और मौजूदा हिन्दुत्व का अंतिम मकसद इस मुनाफे की लूट को सहज और आसान बनाना है। ठीक इसीलिए ‘राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर’ (एनआरसी) और ‘नागरिकता संशोधन कानून’ (सीएए) के राजनीतिक और सामाजिक पहलुओं के अलावा उसका एक अर्थशास्त्र भी है।

अमेरिका इस अर्थशास्त्र का साक्षात उदाहरण है। पिछले कई दशकों से अमेरिकी जेलों का निजीकरण कर उन्हें कॉरपोरेट कंपनियों को सौंपा जा चुका है। वे जेल में निरुद्ध बंदियों से उनकी जरूरतों के सामान और सुविधाओं के लिए ही पैसा नहीं वसूलतीं बल्कि उनसे काम करवा कर भी मुनाफा कमाती हैं। जाहिर है, जेल में बंद बंधुआ श्रम, बाहर के श्रम की तुलना में सिर्फ सस्ता भर नहीं होता (एक अध्ययन के मुताबिक उनका वेतन, बाहर उसी श्रम के लिए दिए जाने वाले वेतन का दसवां हिस्सा या उससे भी कम होता है) बल्कि किसी भी तरह के प्रतिरोध या असंतोष की आशंका से भी मुक्त होता है।

अमेरिकी जेलों में 23 लाख से अधिक कैदी हैं और यह कोई कम संख्या नहीं है। इन कैदियों में अश्वेत, हिस्पेनिक, लातीनी अमेरिकी और एशियाई मूल के अमेरिकियों की तादाद, आबादी में उनके अनुपात की तुलना से कहीं ज्यादा, बहुत ज्यादा है। हाल के दौर में एक नई किस्म अप्रवासी नजरबंदों की सामने आई है, जिनके 73 प्रतिशत लोग इन निजी जेलों में बंद हैं। गौरतलब है कि साल 2002 के बाद से इन अप्रवासी बंदियों की संख्या में 442 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। मतलब साफ है, जितने ज्यादा कैदी, कॉरपोरेट का उतना ही ज्यादा मुनाफा।


अब इसी पृष्ठभूमि में आज के भारत को देखें। अभी तक बनी देश की इकलौती नागरिकता पंजी, ‘असम के नागरिकता रजिस्टर’ से बाहर रह गए लोगों की तादाद 19 लाख 6 हजार 657 है, जो समूचे अमेरिका की जेलों में बंद कैदियों की कुल संख्या के लगभग बराबर है। इसी तरह नागरिकता रजिस्टर बनाने के बाद देश की एक विराट आबादी नागरिकता से वंचित हुई तो क्या होगा? असम की कुल आबादी तीन करोड़ 12 लाख में से यदि 19 लाख से अधिक लोग, जरूरी कागजात ना दिखा पाने के चलते ‘‘गैर-नागरिक” निकलते हैं तो इस औसत से 120 करोड़ की आबादी में कम-से-कम आठ करोड़ 55 लाख लोग अपनी नागरिकता से वंचित होने वाले हैं।

आदिवासियों और मेहनतकशों की विराट तादाद और अल्पसंख्यकों के विरुद्ध बनाए गए पूर्वाग्रही माहौल को देखते हुए असल में तो यह संख्या कहीं ज्यादा ही होने वाली है। इतनी बड़ी संख्या असम के 19 लाख लोगों की तरह नजरबंदी शिविरों जेलों के सिवा और कहां भेजी जाएगी? इस अनुमानित संख्या को देश के कुल जमा औद्योगिक श्रमिकों की मोटी तादाद, पांच से छह करोड़ के सामने रखकर देखने से स्थिति की भयावहता सामने आ जाती है। पहले नजरबंद शिविर और विशेष जेलें बनेंगी, फिर उनके रख-रखाव के खर्च को लेकर टैक्सपेयर्स की जेब पर बोझा बढ़ने की दुहाई देकर प्रायोजित शोर मचाया जाएगा और फिर देशी-विदेशी कॉरपोरेट्स को बैंक, जमीन, नदियां, जंगल, फोन, सार्वजनिक क्षेत्र, रेल और तेल आदि के साथ अंततः नजरबंदी शिविर और जेलें भी दे दी जाएंगी।

कॉरपोरेट कंपनी जेलों से ही नहीं कमाएंगी, वे इन जेलों को बनाने में भी कमाएंगी। असम के गोलपारा में इन दिनों पहले नजरबंदी शिविर का निर्माण जारी है। करीब 3000 लोगों को रखने वाले इस शिविर की लागत 45 करोड़ रुपये आंकी गई है। फिलहाल वहां 6 नजरबंदी शिविर चल रहे हैं जो जेलों के बाहर ही अस्थायी रूप से कायम किए गए हैं। इन्हें, उनमें रहने वालों से ही न्यूनतम वेतन से भी कम मजदूरी देकर बनवाया गया है। अभी तक की योजना के हिसाब से बरपेटा, दीमा, हसाओ, कामरूप, करीमगंज, लखीमपुर, नगांव, नलबाड़ी, सिवसागर और सोनितपुर में इसी तरह के 11 शिविर और बनाए जाने हैं जिनमें हरेक में 1000 लोग रखे जाएंगे।

मगर इनमें तो सिर्फ 14 हजार लोग ही समा पाएंगे? नागरिकता पंजी से बाहर छूटे लोगों की संख्या तो 19,06,657 है। इन सबके लिए करीब एक लाख करोड़ रुपयों के खर्चे से 1906 नई जेलों-शिविरों की आवश्यकता होगी। ताज्जुब नहीं होगा, यदि अगले कुछ दिनों में अंबानी या अडानी नजरबंदी शिविरों के निर्माण के लिए कोई नई कंपनी खड़ी करके सीधे मैदान में आ जाएं। यह सरल गणित का सवाल है कि यदि 19 लाख के लिए 1900 शिविर तो 9 करोड़ के लिए कितने?


फिलहाल तो ये मंसूबे आसानी से पूरे होते नहीं दिखते। मोदी और मीडिया के द्वारा फैलाए जा रहे उन्माद और शाह की पुलिस द्वारा बरपाई जा रही निर्ममता के बावजूद असम से पूर्वोत्तर और बंगाल, बिहार होते हुए दिल्ली, मुंबई से उत्तर और दक्षिण तक देश की जनता ने इस सांप्रदायिक, विभाजनकारी और असंवैधानिक साजिश के खिलाफ बेहद गुस्से के साथ अपनी तीव्र और तीखी असहमति का इजहार किया है। स्वतःस्फूर्त आंदोलनों की पहल पर आकार ले रहे देशव्यापी संगठित प्रतिरोध के बीच जेएनयू से जामिया, अलीगढ़ से हैदराबाद, कोच्चि से अहमदाबाद, मुम्बई से बेंगलुरू के छात्रों का नागरिकता कानून और एनआरसी दोनों के खिलाफ बहादुरी के साथ उठ खड़े होना और इसके जरिये हिन्दू-मुसलमान विभाजन की साजिश को नाकाम बना देना स्पष्ट दिखाई दे रहा है। लगता है कि चुनौतियां जितनी बड़ी हैं, प्रतिरोध उनसे भी ज्यादा बड़ा होकर सामने आएगा। ऐसा होना भी चाहिए।

(बादल सरोज का लेख सप्रेस से साभार)

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