मुसलमानों को वोट के लिए लुभाने, बांटने और ‘उनकी हैसियत’ दिखाने की कोशिश, ऐसे में वे करें तो क्या?

बीजेपी दोहरा खेल खेल रही है। वह वोट के लिए मुसलमानों को लुभाने, उन्हें बांटने का प्रयास कर रही है। साथ ही उन्हें ‘उनकी हैसियत’ दिखाने की कोशिश भी कर रही है। ऐसे में, इस वर्ग के पास रास्ता क्या है?

प्रतीकात्मक तस्वीर
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नासिरुद्दीन

मुसलमान भले ही राजनीति की मुख्यधारा में अपनी हिस्सेदारी नहीं पा रहे हों और केन्द्र-राज्य सरकारों में उनकी भागीदारी कम-से-कमतर होती जा रही हो लेकिन वे राजनीति के केन्द्र में हैं। हालांकि, फायदा कोई और उठा रहा। मुसलमानों को केन्द्र में रखने का मतलब, मुसलमान हित नहीं है।

असम, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश या तेलंगाना- मुसलमानों को बिना निशाने पर लिए, बिना उन्हें दुश्मन बनाए, बिना उन पर हमले किए, बिना खौफ के साये में डाले इन राज्यों की राजनीति नहीं चल रही। इनमें से अधिकतर जगह सरकारों की जबान से निकली कई कार्रवाइयां मुसलमानों को ही निशाना बना रही हैं। ये कार्रवाइयां उस समूह को दिखाने के लिए हैं जो ‘हिन्दू वोट बैंक’ के रूप में मत-बहुमत का बड़ा जरिया बन चुका है। इस ‘हिन्दू वोट बैंक’ के बड़े हिस्से को यही संतोष है कि ‘उनकी सरकारें’ मुसलमानों को ‘उनकी असली जगह’ दिखा रही हैं।

मुसलमानों के खिलाफ नफरती बोल के साथ उनके धार्मिक स्थलों पर हमले हो रहे हैं; गाय के नाम पर रक्षा दल चलाने वाले उन्हें जिंदा जला दे रहे; किसी-न-किसी बहाने उन पर बुलडोजर चल रहे; मुसलमान-जैसे नाम वाले अपराधियों से भी ऐसे निपटा जा रहा, जैसे वे मुसलमानों के प्रतिनिधि हों; सरेआम मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार का ऐलान हो रहा है। साथ ही, मुसलमान वोट तक पहुंचने, नए जनाधार की तलाश की कोशिश भी हो रही है। कभी लगता है, सरकारों को मुसलमानों की खास चिंता है, दूसरी तरफ उनके खिलाफ चल रहे अभियानों को कानूनी जामा पहनाने का काम हो रहा है।

ऐसे में वे करें तो क्या?

 यहां हम कुछ ऐसी बातों का जिक्र करेंगे जो मुसलमानों के लिए और उनके साथ हो रही हैं।

 एकः कुछ दिनों से पसमांदा शब्द ज्यादा चर्चा में है। पसमांदा, यानी वे जो सामाजिक तौर पर बेहद पिछड़े हैं या उनके बराबर की हिन्दू जातियां दलित हैं। आम तौर पर राजनीति और समाज के अन्य क्षेत्र में बेहतर भागीदारी से वंचित मुसलमानों के इस समूह को बीजेपी और उसकी सरकारों ने अपनी तरफ खींचने की भरपूर कोशिश की है। इसकी एक झलक यूपी में देखने को मिलती है। यहां सिर्फ एक मुसलमान मंत्री हैं। वह पसमांदा समाज से आते हैं।

दोः प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2022 में हैदराबाद में आयोजित बीजेपी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में कार्यकर्ताओं से पसमांदा मुस्लिम समाज को ‘स्नेह’ और ‘सम्मान’ देने की अपील की। बीजेपी की पहल से इन्हें राजनीतिक रूप से पहचान पाने में कामयाबी मिल सकती है।

 तीनः इसे ही ध्यान में रखते हुए केन्द्र ने पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालचन्द्रन के नेतृत्व में एक तीन सदस्यीय आयोग बनाया जिसे रिपोर्ट देनी है कि धर्म परिवर्तन के बाद मुसलमान या ईसाई बने दलितों को अनुसूचित जाति के दायरे में आरक्षण मिल सकता है या नहीं। अभी तक मुसलमानों और ईसाइयों को दलित के रूप में आरक्षण नहीं मिलता। इसका असर पसमांदा मुसलमानों पर पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट में पसमांदा मुसलमानों को दलित रूप में आरक्षण के मुद्दे पर एक याचिका दायर है। हालांकि, इसके जवाब में सरकार की नीयत से ऐसा लगता है कि वह पसमांदा मुसलमानों को दलित आरक्षण देने के हक में नहीं है।

तब सवाल उठता है कि पसमांदा तक पहुंच बनाने के पीछे की राजनीति क्या सिर्फ वोट तक सीमित है? यह मुसलमानों को दो विपरीत खेमों में बांटने की कोशिश तो नहीं?

 चारः सितंबर, 2022 में संघ प्रमुख मोहन भागवत की मुसलमानों में बुद्धिजीवी माने जाने वाले तबके के एक हिस्से से हुई मुलाकात में कई मुद्दों पर चर्चा हुई थी। इसमें सांप्रदायिक सद्भाव और अंतरधार्मिक संबंध बेहतर करना भी शामिल था। इसके बाद भी मुस्लिम बुद्धिजीवी तबके के बीच बैठकों  की खबरें हैं। बैठकों के कुछ दिनों बाद ही बुद्धिजीवियों के इस तबके ने भागवत को चिट्ठी लिख निराशा जाहिर की कि मुसलमानों के खिलाफ नफरती बोल, उनके सफाये के आह्वान पर संघ चुप है। इसमें इस बात पर गुस्सा भी था कि संघ मुसलमान-विरोधी अभियान रोकने के लिए हस्तक्षेप नहीं कर रहा।

पांचः प्रधानमंत्री के रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ की पुस्तक उर्दू में आ रही है। ‘वजीर-ए-आजम आली जनाब नरेन्द्र मोदी के मन की बात उर्दू के साथ’ की डेढ़ लाख कॉपियां छपने की खबर है। माना जा रहा है कि यह बीजेपी की ओर से मुसलमानों तक प्रधानमंत्री के विचार पहुंचाने की कोशिश है। खास तौर पर यह उन इलाकों में बांटी जाएगी जहां मुसलमान वोटर ज्यादा हैं और जिन सीटों पर बीजेपी पिछड़ गई थी।

 छहः मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यूपी नगर निकाय चुनावों में पहली चुनावी सभा सहारनपुर में की। यहां मुसलमानों की बड़ी तादाद है। बीजेपी ने पहली बार यहां 14 वार्डों में मुसलमान उम्मीदवार उतारे हैं। मुख्यमंत्री ने अपने भाषण में कहा, नो कर्फ्यू, नो दंगा, यूपी में सब चंगा।


एक तरफ यह सब, दूसरी तरफ ...

वह सब हो रहा है जो मुसलमानों की रोजमर्रा की जिंदगी पर असर डाल रहा है।

 एकः अतीक अहमद और उसके भाई की सरेआम टीवी कैमरे के सामने हुई हत्या पर मुसलमानों को कैसी प्रतिक्रिया देनी चाहिए? राज्य को लगा था कि मुसलमान सड़कों पर निकल आएंगे इसीलिए पूरे यूपी में धारा 144 लगा दी गई। मगर कहीं से विरोध प्रदर्शन की खबर नहीं आई। क्यों? क्योंकि यूपी के मुसलमान अतीक को अपना नुमाइंदा नहीं मानते थे, मगर उसके बेटे की एनकाउंटर में मौत और फिर भाई के साथ अतीक की हत्या से बेचैन जरूर थे। इसका सबब समझना जरूरी है। उन्हें अतीक से कोई लगाव नहीं लेकिन वे समझना चाहते हैं कि पहले इनकाउंटर और फिर राम का नाम लेकर जिस तरह हत्याएं हुईं, कहीं इस वजह से तो नहीं कि ये किसी खास धर्म को मानने वाले थे? कहीं इस वजह से तो नहीं कि मुसलमानों को उनकी ‘हैसियत’ दिखानी है? बेचैनी इस वजह से है कि न्याय कानून के जरिये न होकर, सड़कों पर हो रहा है। इसीलिए जो प्रतिक्रिया आई, वह माफिया का तमगा वाले अतीक के लिए है, यह समझना मुसलमानों की मानसिकता को न समझने की भूल होगी।

दोः राजस्थान के भरतपुर के रहने वाले दो युवकों- नासिर और जुनैद की हरियाणा के लोहारू में जलाकर हत्या कर दी गई। आरोप है कि इसमें बजरंग दल और गाय की रक्षा करने के नाम पर बने समूह का हाथ है। पुलिस तफ्तीश दो राज्यों के बीच फंसी है। हरियाणा में भाजपा और राजस्थान में कांग्रेस की सरकारें हैं। 

हालांकि, बड़ा तबका सड़क के इस ‘इंसाफ’ से खुश है। इसे जायज मानता है। यह हिंसक समाज की निशानी है। जब हिंसा खुलेआम जायज ठहराई जाने लगे और खुशी की वजह बने तो समझ लेना चाहिए कि बतौर समाज हम बर्बर होने की तरफ तेजी से बढ़ रहे हैं। इस वक्त हिंसा को जायज ठहराने की एक बड़ी वजह धर्म है, यानी हिंसा किस धर्म वाले के साथ हो रही है, इससे तय होगा कि वह हिंसा है या इंसाफ।

यह भी ध्यान रहे, नफरती हिंसा के शिकार ज्यादातर लोग पसमांदा और गरीब तबके के हैं।

तीनः बात दिल्ली की है। दो महिलाएं और एक पुरुष स्थानीय साप्ताहिक बाजार गए। लौटने लगे तो उन्हें लगा कि ई-रिक्शा कर लें। दो खाली ई-रिक्शा आए और रुक कर चले गए। एक महिला ने पूछा कि ये तो खाली थे, इन पर क्यों नहीं गए? पुरुष ने जवाब दिया कि ये मोहम्मडन के थे, इन पर क्यों बैठें? अभी दूसरा  ई-रिक्शा आएगा तो उस पर चलेंगे।

चारः एक साहब ने कैब बुक की। कैब वाला आया तो उन्हें धन्यवाद देने लगा। उन्होंने पूछा- धन्यवाद क्यों दे रहे हैं?उसने कहा कि काफी देर से सवारी का इंतजार कर रहा हूं। बुकिंग आती है और कैंसिल हो जाती है। आपने कैंसिल नहीं किया। वह टैक्सी वाला मुसलमान था।

पांचः बकरे का गोश्त खाने वाले हिन्दू आमतौर पर झटका और हलाल नहीं देखते। ज्यादातर गोश्त बेचने वाले मुसलमान हैं और वे हलाल ही करते हैं। पिछले कुछ दिनों से झटका मीट का काफी प्रचार किया जा रहा। एक साहब बताते हैं कि अचानक उनके अपार्टमेंट के आसपास झटका मीट का कारोबार शुरू हो गया है।

छहः लखनऊ का अमौसी एयरपोर्ट। एक बच्चा अपने दादा-दादी के साथ खेल रहा है। क्या खेल रहा है, पता नहीं। लेकिन खेल में उसकी आवाज आती है- चाइना या पाकिस्तान? वह दो-तीन बार पूछता है।

दादी बोलती हैं, हमारे लिए तो दोनों ही खराब हैं। लेकिन पाकिस्तान से अच्छा चाइना है। बच्चा पूछता है, क्यों? दादी जवाब देती हैं, पाकिस्तान में मुसलमान हैं। मुसलमानों से बचकर रहना चाहिए। बच्चा फिर पूछता है, क्यों? दादी का जवाब होता है, मुसलमान अच्छे नहीं होते। इस बीच दो सीट दूर बैठे दादा टोकते हैं, यहां यह सब नहीं बोल। लखनऊ पूरा मुस्लिम एरिया है। दादी सर हिलाती हैं। बच्चा कभी इधर, कभी उधर देखता है। फिर, खेल में लग जाता है।

नासिरूद्दीन वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं।

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