विष्णु नागर का व्यंग्यः आज देश पर बेचने वालों का राज, जो ईमान और न्याय क्या धर्म तक बेच देते हैं!

बेचने वालों को इसमें उतना ही आनंद आता है, जैसा कभी भजन गाने में आता था, आरती उतारने में आता था, गुरुजी के खड़ाऊ सिर पर रखने में, तिलक लगाने में आता था और बलात्कार तथा दंगे करने-कराने में आता था। कहना अच्छा नहीं लगता मगर इस मामले में वे ... के भी गुरू हैं!

फोटोः सोशल मीडिया
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विष्णु नागर

जिनके पास बेचने का अधिकार होता है, वे सबकुछ, सबकुछ, सबकुछ बेच देते हैं। हवा बेच देते हैं, पानी बेच देते हैं, धरती बेच देते हैं, जंगल बेच देते हैं, नमी बेच देते हैं, धूप-छांव बेच देते हैं, हड्डियां और राख तक बेच देते हैं। ईमान-धर्म और न्याय की तो बात ही क्या करना, शांति और युद्ध ही नहीं, युद्धविराम तक बेच देते हैं। वे चाहे, जो, जिसका भी हो, अपना समझकर बेच देते हैं। वे खुद बिके हुए होते हैं और उन्हें खरीदने वाले भी कई होते हैं।

एकमुश्त बिकने की बजाए वे किस्तों में बिकना पसंद करते हैं। प्रॉफिट उनका मोटिव होता है, बेचना उनके खून में होता है तो किसी को वे अपना दिमाग, किसी को अपने कान, किसी को अपनी आंख, किसी को अपनी नाक, किसी को अपने हाथ, किसी को अपने पैर, किसी को अपना अमाशय तक बेच देते हैं। किसी को कुछ नहीं बेचते, उसका सबकुछ खरीद लेते हैं। खरीद क्या लेते हैं, छीन लेते हैं और फिर उसे बेच देते हैं, चाहे वह लोहे की फूटी तगाड़ी ही हो।

जिनके पास बेचने का अधिकार होता है, वे संविधान, नियम-कानून सब अच्छी तरह कंपनी के उत्पाद की तरह बढ़िया पैकिंग करके बेच देते हैं। अपनी हरामखोरी और दूसरों का श्रम, उनका रोजगार, उनकी देह तक बेच देते हैं। खूब बेचने के लिए वे टीवी चैनलों का 20 सेकंड का समय खरीद लेते हैं, जिसमें हमारे समय का महानायक मुस्कुराता हुआ प्रकट होता है। इस तरह वे कूड़ा, गंदगी, सड़ता हुआ पानी, बहता हुआ नाला और पेशाब की धार तक बेहद मुनाफे में बेच देते हैं। वे कमर बेच देते हैं, क्योंकि रीढ़ बेच चुके होते हैं।

जिनके पास बेचने का अधिकार होता है, वे हमारा एकांत अपना मानकर बेच देते हैं, हमारे भीतर की आग हमें पता लगने से पहले ही बेच देते हैं। इसका पता हमें अपने अंदर अचानक-अकारण पैदा हुए ठंडेपन से तब लगता है, जब हम कांपना शुरू कर देते हैं। हमारे कागज, कलम, बनियान और जांघिया तो वे बेच ही देते हैं,अपना नंगापन भी हमारा नंगापन बताकर बेच देते हैं।


ये बेच देते हैं और जमा कर लेते हैं करोड़ों-अरबों-खरबों रुपये और अधिक कमाने की चिंता कमा लेते हैं, नींद बेच देते हैं, विचार बेच देते हैं। अरे साहब खरीददार हो तो क्या बताऊं, शर्म आती है, बताने में, वे क्या-क्या नहीं बेच देते हैं। आप समझ जाओ, क्या-क्या नहीं से मेरा तात्पर्य क्या-क्या से है!

उन्हें वैसे खरीदना भी पसंद है, लेकिन उन्हें वे खरीददार पसंद नहीं, जो बाजार जाते हैंं, तो एक-एक आलू, एक-एक टमाटर, एक-एक भिंडी छांटकर, तुलवाकर, भाव करके, दो पैसे बचाकर खरीदना पसंद करते हैंं। उन्हें वे थोक खरीददार पसंद हैंं, जो 360 करोड़ की चीज भले 22 करोड़ में खरीद लें मगर खरीद लें। वे जो खरीदना चाहें, बेच देते हैं।

और वे हर जगह बेच-खरीद लेते हैं, दुनिया और घर तक में ऐसा कोई कोना नहीं, जहां वे दुकान नहीं लगा सकते। वे हर मौसम में, हर हालत में, हर देश में, हर ग्रह-नक्षत्र में बेचना-खरीदना जानते हैंं। उन्होंने आकाश बेच डाला तो तारों का क्या करते, वे तारे भी बेचने वाले होते हैं, मगर प्रदूषण के कारण धरती से तारे नहीं दिखते तो खरीदनेवाले इससे निराश होकर खरीदने से मना कर देता है। वे उसे एक रुपए की प्रतीकात्मक कीमत में बेचने का प्रस्ताव करते हैं।

यह राशि भी खरीदने वाले को ज्यादा लगती है तो वे 50 पैसे में बेचने का मन बना लेते हैं, मगर अंततः खरीददार,'तुम भी क्या याद करोगे' कि स्टाइल में कहता है कि चलो 50 पैसे के लिए क्या झिकझिक करना। वे जब एक रुपया दे देते हैं और ऐसा-वैसा नहीं एकदम कड़क नोट दे देते हैं, इतना कड़क कि जेब में मोड़कर रखने का भी मन नहीं करे तो वे इसे प्रभु का प्रसाद मानकर, सिर से छुआकर, देने वाले का आभार मानकर अपने पास बहुत ऐहतियात से रख लेते हैं।

उन्हें बेचने में उतना ही आनंद आता है, जैसा कभी भजन गाने में आता था, आरती उतारने में आता था, गुरुजी के खड़ाऊ सिर पर रखने में आता था, तिलक लगाने में आता था और बलात्कार तथा दंगे करने-कराने में आता था। उन्हें बेचने में इतना आनंद आता है और बेचने की ऐसी उतावली रहती है कि नींद आकर भी नहीं आती और नींद आती है तो खरीदार आ जाता है। वे खरीददार को उसकी आहट से नहीं, उसकी सुगंध, उसकी दुर्गंध और उसकी गंध से जान लेते हैंं। कहना अच्छा नहीं लगता मगर इस मामले में वे ... के भी गुरू हैं।


इतना बेचा जा रहा है, इतना बेचा जा रहा है कि यह देखकर रघु रोने लगता है कि इस तरह तो उसकी रही-सही दुनिया भी उजड़ जाएगी तो उसकी मां उसे चुप कराती है और जब वह चुप हो जाता है तो उसकी मां रोने लग जाती है और रघु उसे चुप कराता है। उधर बहन भी रोती है, भाई भी, बेटा भी, बेटी भी। बीवी सबको चुपचाप कराते-कराते खुद रोने लग जाती है।

कुछ चुप हैं अभी, रो इसलिए नहीं रहे हैं कि कल जब सब रोते-रोते थक जाएंगे तो लड़ने की बात छोड़ दीजिए, रोने को भी कोई नहीं बचेगा। वे कल रोने के लिए आज नहीं रो रहे हैं और समझ नहीं पा रहे हैं कि ये आंखों से बरसने वाले आंसू हैं या बरसात है या दोनों है या कुछ नहीं है, आंखों का भ्रम है, जो अब कभी दूर नहींं होने वाला है।

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