ट्रंप के डर से होगी किसान हितों की लिंचिंग!
पहले ही किसान फसल के वाजिब दाम से वंचित रहता है। अगर अमेरिका जैसे बड़े देश के साथ कृषि व्यापार खुल गया, तो भारत का किसान दोहरी मार झेलेगा। उसे अपनी मेहनत का दाम मिलने की रही सही उम्मीद भी खत्म हो जाएगी।

नरेंद्र मोदी राज में किसान की यही नियति बन गई है। एक मुसीबत से जान छूटी, तो दूसरी तैयार। ऐतिहासिक किसान आंदोलन ने तीन किसान विरोधी कानूनों को हराया। इधर किसान एमएसपी हासिल करने के लिए लंबे संघर्ष की तैयारी में जुटे लेकिन उधर सरकार इन्हीं कानूनों को पिछले दरवाजे से लाने के लिए नेशनल फ्रेमवर्क ऑन एग्रीकल्चर मार्केटिंग का मसौदा लेकर खड़ी हो गई। किसान संगठनों के पुरजोर विरोध के चलते इस पर ब्रेक लगा।
इतने में नई मुसीबत आ खड़ी हुई। अब भारत सरकार अमेरिका के साथ एक बड़ा व्यापार समझौता करने जा रही है। इसकी गाज भारत के किसान पर पड़ेगी। अगर आने वाले कुछ महीनों में देश के किसान एकजुट होकर प्रतिरोध नहीं करते हैं, तो किसान के भविष्य पर एक बार फिर संकट मंडरा सकता है।
25 से 29 मार्च तक ब्रैंडन लिंच के नेतृत्व में अमेरिका के वाणिज्य विभाग का एक प्रतिनिधिमंडल भारत आया। एजेंडा था अमेरिका और भारत के बीच द्विपक्षीय समझौते की रूपरेखा तैरकर करना। भारत आकर लिंच ने अपने राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की तर्ज पर भारत के ही प्रधानमंत्री को आंखें दिखाईं। भारत सरकार ने चूं नहीं की। चार दिन की बातचीत को गुप्त रखा गया। आखिर में एक चिकना-चुपड़ा बयान जारी हो गया।
अंतरराष्ट्रीय व्यापार के जानकार बता रहे हैं कि भारत सरकार ने अमेरिका के सामने घुटने टेक दिए हैं। अमेरिका भारत की बांह मरोड़ रहा है कि रूस से सस्ता कच्चा तेल लेने की बजाय महंगे बाजार भाव पर अमेरिका से कच्चा तेल खरीदे। भारत सरकार पहले ही अमेरिका से प्राकृतिक गैस लेने की हामी भर चुकी है। भारत के वाणिज्य मंत्री भारत के उद्योगपतियों से अपील कर रहे हैं कि वे अपनी जरूरत का माल चीन से खरीदने की बजाय अमेरिका से खरीदें। दिन रात राष्ट्रवाद की दुहाई देने वाली मोदी सरकार अमेरिकी साम्राज्यवाद के सामने घुटने टेक कर बैठी है।
इस प्रतिनिधिमंडल के अचानक भारत आने के पीछे की कहानी छुपी नहीं है। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने दुनिया भर में व्यापार युद्ध छेड़ दिया है। 2 अप्रैल से अमेरिका ने दुनिया के हर देश पर जवाबी टैरिफ लगाने की घोषणा कर दी है। यानी जो देश अमेरिका के आयात पर जितना शुल्क लगाता है, अमेरिका भी उसपर उतना ही शुल्क लगाएगा। यही नहीं, जो देश अमेरिका की विदेश नीति से सहमत नहीं होगा, उसपर विशेष शुल्क लगाया जाएगा।
जब प्रधानमंत्री मोदी अमरीका गए, तो उनके सामने ट्रंप ने विशेष रूप से कहा कि भारत अमेरिकी माल पर बहुत ज्यादा शुल्क लगाता है। अमेरिका उसे ठीक करवाएगा। प्रधानमंत्री मोदी ने कुछ समय की मोहलत मांगी। कहा कि हम कुछ महीने के भीतर ही अमेरिका से एक व्यापक समझौता करेंगे। फिर भी अमरीका ने 2 अप्रैल की जवाबी कार्रवाई से भारत को मुक्त नहीं किया है। साथ में इस प्रतिनिधिमंडल को भेजकर भारत सरकार पर दबाव बनाया है।
