पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक विज्ञान के सुंदर मिलन से आगे बढ़ी आदिवासी महिलाएं

अनीता डोमार एक भील आदिवासी महिला है जो परंपरागत ज्ञान पर आधारित प्राकृतिक खेती करती है जिसमें सावधानी से संजो कर रखे गए देशीय बीजों को उगाया जाता है। दूसरी ओर आधुनिक विज्ञान की देन के रूप में सिंचाई के लिए इस गांव में सरकार ने सौर ऊर्जा का पंपिंग सेट लगवाया है।

फोटो: भारत डोगरा
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भारत डोगरा

अनीता डोमार एक भील आदिवासी महिला है जो अपने पति और चार बच्चों के साथ बांसवाड़ा जिले (राजस्थान) के कुशलगढ़ ब्लाक के आमलीपाड़ा गांव में रहती है। वह एक ओर आदिवासी परंपरागत ज्ञान पर आधारित प्राकृतिक खेती करती है जिसमें सावधानी से संजो कर रखे गए देशीय बीजों को उगाया जाता है। दूसरी ओर आधुनिक विज्ञान की देन के रूप में सिंचाई के लिए इस गांव में सरकार ने सौर ऊर्जा का पंपिंग सेट लगवाया है।

इस तरह गांव में अनीता और अन्य किसानों के प्रयासों में परंपरागत ज्ञान और आधुनिक विज्ञान का सुंदर मिलन है। इस आधार पर टिकाऊ आजीविका का आधार मजबूत करने में उनकी उपलब्धियां भी महत्त्वपूर्ण है।

गांव में महिला समूह की एक मीटिंग में इस लेखक ने इन किसानों से उनके तौर-तरीकों और तकनीकों के बारे में जो कुछ जाना, वह टिकाऊ कृषि व पर्यावरण रक्षा के अनुकूल कृषि के संदर्भ में उल्लेखनीय है। दरअसल यह सब एक वैज्ञानिक समझ के अन्तर्गत हो रहा है, पर इस वैज्ञानिक समझ का आधार परंपरागत ज्ञान भी हो सकता है व आधुनिक विज्ञान भी हो सकता है।

फोटो: भारत डोगरा
फोटो: भारत डोगरा

इसी गांव की एक अनुभवी महिला सरिता ने बताया - हमारे पूर्वजों को कृषि ज्ञान की बहुत अच्छी समझ थी, पर बीच में एक समय ऐसा समय आया जब कई कारणों से इसे भूलकर लोग दूसरी ओर चले गए क्योंकि बहुत से बाहरी असर भी तो गांव में आ रहे थे। फिर एक संस्था वागधारा के कार्यकर्ता हमारे गांव में आए व यहां महिला सक्षम समूह का गठन हुआ। इन मीटिंगों में हमने परंपरागत ज्ञान के महत्त्व को नए सिरे से समझा व यह भी जाना कि कई बड़े वैज्ञानिक व बहुत जानकार व्यक्ति भी अब प्राकृतिक खेती के लिए ही कह रहे हैं व तरह-तरह के पूर्वजों के समय के बीज बचाने के लिए कह रहे हैं। इस तरह हमने अपने ही खोए हुए ज्ञान को नए सिरे से जाना-पहचाना और अपनाया।

आमलीपाड़ा गांव में यह भील आदिवासी जो खेती कर रहे हैं उसकी एक मुख्य विशेषता यह है कि यह प्राकृतिक खेती है और इसमें रासायनिक खाद, कीटनाशक दवा और खरपतवार नाशक दवा का उपयोग न कर खेत पर ही गोबर और गोमूत्र आदि से खाद तैयार की जाती है। कीड़ों, खरपतवार, रोग आदि समस्याओं को कम करने के प्राकृतिक उपाय अपनाए जाते हैं।

दूसरी मुख्य विशेषता यह है कि किसान और विशेषकर महिला किसान बहुत प्रयत्न और सावधानी से विविधता भरी फसलों की देशीय किस्मों के बीजों को संजोते हैं। इन्हें सावधानी से अगली फसल के लिए बचाते हैं। यदि मक्के या गेंहू की फसल है तो इसके अच्छे मोटे दानों को पहचान कर इन्हें बीज के रूप में चिह्नित कर लिया जाता है। इसका उपयोग खान-पान में नहीं होता और इन्हें अगले वर्ष बीज के लिए बचाया जाता है। आरंभ में उगने वाली सब्जियों को भी बीज की दृष्टि से अधिक महत्त्व दिया जाता है। अनाज, मिलेट आदि के बीजों को राख और नीम की पत्तियों के साथ मटकी में बंद किया जाता है और बंद करने के लिए मिट्टी का लेप किया जाता है। कुछ बीजों को सागवान की पत्तियों के बीच मिट्टी के लेप में भी रखा जाता है।


