भरोसा फिर से जीतने की जरूरत है!
पहलगाम के बाद इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक वर्ग तो कश्मीरियों को निशाना बनाता दिखा ही, लेकिन मीडिया के बाकी हिस्से में भी स्थानीय लोगों की मुश्किलों को बहुत कम जगह मिली या उन्हें नजरअंदाज किया गया।

पहलगाम में आतंकवादी हमले और उसके बाद सुरक्षा बलों की कार्रवाई ने जम्मू-कश्मीर के लोगों को अंदर तक हिलाकर रख दिया है। माहौल में अंदरूनी टूटन भरी एक खामोशी सी तिर गई है और हालात समान्य होने जैसा खासी मशक्कत के बाद हासिल अहसास धराशायी हो गया है। स्थानीय अर्थव्यवस्था पहले से ही दबाव महसूस कर रही है और अब हिंसा, धमकी तथा जैकबूटों (घुटने तक पहने जाने वाले जूते) के साथ दुधारी जिंदगी की डरावनी यादें वापस लौट आई हैं।
बैसरन की वहशियाना हरकत के बाद आम कश्मीरियों के बीच से उभरी विरोध की अभूतपूर्व लहर शायद इसी निष्कर्ष के नतीजे में छठी इंद्री से उपजी होगी। लेकिन मीडिया के नकारात्मक कवरेज की आपाधापी, खासकर कुछ टेलीविजन चैनलों द्वारा स्थानीय लोगों को बदनाम करने की साजिश भरी कोशिशों के बीच आक्रोश की यह सकारात्मक लहर बहुत जल्द शांत हो गई। यह सब तो हुआ ही, सुरक्षा एजेंसियों ने तेजी दिखाकर जैसी व्यापक कार्रवाई की, उसने स्थानीय लोगों को वास्तव में निराश कर दिया।
पहलगाम हमले के तत्काल बाद पुलिस ने आतंकवादियों के ‘ओवर ग्राउंड वर्कर’ या ‘हमदर्द’ बताते हुए दो हजार से ज्यादा स्थानीय लोगों को गिरफ्तार कर लिया। कुछ लोगों को पब्लिक सेफ्टी एक्ट (पीएसए) के तहत हिरासत में लिया गया, जिसमें बिना किसी मुकदमे या औपचारिक आरोप के हिरासत में रखने का प्रावधान है। आतंकवादियों के कई पारिवारिक घरों को विस्फोटक लगाकर उड़ा दिया गया और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की उन महिलाओं को घाटी से निकाल दिया गया, जिन्होंने कश्मीरी पुरुषों से शादी की थी। देश के विभिन्न हिस्सों में आम कश्मीरियों को ‘जवाबी’ हिंसा झेलनी पड़ी, जिससे उनके अंदर अलगाव की भावना और गहरा गई।
पहलगाम के बाद इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक वर्ग तो कश्मीरियों को निशाना बनाता दिखा ही, लेकिन मीडिया के बाकी हिस्से में भी स्थानीय लोगों की मुश्किलों को बहुत कम जगह मिली या उन्हें नजरअंदाज किया गया। कश्मीरियों की दुर्दशा के प्रति मीडिया की बेरुखी की चर्चा करते हुए स्थानीय छात्र ऐजाज़ वानी ने ‘संडे नवजीवन’ से कहा: “भारत और पाकिस्तान के बीच हाल ही में बढ़ी शत्रुता के दौरान भी, जम्मू-कश्मीर के लोगों को अपनों को खोने, निजी संपत्ति नष्ट होने और व्यापार के भारी नुकसान के रूप में इसका खामियाजा भुगतना पड़ा है... सीमा पार से हुई गोलाबारी में लगभग सत्ताईस लोग मारे गए (अकेले पुंछ में ही बीस) और पचास से अधिक गंभीर रूप से घायल हो गए। अनेक घर और अन्य संपत्तियां नष्ट हो गईं, फिर भी मीडिया ने इसकी ठीक से रिपोर्टिंग नहीं की। यहां तक कि प्रधानमंत्री ने भी ‘युद्धविराम’ की घोषणा के बाद राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में जम्मू-कश्मीर के लोगों के इन बलिदानों का जिक्र तक करना जरूरी नहीं समझा।”
