सिविल सेवा को भगवा रंग में रंगने की कोशिश, प्रशिक्षण के दिनों से ही अपने मुताबिक ढालने की तैयारी!

अब प्रयास यह है कि अधिकारियों को प्रशिक्षण के दिनों से अपने मुताबिक ढाल दिया जाए जिससे वे पार्टी के ही हितों को पूरा करते रहें। यह खुद प्रधानमंत्री की ओर से दिए गए संकेत से भी साफ हो गया।

फोटोः सोशल मीडिया
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अवय शुक्ला

हाल ही में एक वरिष्ठ आईएस अधिकारी और एक रिटायर्ड आईएस अधिकारी के बीच गैंगस्टर-नेता अतीक अहमद की हत्या के मामले में वाट्सएप पर लंबी बातचीत हुई। उनकी यह बातचीत मेरे हाथ लग गई और उससे पढ़ने से मेरे मन में कई बातें उठीं। यहां सुविधा के लिए उस कार्यरत सीनियर आईएएस अधिकारी को ‘क’ कहकर बुलाएंगे।

वैसे तो ‘क’ पीड़ित कार्ड खेलने में माहिर हैं और इस मामले में वह प्रधानमंत्री को भी मात दे देते हैं लेकिन उन्होंने इस हत्या को पूरी तरह वाजिब ठहराया। उनका तर्क था कि जब सिस्टम विफल हो जाए तो वैसे हालात में लोगों का कानून अपने हाथ में ले लेने में कोई गलती नहीं। उनका साफ मानना है कि चूंकि आईएएस और आईपीएस विफल हो गए हैं, यह ‘केवल योगी के लोग और उनकी बंदूकें’ हैं जो आम आदमी की सुरक्षा सुनिश्चित कर सकती हैं। ये विचार उस अधिकारी के हैं जिसका काम कानून की रक्षा करना है, जिसने संविधान की रक्षा की शपथ ली है। आज वह नृशंस हत्या की वकालत कर रहा है और सेवानिवृत्त सीनियर आईएएस अधिकारी की तमाम तर्क भरी बातों का उस पर कोई असर नहीं। और तो और, उसने शेखी बघारते हुए अपनी राय को एक वाट्सएप ग्रुप में डालकर वहां भी उसका हर तरह से बचाव किया।

दूसरा विचलित करने वाला उदाहरण एक अन्य सेवारत आईएएस अधिकारी के लेख से मिलता है। यह अधिकारी लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी, मसूरी के निदेशक हैं और जाहिर तौर पर वह गुजरात कैडर के आईएएस अधिकारी हैं। यह सज्जन लिखते हैं कि 2014 तक आईएएस का कोई ‘राष्ट्रीय लोकाचार’ (इसका मतलब जो भी हो) नहीं था और मोदी से पहले की सरकारें अपने ‘औपनिवेशिक सोच’ से बाहर निकल नहीं पाई थीं। आजादी के 75वें साल में प्रधानमंत्री के संबोधन के साथ ‘राष्ट्रीय लोकाचार’ से निर्देशित सिविल सेवा का दौर शुरू हुआ जिसमें मोदी ने राष्ट्र की दृष्टि की बात की…।’ इस लेख में इसी तरह की तमाम ‍बकवास बातें हैं। लेकिन अगर इसका निचोड़ निकालें तो वही बात आती है जो कंगना रनौत-अमिताभ कांत जैसे लोग कह रहे हैं- आईएएस 2022 तक औपनिवेशिक सेवा जैसी ही बनी रही और इसके अधिकारियों का आम लोगों से कोई जुड़ाव नहीं रहा और मोदी के आने के बाद ही इसने प्रासंगिकता और देशभक्ति के लोकाचार प्राप्त किए। कोई भी इस बकवास को खारिज कर सकता था क्योंकि आजकल इस तरह की बातें तो लोग हर रोज सुन-पढ़ रहे हैं। लेकिन इस मामले को नजरअंदाज करना मुश्किल है क्योंकि इस बार ऐसी बात उस व्यक्ति ने की है जो ऐसे संस्थान का प्रमुख है जो हमारे सभी वरिष्ठ सिविल सेवकों को प्रशिक्षित करता है, उनके प्रशिक्षण के लिए पाठ्यक्रम का मसौदा तैयार करता है और इस तरह शासन-प्रशासन की दिशा तय करने वालों पर अपनी पहली छाप छोड़ता है। ‘गॉडफादर’ के लगातार संरक्षण के साथ इस व्यक्ति की आईएएस की मूल, तटस्थ, स्वतंत्र, धर्मनिरपेक्ष और अराजनीतिक प्रकृति को कमजोर करने की उसकी क्षमता असीमित है।