पड़ौस के झिकली गांव की महिलाओं ने कहा कि सब्जी के बीज बचाने के लिए वे लौकी के सूखे खोल का उपयोग करती हैं। इस तरह इन किसानों को बाजार से बीज नहीं खरीदने पड़ते हैं और उनके पास बोने के लिए वे विविध किस्मों के बीज सुरक्षित पड़े मिल जाते हैं जिनके गुणों की उन्हें सही पहचान है और जो विश्वसनीय हैं। महिलाओं ने बताया कि बीच में ऐसा समय आया था जब वे बाजार से बीज खरीद कर लाते थे तब कई बार उनकी फसल अनुचित बीज के कारण खराब हो गई थी।

तीसरी विशेषता यह है कि कम भूमि से ही अपनी जरूरत की विभिन्न खाद्य फसलें मिश्रित कृषि पद्धति में अपनाई जाती हैं। अनीता डोमार के पास लगभग ढाई बीघा जमीन है पर एक ही वर्ष के फसल-चक्र में इसमें लगभग 30 फसलें उगा लेती हैं जैसे अनाज, मिलेट, दलहन, तिलहन, मसाले आदि की विविध फसलें। फलों के पेड़ अलग से हैं। पुष्पा ने अपनी हांगड़ी पद्धति का खेत दिखाया जिसमें एक साथ लगभग 12 फसलें बो दी गई थीं व इसे एक खेत से ही अलग-अलग समय में विभिन्न फसल प्राप्त होती रहती हैं। यह सब इस परंपरागत ज्ञान पर आधारित है कि किस फसल के साथ कौन सी फसल उगानी है व किस के बाद क्या उगाना है।

खेती से जुड़ी विभिन्न समस्याओं को सुलझाने के लिए इन गांवों में महिलाएं नियमित मीटिंग करती हैं। आमलीपाड़ा गांव में सरकारी स्तर पर सोलर पंपिंग सेट की व्यवस्था हो सकी और इसके लिए भी महिलाओं ने सामूहिक शक्ति को संजो कर मांग उठाई थी। झीकली गांव में इस प्रयास को और आगे बढ़ाया गया। इसमें आटे की चक्की को चलाने के लिए कनवर्टर मोनिका के घर में वागधारा संस्था ने लगवाया।

इस संस्था के वरिष्ठ सदस्य पी. पटेल ने बताया, “कनवर्टर डी.सी. करेंट को ए.सी. में बदलता है। इसकी सहायता से सोलर ऊर्जा का उपयोग आटा चक्की निशुल्क चलाने के लिए हो रहा है। अब आगे और आटा चक्की, मसाला पीसने की चक्की लगाकर और भी रोजगार सृजन किए जाएंगे।”


वैसे आमलीपाड़ा गांव में महिलाएं गैर मशीनीकृत घरेलू तरीकों से भी विभिन्न अनाजों, दालों, मसाले की फसलों की प्रोसेसिंग कर लेती हैं और ग्रामीण आत्म-निर्भरता को उन्होंने इस रूप में भी बनाए रखा है। वे अपने खेतों की जुताई, थ्रैशिंग, फसल की ढुलाई, खरपतवार हटाने के कामों में भी बैलों का उपयोग आज तक करती आ रही हैं। उनका मानना है कि जिस तरह वे छोटी जोत के किसान हैं तो उनके लिए ट्रैक्टरों व महंगे यंत्रों के लिए कर्ज लेना उचित नहीं है और वे बैलों का सर्वोत्तम उपयोग कर रही हैं।

इन गांवों में हेलमा प्रथा का भी चलन है जिसके अन्तर्गत विभिन्न महिलाएं और परिवार जरूरत पड़ने पर एक दूसरे की सहायता के लिए बिना मजदूरी का श्रमदान करते हैं और गांव के सामूहिक कार्यों के लिए भी श्रमदान करते हैं। झीकली गांव में सिंचाई का प्रमुख स्रोत है सुंदर तालाब। इसमें सीपेज होने लगी तो सिंचाई क्षमता कम होने लगी। तब विभिन्न महिलाओं ने पहले अपनी सामूहिक शक्ति का उपयोग कर पंचायत को मरम्मत कार्य के लिए कहा। फिर जब पंचायत का मरम्मत का कार्य आधा-अधूरा रहा तो महिलाओं ने स्वयं एकत्र होकर मेहनत की व इस कार्य को पूरा कर दिया ताकि सीपेज रुक सके व सिंचाई होती रहे।

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