ट्रंप की टैरिफ धमकियां सिर्फ झटका नहीं, तेज सुधार अपनाने का बड़ा मौका
व्यापारिक साझेदारों के खिलाफ ट्रंप की कठोर टैरिफ नीतियां उसके व्यापार घाटे को कम करने में तो सफल नहीं होंगी, उच्च लागत के कारण घरेलू आयात को जरूर नुकसान पहुंचाएंगी। इसका नुकसान विदेशी निर्यातकों को जरूर होगा क्योंकि उनके निर्यात में कमी आएगी और कमाई घटेगी।

यह वक्त अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप को अंतरराष्ट्रीय अर्थशास्त्र का ककहरा पढ़ाने का नहीं। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जेफरी सैक्स ने अपने एक उद्बोधन में इसे बहुत अच्छी तरह समझाया है। उन्होंने कहा कि ट्रंप को परेशान करने वाला उच्च व्यापार घाटा कम टैरिफ जैसी व्यापार नीतियों के कारण नहीं है। उच्च व्यापार घाटे का सीधा-सा मतलब है कि अमेरिकी अपनी उत्पादन या कमाई करने की क्षमता से ज्यादा खरीदारी पसंद करते हैं। यह ऐसा ही है जैसे दिल खोलकर खरीदारी करना और पैसे देने के समय क्रेडिट कार्ड बढ़ा देना।
अमेरिका का उत्पादन, कमाई, निवेश, बचत और खरीदारी जैसी गतिविधि एक बुनियादी समीकरण से तय होता है, जिसे माइक्रो इकॉनोमिक्स की पाठ्यपुस्तक में ‘मूल समीकरण पहचान’ कहते हैं और इसके मुताबिक व्यापार घाटा बचत-निवेश असंतुलन के बराबर होता है। दूसरे शब्दों में निर्यात आय की तुलना में आयात आय जितनी ज्यादा होती है, वही व्यापार घाटा है और घरेलू संदर्भ में यह बचत की तुलना में खर्च की अधिकता के समान है।
आयात शुल्क दरों में किसी भी बदलाव, रूस या चीन पर लगाए गए किसी भी प्रतिबंध, इजरायल या यूक्रेन को दिए गए किसी भी सैन्य खर्च या सहायता से इस ‘मूल समीकरण पहचान’ पर कोई फर्क नहीं पड़ता। यह उपभोक्ता व्यवहार और निवेशकों की प्राथमिकताओं को दिखाती है। यह शेयर बाजार जैसी व्यावसायिक भावना की अभिव्यक्ति नहीं है। गौर करने वाली बात है कि राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा शुरू किए गए टैरिफ के कहर के बावजूद, अमेरिका का शेयर बाजार ऐतिहासिक ऊंचाई पर बना हुआ है।
उपरोक्त समीकरण पहचान से यही मतलब निकलता है कि व्यापार घाटे की भरपाई के लिए आवश्यक डॉलर की कमी विदेशी निवेश से पूरी की जाए। लेकिन इस प्रवाह की एक कीमत चुकानी पड़ती है। यदि यह प्रवाह ऋण पूंजी के रूप में है, तो यह देश के ऋण को बढ़ाता है। हैरानी नहीं कि अमेरिका का कुल ऋण 37 खरब डॉलर है, जो उसके सकल घरेलू उत्पाद का 125 फीसद है। इस ऋण पर दीर्घकालिक ब्याज के रूप में लगभग 5 फीसद राशि चुकानी पड़ती है। विदेशी पूंजी प्रवाह की व्यवस्था में कठिनाई का मतलब है कि ब्याज दरें लगातार ऊंची बनी रहेंगी। व्यापार घाटे को प्रभावित करने वाला एक अन्य कारक डॉलर की विनिमय दर है। चूंकि दुनिया की किसी भी अन्य मुद्रा को मजबूत करने के गंभीर प्रयास नहीं हो रहे, इसलिए डॉलर की मजबूती बनी रहेगी और व्यापार घाटा भी ऊंचा रहेगा।
लब्बोलुआब यह है कि अमेरिका के व्यापारिक साझेदारों के खिलाफ ट्रंप की कठोर टैरिफ नीतियां उसके व्यापार घाटे को कम करने में तो सफल नहीं ही होंगी, उच्च लागत के कारण घरेलू आयात को जरूर नुकसान पहुंचाएंगी। हां, इसका नुकसान विदेशी निर्यातकों को जरूर होगा क्योंकि उनके निर्यात में कमी आएगी जिसके कारण उनकी कमाई घटेगी। उत्पादन, आयात और निर्यात की मात्रा (कुछ हद तक) और आय मध्यम अवधि में जीडीपी को नुकसान पहुंचाएगी।
टैरिफ विदेशियों के खिलाफ कर नहीं। इसका भुगतान अमेरिका में आयातक कंपनी करती हैं और ये कंपनियां उच्च टैरिफ के कारण आई अतिरिक्त लागत की वसूली ग्राहकों से करती हैं। उच्च टैरिफ के कारण निर्यातकों का मुनाफा कम हो सकता है, उनके निर्यात की मात्रा घट सकती है। अनुमान है कि निर्यातक टैरिफ से बढ़ी लागत का केवल पांचवां हिस्सा वहन करते हैं, जबकि अमेरिकियों को इसका सबसे अधिक खामियाजा भुगतना पड़ेगा। राष्ट्रपति ट्रंप की नीतियां इतनी बार बदलती हैं कि केवल मौजूदा नीति के आधार पर भावी असर को लेकर अंदाजा लगाना मुश्किल है।
परस्पर फायदेमंद व्यापार समझौते पर बातचीत करने की शुरुआती इच्छा दिखाने और राष्ट्रपति ट्रंप और उनकी टीम के साथ दोस्ताना और सद्भावपूर्ण रुख अख्तियार करने के बावजूद, भारत के लिए नतीजे खासे बुरे रहे हैं। अमेरिका को निर्यात किए जाने वाले सभी उत्पाद पर 25 फीसद का टैरिफ और रूस के साथ तेल-हथियार खरीदने के लिए उस पर लगाई जाने वाली पेनाल्टी- यह क्या, कैसी और कितनी होगी, इसके बारे में फिलहाल कोई स्पष्टता नहीं है- भारत की स्थिति को वियतनाम, इंडोनेशिया या मेक्सिको जैसे देशों से भी बदतर बना देती है। इससे जीडीपी की वृद्धि दर में 0.2 से 0.3 फीसद की कमी आएगी और कपड़ा, रत्न एवं आभूषण, इलेक्ट्रॉनिक्स, मोबाइल फोन, ऑटो कंपोनेंट एवं धातु, इस्पात और एल्युमीनियम क्षेत्रों का निर्यात प्रभावित होगा।
भारत ने तीन मामलों में सीमा रेखा खींच दी है। पहला, देश में कृषि और डेयरी बाजार- खासकर मक्का, सोयाबीन और पशु प्रोटीन वाले डेयरी उत्पाद- को नहीं खोला जाएगा। दूसरा, आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों या कृषि उत्पादों को इजाजत नहीं दी जाएगी। और तीसरा, ईंधन के लिए इथेनॉल का आयात नहीं किया जाएगा। इसके अलावा एक और मुद्दा जो पेचीदा साबित हो रहा है, वह है रूस से कच्चे तेल के आयात की आजादी पर भारत का लगातार जोर देना। ऐसा लगता है कि ट्रंप इससे सबसे ज्यादा खफा हैं क्योंकि वह इसे रूस पर लगे प्रतिबंधों को सीधी चुनौती मानते हैं।
भारत को अब विचार करना चाहिए कि ट्रंप के सख्त कदमों पर उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी। यह ट्रंप की अनोखी रणनीति का सबूत है कि वह दूसरे पक्ष को हमेशा प्रतिक्रियावादी मुद्रा में रखते हैं। ज्यादातर व्यापारिक साझेदार या तो बहुत ज्यादा दे जाते हैं (जैसे यूके, ईयू या इंडोनेशिया) या फिर पलटवार करने के लिए दबाव का इस्तेमाल करते हैं (जैसे चीन ने दुर्लभ मृदा खनिजों के निर्यात पर प्रतिबंध लगाकर किया है)। भारत के लिए अमेरिकी बाजार महत्वपूर्ण है क्योंकि यह अकेली बड़ी अर्थव्यवस्था है जिसके साथ भारत का अच्छा-खासा व्यापार अधिशेष है और भारत काफी-कुछ देने की ओर झुक भी रहा था।
इस संकट का उपयोग आर्थिक, प्रशासनिक और अन्य सुधारों में तेजी लाने के लिए किया जाना चाहिए। निश्चित रूप से 1991 जैसा कोई संकट नहीं है जब भारत को अपने विदेशी मुद्रा भंडार को भरने के लिए अल्पकालिक विदेशी ऋण के लिए हाथ फैलाने पड़े थे। ट्रंप के कदमों के झटके का व्यापार रिश्तों में लचीलापन और विविधीकरण लाकर और एकजुट इच्छाशक्ति से मुकाबला किया जा सकता है।
लेकिन हमें चिंताजनक आर्थिक संकेतों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। लगभग शून्य शुद्ध प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, निजी क्षेत्र के निवेश में ठहराव, 30 फीसद बेरोजगारी, कृषि फसलों में कम उत्पादकता (विश्व औसत की तुलना में आधा), जल संकट क्योंकि भूजल स्तर तेजी से नीचे जा रहा है और मुफ्त बिजली के कारण पंपों को ओवरटाइम चलाना, लाभार्थियों पर खर्च का बढ़ता बोझ, जरूरी कौशल (एआई और ऑटोमेशन के इस युग में) और शैक्षणिक संस्थानों से निकलने वाले लोगों के हुनर के बीच बड़ा अंतर। एक और महत्वपूर्ण मामला है- खरीद नीतियों, अस्थिर प्रतिबंधों, वायदा व्यापार पर रोक और कठोर भूमि बाजारों के कारण किसान को होने वाली दिक्कतें।
कृषि कानूनों पर आम सहमति जरूरी है। संसद में पारित श्रम कानूनों को सभी राज्यों में चार संहिताओं के माध्यम से लागू और क्रियान्वित किया जाना चाहिए। अब समय आ गया है कि ट्रंप के इस टैरिफ झटके का उपयोग इन सभी सुधारों को आगे बढ़ाने और अर्थव्यवस्था को तेज और समावेशी बनाने के मौके के रूप में किया जाए।
(डॉ. अजीत रानाडे जाने-माने अर्थशास्त्री हैं। सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस। ये विचार व्यक्तिगत हैं)
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