नौकरशाही अब जिस खतरे का सामना कर रही है, उसे कम करके नहीं आंका जा सकता। यह केवल ‘असुविधाजनक’ अधिकारियों का तबादला और वफादार को पुरस्कृत करने से कहीं ज्यादा है और 1950 से चले आ रहे सिद्धांतों में मूलभूत बदलाव का है। अब प्रयास यह है कि अधिकारियों को प्रशिक्षण के दिनों से अपने मुताबिक ढाल दिया जाए जिससे वे पार्टी के ही हितों को पूरा करते रहें। यह खुद प्रधानमंत्री की ओर से दिए गए संकेत से भी साफ हो गया जब उन्होंने आईएएस अधिकारियों को राजनीतिक दलों द्वारा किए जा रहे खर्च पर भी नजर रखने को कहा गया जो उनका काम नहीं।

जो बात मुझे चिंतित करती है, वह केवल इन दो लोगों का विकृत मनोविज्ञान और बयान नहीं बल्कि यह है कि इन दोनों अधिकारियों की भर्ती और ट्रेनिंग उस अपेक्षाकृत उदार लोकतांत्रिक दौर में हुई जब आम तौर पर संवैधानिक मूल्यों का सम्मान किया जाता था और फिर उन्होंने सेवाएं भी उसी माहौल में दीं। उसके बाद भी इस सरकार ने महज चंद सालों के भीतर ही ऐसा माहौल बना दिया कि आईएएस अधिकारी नए बहुसंख्यकवादी, असहिष्णु और सत्तावादी नैरेटिव के सामने घुटने टेकने और उन्हें गले लगाने में लगे हैं जो आज शासन की भाषा बन गई है। जब सीनियर लोगों का यह हाल है तो उन लोगों से भला क्या उम्मीद की जा सकती है जो आज सिविल सेवाओं में शामिल हो रहे हैं, और ऊपर जिन दो अधिकारियों का जिक्र किया गया, उन जैसे लोगों की देखरेख में तैयार किए जा रहे हैं? क्या ये नए लोग सरदार पटेल के उस नजरिये को कायम रखने में कामयाब होंगे जिसके तहत उन्होंने अखिल भारतीय सेवाओं की एक अराजनीतिक, संघीय, स्वतंत्र एजेंसी के रूप में कल्पना की थी जो स्वतंत्र होकर अपने मन की बात कह सके? या फिर वे ऐसी सत्ताधारी पार्टी के ‘सिपाही’ बन जाएंगे जिसने अपनी विचारधारा के अनुरूप संविधान को बदलने की अपनी इच्छा को कभी छिपाया नहीं? क्या भाजपा/आरएसएस के ये ‘कम्प्लायंट मैनेजर’ (द वायर के एक लेख में एम.जी. देवशयम द्वारा गढ़ा गया उपयुक्त शब्द) रक्षा बलों में अग्निवीरों के रूप में शामिल होंगे?

पटेल की दृष्टि इतिहास में समाती जा रही है और मुझे लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब वह पूरी तरह गायब हो जाएगी। मैं व्यक्तिगत और तमाम वाट्सएप समूहों के जरिये सेवारत और रिटायर्ड- दोनों तरह के सहयोगियों से संपर्क में हूं और उनके व्यवहार और उदासीनता से मुझे चिंता होती है: ज्यादातर लोग चुप रहना पसंद करते हैं, समय पर वेतन-पेंशन पाकर संतुष्ट रहते हैं, खुद को मूर्खतापूर्ण कार्यों के लिए उपलब्ध करा देते हैं, जैसे उन्हें अपने आसपास हो रहे बदलावों से कोई मतलब ही न हो। इनमें तमाम ‘गुप्त भक्त’ भी हैं जो फर्जी अमृतकाल के नए नैरेटिव के लिए सहानुभूति रखते हैं लेकिन खुले तौर पर ऐसा कहने का साहस नहीं जुटा पाते। लेकिन उनमें वैसे लोगों की तादाद तेजी से बढ़ती जा रही है जो समाज और सरकार की क्रूरता, भीड़ न्याय, अलग-थलग करने की असहिष्णुता, किसी भी असंतोष को खत्म करने के लिए पुलिस और नियामक एजेंसियों के उपयोग, बुनियादी आजादी के पर कतरने के ऐलानिया समर्थक हैं। मैं कितना भी सिर खपा लूं, चरित्र में इस गिरावट की कोई वाजिब वजह समझ में नहीं आती, सिवाय इसके कि क्या आंबेडकर ने सही ही कहा था कि भारत में लोकतंत्र जमीन पर मिट्टी की पतली ऊपरी परत मात्र है जिसे आसानी से हटाया जा सकता है? शायद अल्पसंख्यकों के लिए नफरत और लोकतंत्र तथा धर्मनिरपेक्षता की मृत्यु कामना हमेशा से हमारे चरित्र में छिपी थी और हमारे पूर्वजों द्वारा उपलब्ध कराई गई उस पतली सी परत से छिपी हुई थी जिसे अब शैतानी हवा ने उड़ा दिया है।


ये लोक सेवाएं ही हैं जिन्होंने इस देश को 75 सालों तक तमाम गलतियों, युद्धों, दंगों, सूखे, अकालों, सरकारों के बदलाव, आपदाओं, संस्थागत होते भ्रष्टाचार के बावजूद एकजुट रखा है। लेकिन अब ये सेवाएं अपने सेवारत और रिटायर्ड कर्मचारियों के पूर्वाग्रहों, अदूरदर्शिता और चाटुकारिता से घिर गई हैं। क्या यह सब इन सेवाओं को सरदार पटेल के उन शब्दों को याद दिलाएंगे कि आखिर क्यों वह आईएएस के इस्पाती ढांचे पर जोर देते थे:

‘इस प्रशासनिक प्रणाली का कोई विकल्प नहीं है... संघ जाता रहेगा और भारत भी अखंड नहीं रह पाएगा अगर आपके पास एक ऐसी अच्छी अखिल भारतीय सेवा नहीं हो जिसे अपने मन की बात कहने की आजादी हो, जिसमें इस बात को लेकर सुरक्षा की भावना हो कि वह अपने काम में डटे रह सकता है... अगर आप इस रास्ते को नहीं अपनाते हैं, तो मौजूदा संविधान को भी न मानें... उन्हें हटा दें और फिर मुझे पूरे देश में अराजकता की तस्वीर के अलावा कुछ नहीं दिखता।’

अफसोस की बात है कि नए भारत में सरदार पटेल के लिए कोई जगह नहीं है। यहां केवल उन ‘कर्मयोगियों’ के लिए जगह है जो ‘मुरली बजाने वाले’ के नक्शेकदम पर चलें। सरदार खुद एक मूक मूर्ति बनकर रह गए हैं।

अभय शुक्ला रिटायर्ड आईएएस अधिकारी हैं।

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