सीमावर्ती क्षेत्रों के निवासियों की दुश्वारियों को पहचानने-समझने की जरूरत पर राजनीति विज्ञानी और टिप्पणीकार एलोरा पुरी ने कहा: “सरकार के लिए केन्द्र और राज्य- दोनों स्तरों पर तात्कालिक प्राथमिकता घाटी से जम्मू तक नियंत्रण रेखा (एलओसी) और यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय सीमा (आईबी) पर हालात को संबोधित करना होना चाहिए। सबसे पहले और सबसे अहम बात, सरकार को यह स्वीकार करना चाहिए कि लोगों ने क्या-क्या झेला है।
पुरी ने कहा, “यह न सिर्फ मानवीय दृष्टिकोण से, बल्कि रणनीतिक कारणों से भी जरूरी है। भारत को न सिर्फ स्वीकारना बल्कि इस बात को उजागर भी करना चाहिए कि उसके लोगों ने कष्ट झेले हैं। रिश्तों की डोर फिर से बांधने और भरोसा बहाल करने के लिए दीर्घकालिक प्रक्रियाएं जारी रहनी चाहिए, लेकिन जम्मू-कश्मीर के लोगों की पीड़ा का स्वीकार करना और उनकी फौरी जरूरतों को पूरा करना सर्वोच्च प्राथमिकता पर होना चाहिए।"
वरिष्ठ पत्रकार और लेखिका नईमा अहमद महजूर का तर्क है कि अधिकारियों द्वारा कश्मीरियों के प्रति अपनाए गए सख्त रवैये से उनमें अलगाव की भावना और गहरी हो गई है। ‘संडे नवजीवन’ से बात करते हुए उन्होंने कहा: “आतंकवाद जम्मू-कश्मीर तक ही सीमित नहीं है; यह एक वैश्विक घटना है। क्या हमने अन्य देशों में (अपने ही लोगों के खिलाफ) इसी तरह के कठोर उपाय देखे हैं? सैन्यवादी नीति ने उन्हें पहले ही अलग-थलग कर दिया है, जो पहलगाम नरसंहार के विरोध में बड़ी तादाद में बाहर आए थे। कश्मीरी अपनी वफादारी दिखाने के लिए भला और कर भी क्या सकते हैं?”
उन्होंने कहा कि खुफिया चूक की जांच करने के बजाय सरकार ने आम नागरिकों को निशाना बनाना जरूरी समझा। उन्होंने पूछा, “आप (स्थानीय लोगों पर) छापे डालते और तलाशी लेते हैं, आप सैकड़ों निर्दोष कश्मीरी युवकों को गिरफ्तार करते हैं। आप संदेश क्या दे रहे हैं?” सुरक्षा चूक के आरोपों के अलावा, आलोचकों ने हमलावरों को पकड़ने में विफलता पर भी चिंता जताई है।
नाम न बताने की शर्त पर एक शिक्षाविद ने कहा: “इस तरह के हमले रोक पाने में विफलता को कोई भी समझ सकता है और स्वीकार भी कर सकता है। लेकिन गंभीर बात यह है कि हम अब तक आतंकवादियों को नहीं पकड़ पाए। हमारी धरती पर आतंकवाद को बढ़ावा देने में पाकिस्तान का हाथ होना साबित करने के लिए उनका पकड़ा जाना बहुत जरूरी है। 2008 के मुंबई हमलों में उनकी संलिप्तता साबित करने में हम सिर्फ इसलिए सफल हुए, क्योंकि हमने (अजमल) कसाब को न सिर्फ पकड़ा, उसे अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने पेश किया और यह सुनिश्चित किया कि उसे देश के कानून का सामना करना पड़े। लेकिन पहलगाम के हमलावर कहां गए? क्या वे जंगल में गायब हो गए?”
गौरतलब है कि पहलगाम और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) के बीच निकटतम सीमा बिंदु पुंछ में है, जो सड़क मार्ग से लगभग 175 किलोमीटर दूर है। घने जंगलों से पैदल यात्रा करने पर, पहलगाम से पुंछ तक की यात्रा में, अनुमानतः एक सप्ताह से अधिक समय लग सकता है। आलोचक पूछ रहे हैं कि क्या नागरिक आबादी में संदिग्ध ‘सहानुभूति रखने वालों’ को निशाना बनाने पर ध्यान केन्द्रित करने से आतंकवादियों की तलाश पर ग्रहण लग गया है।
बढ़ते तनाव के बीच विश्लेषकों का मानना है कि दमन नहीं, बल्कि सुलह ही आगे बढ़ने का रास्ता है। कश्मीर विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग के पूर्व प्रमुख प्रो. नूर अहमद बाबा ‘भावनात्मक एकीकरण’ वाली नीति अपनाने की वकालत करते हैं। बाबा ने ‘संडे नवजीवन’ से कहा, “भारत सरकार की असल चुनौती जम्मू-कश्मीर के लोगों का राष्ट्र की मुख्यधारा में भावनात्मक एकीकरण करना है। यह एकीकरण सभी स्तरों पर होना चाहिए। ऐसी कोई भी कार्रवाई टाली जानी चाहिए, जिसमें लोगों को इस प्रक्रिया से अलग-थलग करने का जोखिम हो। सरकार को आतंकवाद के खिलाफ सख्त कार्रवाई करते हुए आम लोगों के साथ सहानुभूति और समझदारी से पेश आना चाहिए ताकि उनका दिल जीता जा सके।”
आम राय है कि सरकार ने पहलगाम कांड के बाद हुए सार्वजनिक विरोध प्रदर्शनों के दौरान सामने आई सद्भावना को आगे बढ़ाने का अवसर खो दिया। महजूर चेतावनी के स्वर में कहते हैं, “यह कश्मीर के घाव भरने और एकजुटता के इजहार का बड़ा अवसर था... लेकिन चुनिंदा दंडात्मक कार्रवाइयों ने भविष्य को लेकर निराशा की भावना को जन्म दे दिया है। इस नजरिए के दीर्घकालिक नतीजे होंगे।”
सवाल उठता है: क्या यह अलगाव जम्मू-कश्मीर में राष्ट्र-विरोधी भावनाओं को उभरने का मौका देगा? महजूर की आशंका है कि हालिया कार्रवाई ने ‘निष्क्रिय पड़े’ इलाकों को फिर से सक्रिय न कर दिया हो!
पाकिस्तान के प्रति सहानुभूति रखने वाले लोग भी अब पाकिस्तानी सेना के दमनकारी रवैये को समझने लगे हैं, खास तौर पर पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान को पद से हटाकर उन्हें जेल में डाले जाने और अपने ही लोगों के प्रति पाकिस्तानी सेना की अत्याचारी नीतियों के बाद। महजूर का मानना है कि इमरान खान कश्मीरी युवाओं के बीच लोकप्रिय हैं और वे पाकिस्तानी सेना की अत्याचारी नीतियों तथा अनुच्छेद 370 रद्द करने पर पाकिस्तान के बदलते रुख से तंग आ चुके हैं। “वे यह सोचकर दूर जाने लगे थे कि उन्हें आतंकवाद के दौरान ‘तोप के चारे’ के रूप में इस्तेमाल किया गया था," लेकिन दोनों देशों के बीच इस सबसे हालिया शत्रुतापूर्ण आदान-प्रदान ने “पिछले कुछ वर्षों में निष्क्रिय पड़े पाकिस्तान समर्थक गुट की उम्मीदों को फिर से जगा दिया है।"
अन्य विश्लेषकों का मानना है कि भारत को विश्वास बहाली के उपाय (सीबीएम) तत्काल शुरू करने की जरूरत है, जिसमें गहरे पैठी शिकायतों को दूर करने और अलगाव का मुकाबला करने के लिए एक सहानुभूतिपूर्ण नजरिये के साथ सैन्य नीतियों पर संवाद, विकास और सुलह को प्राथमिकता देना शामिल हो। एक अन्य विश्लेषक ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, “सीबीएम में बंदियों की रिहाई, कठोर कानूनों को निरस्त करना (विशेष रूप से 2019 के पुनर्गठन अधिनियम के माध्यम से पेश किए गए) पीड़ितों के लिए मुआवजा, हाल ही में नुकसान झेलने वालों का पुनर्वास और बढ़ती बेरोजगारी दूर करने वाले कदम शामिल हो सकते हैं।"
दरअसल, जो बात अधर में लटकी है, वह मानवीय दृष्टिकोण से सिर्फ कश्मीरियों के हित ही नहीं हैं, बल्कि भारत के व्यापक रणनीतिक हित, उसकी राष्ट्रीय सुरक्षा और एकता भी हैं।
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