ट्रंप के टैरिफ दांव की नाकामी से हो गया एक एशियाई देश के दुनिया की आर्थिक शक्ति बनने का रास्ता आसान / आकार पटेल
अमेरिका अब चीन का तीसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है, जो दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के संगठन और यूरोपीय संघ से पीछे है। चीन ने भविष्य की कई तकनीकों में अपनी बढ़त को और तेज़ कर दिया है। ट्रम्प के अमेरिका का शी के चीन पर जो प्रभाव होता था, वह कम हो गया है।

इतिहासकार मैक्स हेस्टिंग्स ने द्वितीय विश्व युद्ध को मुख्य रूप से दो राक्षसी तानाशाहों - एडोल्फ हिटलर की नाजी सेना और जोसेफ स्टालिन की सोवियत सेना के बीच मौत के युद्ध के रूप में वर्णित किया है। इनके अलावा विंस्टन चर्चिल के भाषण और प्रशांत क्षेत्र में जापान के खिलाफ अमेरिकी संघर्ष को एक दिखावे के तौर पर सामने रखा है और यह सच भी है क्योंकि मारे गए लोगों की राष्ट्रीयता से यह बात साफ भी होती है।
हमारे दौर का सबसे बड़ा मुकाबला भी सिर्फ़ दो शक्तियों के बीच ही है: डोनाल्ड ट्रंप का अमेरिका और शी जिनपिंग का चीन। बाकी दुनिया में तो दिखावे का शोरगुल है। अमेरिका और चीन के बीच मुकाबला सैन्य नहीं है, कम से कम अभी तक तो नहीं, लेकिन दांव पर दोनों की ही प्रतिष्ठा है और कई मायनों में तो और कहीं ज़्यादा।
बाहर से इसे पश्चिम और एशिया के बीच दुनिया के आर्थिक पटल पर अपनी धाक जमाने के संघर्ष के रूप में देखा जा सकता है। वैसे तो हमें पश्चिम के खिलाफ़ एक साथी एशियाई शक्ति का साथ देना चाहिए, लेकिन मेरे अनुभव में हम देसी लोग या देश इस मामले में असुरक्षित महससू करते हैं। चलिए इसे यहीं छोड़ देते हैं।
चीन को सिर्फ वक्त चाहिए। 1991 में, जब भारत ने उदारीकरण नाम के नए दौर में प्रवेश किया, तो हम आर्थिक दृष्टि से चीन के बराबर थे। उस समय हमारा औसत उत्पादन चीन के औसत उत्पादन के बराबर था। हालांकि यह सच है कि चीन उससे भी एक दशक पहले से ही आर्थिक सुधार कर रहा था, और इसे हमारे मुकाबले एक लाभ के रूप में देखा जाता है, लेकिन उसने ऐसा उन हालात में किया था जो भारत के मुकाबले काफी अलग थे। उद्योग और कृषि में, भारत के विपरीत चीन दशकों से दुनिया से कटा हुआ था। और हमारे विपरीत, चीनी नेतृत्व ने आम चीनी लोगों को ऐसे कष्ट में डाल दिया था जिससे देश अभी उबर रहा था।
अगले 35 वर्षों में चीन ने हर साल औसतन 9 फीसदी की जीडीपी वृद्धि हासिल की, जो पश्चिम में किसी भी शक्ति द्वारा हासिल की गई सबसे तेज़ आर्थिक प्रगति थी। पिछले 10 वर्षों में चीन की औसत वृद्धि दर 5.8% तक धीमी हो गई है, जो भारत के समान है, लेकिन इसका आधार हमसे पांच गुना बड़ा है।
अगर चीन को बिना किसी बाधा के एक और दशक तक बढ़ने का मौका मिलता है, तो वह दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में अमेरिका को पीछे छोड़ देगा। पर्चेजिंग पॉवर पैरिटी यानी खरीदने की शक्ति समता के मामले में यह पहले ही ऐसा कर चुका है, लेकिन एक दशक में और भी बड़ा हो जाएगा। 150 वर्षों से दुनिया पर अपना दबदबा बनाए रखने वाले दूसरे नंबर पर होना अमेरिका बरदाश्त नहीं कर पाएगा।
जॉन मियर्सहाइमर जैसे पश्चिमी राजनीतिक वैज्ञानिकों का कहना है कि चीन का उदय अनिवार्य रूप से संघर्ष की ओर ले जाएगा, जिसे थ्यूसीडाइड्स ट्रैप कहा जाता है, जो यह सिद्धांत देता है कि जब कोई उभरती हुई शक्ति प्रमुख शक्ति को विस्थापित करने वाली होती है, तो इसका परिणाम युद्ध होता है। इस सिद्धांत में परिणाम हिंसा होती है क्योंकि मौजूदा प्रमुख शक्ति, जोकि अमेरिका है, कभी भी दूसरे स्थान को स्वीकार नहीं करेगा और अपने प्रतिद्वंद्वी को हर संभव तरीके से दबाने की कोशिश करेगा।
कुछ लोगों तर्क देते हैं कि यह शायद पश्चिमी देशों का नज़रिया है और एशियाई ताकतें वैश्विक मामलों में उस तरह से दखल देने में दिलचस्पी नहीं रखतीं, जैसा कि यूरोप और अमेरिका ने पिछली दो शताब्दियों से किया है। उन्हें लगता है कि चीन के उदय से दुनिया भर में अमेरिकी बेसों या आईएमएफ, विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद जैसी संस्थाओं पर उसके कब्ज़े पर कोई ख़तरा नहीं होगा। और इसलिए अमेरिका को इस बात पर विचार करना चाहिए कि चीन के नंबर एक बनने का क्या अर्थ है। लेकिन थ्यूसीडाइड्स ट्रैप की तरह, यह भी महज़ सिद्धांत है और कोई नहीं जानता कि जब चीन अमेरिका को पछाड़ देगा, तो वह क्या करेगा।
पिछले आठ सालों से अमेरिका ने चीन की आर्थिक प्रगति को रोकने और उसमें बाधा डालने की कोशिश की है। इसने चीन की कंपनियों को उन्नत सेमी-कंडक्टर तक पहुंच से वंचित कर दिया है। इसने फेंटेनाइल दवा का बहाना बनाकर चीनी निर्यात पर शुल्क लगाया है, ठीक उसी तरह जैसे उसने 'डंपिंग' का इस्तेमाल किया है। इसने चीन पर उद्योग में अत्यधिक क्षमता निर्माण का आरोप लगाया है, हालांकि इसे आम तौर पर निर्यात-उन्मुख विकास कहा जाता है। और ट्रम्प के दूसरे शासनकाल में अमेरिका ने चीन से पूरी तरह से अलग होने की कोशिश की है, इसके लिए उसने इतने ऊंचे टैरिफ लगाए हैं कि व्यापार असंभव हो जाएगा।
दुर्भाग्य से यह कदम अमेरिका के लिए ही नाकाम साबित हुआ है। शेयर और बॉन्ड बाजारों ने ट्रम्प को साफ-साफ बता दिया कि चीन को अलग-थलग करने का कोई भी विचार अमेरिकी अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाएगा और इसने ट्रम्प को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया।
इस तरह चीन को अब समय मिल गया है। लेकिन कितना समय? मेरा मानना है कि इतना तो मिल ही गया है जितना इसे पूरा करने के लिए यह पर्याप्त है। पहले से ही ट्रम्प प्रशासन का ध्यान व्यापार से हटकर कर कटौती पर चला गया है और इस साल के बाकी समय में उसका पूरा ध्यान इसी पर रहेगा। 2026 में जब अमेरिकी कांग्रेस के मध्यावधि चुनाव होंगे तो कम से कम व्यापार के मामले में ट्रम्प ने पिछले कुछ महीनों में जिस तरह की आपाधापी दिखाई है, वैसी शायद नहीं दिखाएंगे। इससे चीन को और भी समय मिल जाएगा। और व्यापार के मोर्चे पर ट्रम्प के सारे दांव जिस तरह नाकाम हुए हैं, उससे शायद संभावना है कि उनके बाद आने वाला अमेरिका प्रशासन 2028 के बाद उस रास्ते पर नहीं चलेगा।
दरअसल बीते 8 साल में चीन ने व्यापार युद्ध की तैयारी की है। उसने जानबूझ कर रियल एस्टेट (इमारतें आदि बनाने का कारोबार) के डूबते कारोबार से सरकारी सहायता हटा ली है और उन्हें ढह जाने दिया है, ताकि उद्योगों में पूंजी का प्रवाह हो सके। उसने अमेरिका के बाहर दुनिया भर में अपने निर्यात के लिए बाजार बनाने की कोशिश की है और अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में सौदों के माध्यम से अपनी सप्लाई चेन को मजबूत किया है।
अमेरिका अब चीन का तीसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है, जो दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के संगठन और यूरोपीय संघ से पीछे है। और इससे भी आगे बढ़कर, चीन ने भविष्य की कई तकनीकों में अपनी बढ़त को और तेज़ कर दिया है। ट्रम्प के अमेरिका का शी के चीन पर जो प्रभाव होता था, वह कम हो गया है।
अगर हालात ऐसे ही रहे, तो 200 सालों में पहली बार दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति पश्चिमी नहीं बल्कि एशियाई होगी। इसका असर सभी देशों पर पड़ेगा, हालांकि अमेरिका समेत किसी भी देश की सरकार ने अपने नागरिकों को इस बदलाव के लिए फिलहाल तैयार नहीं किया है।
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