सवाल यह है कि ब्रैंडन लिंच के नेतृत्व वाले इस प्रतिनिधिमंडल के दबाव के चलते क्या भारत के किसान के हितों की लिंचिंग होगी? कृषि मामलों के जानकर और ‘रूरल वॉइस’ के संपादक हरवीर सिंह ने यह आशंका जताई है। उन्होंने याद दिलाया है की हमारी सरकारों ने हमेशा अंतरराष्ट्रीय व्यापार समझौतों से कृषि क्षेत्र को बाहर रखा है। साथ ही सरकार को आगाह किया है कि इस वार्ता में कृषि उत्पाद को शामिल करने से भारत के किसान को नुकसान पहुंच सकता है।
यह आशंका आधारहीन नहीं है। पिछले कई वर्षों से अमेरिका की नजर भारत के कृषि उत्पाद बाजार पर रही है। कृषि विशेषज्ञ हरीश दामोदरन ने अमेरिका के कृषि व्यापार का विश्लेषण कर बताया है कि पिछले कई साल से चीन ने अमेरिकी कृषि उत्पाद की खरीद कम कर दी है और अब ब्राजील और अर्जेंटीना जैसे देशों से खरीदना शुरू कर दिया है। इसलिए अमेरिका को नए बाजार की तलाश है और उसकी नजर भारत पर है।
अमेरिका के कृषि मंत्रालय ने बाकायदा भारत के मांस उद्योग का अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला है कि भारत में आने वाले दशक में चिकन फीड और पशुओं के लिए सोयाबीन और मक्का की मांग बढ़ेगी। यहां अमेरिकी माल के खपत की अच्छी गुंजाइश है।
अमेरिका के लिए दिक्कत यह है कि भारत ने भारी आयात शुल्क लगा रखा है। साथ ही अमेरिका की जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलों के खतरे को देखते हुए इसपर पर भारत में पाबंदी है। अब ट्रंप की दादागिरी के सहारे अमेरिकी कृषि उत्पादक अपना माल भारत पर थोपने की कोशिश में हैं। कोशिश यह है कि अमेरिका से होने वाले द्विपक्षीय समझौते में कुछ फसलों को भी शामिल कर लिया जाए।
हर कोई जानता है कि यह फसलें कौन-सी होंगी। सोयाबीन और मक्का के अलावा अमेरिका की मुख्य दिलचस्पी कपास में होगी। साथ ही ‘वॉशिंगटन सेब’, अमेरिकी नाशपाती और कैलिफोर्निया के बादाम जैसे कुछ उत्पाद भी होंगे। फिलहाल अमेरिका को गेहूं और दूध उत्पाद भारत में बेचने की कम गुंजाइश दिखती है लेकिन भविष्य में यह भी इस सूची में शामिल हो सकते है। इस आयात की वकालत सिर्फ अमेरिका ही नहीं, भारत की कुछ कंपनियां भी कर रही हैं। पोल्ट्री उद्योग, मांस निर्यातकों और कपड़ा मिलों के मालिक भी चाहते हैं कि उन्हें सस्ते दाम पर माल मिले और उनका मुनाफा बढ़े।
अगर इसका किसी को नुकसान है, तो भारत के किसान को। पहले ही किसान अपनी फसल के वाजिब दाम से वंचित रहता है। ऐसे में अगर अमेरिका जैसे बड़े देश के साथ कृषि व्यापार खुल गया, तो भारत का किसान दोहरी मार झेलेगा। पिछले कुछ साल में मक्का उत्पादन अपने परंपरागत क्षेत्रों के बढ़कर बिहार और बंगाल तक पहुंचा है। वहां के गरीब किसान को इस साल ठीक दाम मिला है। सोयाबीन का उत्पादन भी काफी बढ़ा है, हालांकि इस साल उसके दाम गिर गए। कपास का उत्पादन पिछले कुछ वर्ष में गिरा है, और वहां कुछ समय के लिए आयात की जरूरत है। लेकिन इस तीनों का बाजार अमेरिका के लिए खोल देने से किसान को अपनी मेहनत का दाम मिलने की रही सही उम्मीद भी खत्म हो जाएगी।
इसलिए अब किसानों का भविष्य बचाने के लिए फिर आंदोलन का रास्ता ही बचा है। किसानों के देशव्यापी गठबंधन संयुक्त किसान मोर्चा ने पहले ही अमेरिका से समझौते के विरोध में बयान जारी किया है। लेकिन अब बात बयान से नहीं बनने वाली। अब फिर सड़क पर उतरकर अहिंसक और संवैधानिक तरीके से अपनी आवाज उठाने का वक्त आ गया है।
(साभारः नवोदय टाइम्स, यह लेख अमेरिकी टैरिफ लागू होने के पहले लिखा गया।)
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia