भारत में कोयले के उपयोग पर UN चिंतित, पर मोदी सरकार आत्मनिर्भर भारत के नाम पर पर्यावरण की तबाही पर आमादा

भारत में कोयले की खपत साल-दर-साल बढ़ती जा रही है, कोयला आधारित नए ताप बिजली घर स्थापित किये जा रहे हैं और कोयला खनन क्षेत्र बढ़ता जा रहा है। खनन के लिए बड़े पैमाने पर घने जंगलों को काटा जा रहा है और स्थानीय जनजातियों को अपना घर छोड़ने पर विवश किया जा रहा है।

फोटोः सोशल मीडिया
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महेन्द्र पांडे

देश के प्रतिष्ठित संस्थान टेरी के संस्थापक दरबारी सेठ की याद में आयोजित वार्षिक व्याख्यान में मुख्य वक्ता के तौर पर बोलते हुए संयुक्त राष्ट्र महासचिव ऐंटोनियो गुटेर्रेस ने कहा कि भारत को सस्ते ऊर्जा स्त्रोत के तौर पर कोयले की तरफ देखना बंद कर देना चाहिए, क्योंकि अब नवीनीकृत ऊर्जा स्त्रोतों से बनी बिजली की कीमत भी सस्ती है और इससे पर्यावरण संरक्षण में मदद भी मिलती है। कोयले का उपयोग मानव स्वास्थ्य, पर्यावरण और यहां तक कि अर्थव्यवस्था के लिए भी अभिशाप है।

संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने यह बात ऐसे समय कही है जब आत्मनिर्भर भारत के तहत प्रधानमंत्री ने सबसे पहले कोयले में आत्मनिर्भरता पर लंबा भाषण देते हुए इसके उत्पादन को बढाने के लिए खनन को निजी क्षेत्रों के हवाले करने की घोषणा की और साथ ही पर्यावरण के सदर्भ में संवेदनशील इलाकों में भी इसके खनन की अनुमति दे दी गई है।

ऐंटोनियो गुटेर्रेस के अनुसार यदि जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि को नियंत्रित करने के लिए किये गए पेरिस समझौते पर आगे बढ़ना है तो भारत और चीन जैसे देशों को कोयले के मोह को छोड़ना पड़ेगा। इस समय जब कोविड-19 के दौर में अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने के प्रयास किये जा रहे हैं, तब भारत को कोयले के उपयोग को धीरे-धीरे कम करना होगा और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अगले साल से कोई भी नए ताप-बिजली घर नहीं स्थापित किये जाएं और जीवाश्म इंधनों पर दी जाने वाली रियायत भी बंद कर दी जाए।

संयुक्त राष्ट्र महासचिव के अनुसार इस दौर में कोयले के उपयोग को बढाने का कोई औचित्य नहीं है और इसके उपयोग से स्वास्थ्य, पर्यावरण और अर्थव्यवस्था बस धुआं ही रह जाती है। यदि कोयले के उपयोग को खत्म कर दे तो भारत उर्जा के क्षेत्र में और जलवायु परिवर्तन नियंत्रण के क्षेत्र में दुनिया की अगुवाई करने की क्षमता रखता है।

बड़े देशों में भारत और चीन ऐसे देश हैं, जहां कोयले की खपत साल-दर-साल बढ़ती जा रही है, कोयले पर आधारित नए ताप बिजली घर स्थापित किये जा रहे हैं और कोयले के खनन का क्षेत्र बढ़ रहा है। कोयले के खनन के लिए बड़े पैमाने पर घने जंगलों को काटा जा रहा है और स्थानीय वनवासियों और जनजातियों को अपना क्षेत्र छोड़ने पर विवश किया जा रहा है।

प्रधानमंत्री अब आत्मनिर्भर भारत के नाम पर पर्यावरण का चीरहरण कर रहे हैं। हाल में ही सरकार ने 40 नए कोयला खदानों की नीलामी की है। अब तक कोयला खदान पर सरकारी कंपनी कोल इंडिया लिमिटेड का एकाधिकार था, पर अब इसे निजी क्षेत्रों के लिए पूरी तरह से खोल दिया गया है। प्रधानमंत्री जी कहते हैं कि नई खदानों के बाद भारत कोयले के मामले में पूरी तरह आत्मनिर्भर बन जाएगा।

इसमें से 4 कोल-ब्लॉक्स हसदेव अरंड वन क्षेत्र में हैं और 80 प्रतिशत कोयला उन क्षेत्रों से निकाला जाना है, जहां वनवासी बसते हैं और बेहद घने जंगल का क्षेत्र है। कुल 7 कोल-ब्लॉक्स ऐसे हैं, जहां पहले पर्यावरण संरक्षण के कारण कोई भी परियोजना निषिद्ध थी। इन कोल-ब्लॉक्स की नीलामी में संबंधित राज्यों को शामिल भी नहीं किया गया था और अब पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, झारखंड और छत्तीसगढ़ की सरकारों ने इस पर विरोध दर्ज कराया है और जरूरत पड़ने पर कानूनी कार्यवाही की धमकी दी है।

दरअसल मोदी सरकार लगभग हरेक मामलों में दोहरी नीति पर चलती है- अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत के पर्यावरण संरक्षण के मामले में 5000 वर्षों की परंपरा का पाठ पढ़ाया जाता है और देश में लगातार पर्यावरण के विनाश के रास्ते खोजे जाते हैं। दुनिया को पीएम मोदी नवीनीकृत उर्जा में भारत की सफलता बताते हैं और देश में कोयला-आधारित नए बिजलीघर स्थापित किये जाते हैं, दुनिया को जलवायु परिवर्तन पर प्रवचन देते हैं और देश में इसे नियंत्रित करने की कोई स्पष्ट नीति भी नहीं है।

प्रधानमंत्री जी पता नहीं कितने भाषणों में सौर उर्जा और पवन उर्जा के देश में विकास पर अपनी पीठ थपथपा चुके हैं, पर तथ्य यह है कि देश में आज भी नवीनीकृत उर्जा की तुलना में कोयला पर आधारित ताप-बिजली घरों का ज्यादा विकास किया जा रहा है। अडानी समूह तो अपने ताप-बिजली घरों के लिए भारत से ही नहीं बल्कि ऑस्ट्रेलिया से भी कोयला ला रहा है।

ऐंटोनियो गुटेर्रेस के अनुसार वर्तमान में नवीनीकृत स्त्रोतों से जो बिजली पैदा की जा रही है, उसकी कीमत दुनिया के 39 प्रतिशत ताप-बिजली घरों द्वारा उत्पन्न की जाने वाली बिजली से कम है और अगले 2 वर्षों में 60 प्रतिशत कोयला आधारित बिजलीघरों से कम होगी। अगले दो वर्षों में भारत के 50 प्रतिशत कोयला आधारित बिजली घरों से उत्पन्न बिजली की तुलना में नवीनीकृत स्त्रोतों से उत्पन्न बिजली सस्ती होगी। एक अन्य अध्ययन के अनुसार कोयला आधारित बिजली घरों की तुलना में नवीनीकृत उर्जा स्त्रोतों से बिजली उत्पादन में तीन-गुना अधिक लोगों को रोजगार मिलता है।

ऐंटोनियो गुटेर्रेस पिछले कुछ महीनों से लगातार दुनिया से पर्यावरण-अनुकूल अर्थव्यवस्था विकसित करने का आग्रह कर रहे हैं। 23 जुलाई को चीन के सिंगहुआ यूनिवर्सिटी में व्याख्यान देते हुए उन्होंने चीन से भी कोयले का उपयोग कम करने का अनुरोध किया था। दुनिया भर में पांव पसार चुकी कोयला लॉबी ने पिछले कुछ वर्षों से कोयले से पर्यावरण और स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों से जनता और सरकारों का ध्यान भटकाने के लिए “क्लीन कोल” का सहारा लिया है, पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव के अनुसार यह केवल एक छलावा है और क्लीन कोल जैसी कोई चीज है ही नहीं।

यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड द्वारा किये गए एक अध्ययन के अनुसार दुनिया में महज 10 प्रतिशत बिजली उत्पादन कम्पनियां नवीनीकृत उर्जा स्त्रोतों पर प्राथमिकता के आधार पर निवेश कर रही हैं, और इनमें से लगभग सारी कम्पनियां यूरोपीय देशों में स्थित हैं। यह अध्ययन नेचर इकोलॉजी नामक जर्नल के नवीनतम अंक में प्रकाशित किया गया है। इस अध्ययन के लिए दुनिया भर में 3000 बिजली उत्पादन कंपनियों का अध्ययन किया गया है। दुनिया भर की अधिकतर कम्पनियां कोयले पर आधारित ताप बिजली घरों को स्थापित करने और उनकी क्षमता बढाने के लिए निवेश कर रहीं हैं। यहां तक कि अधिकतर ताप बिजली घरों में आधुनिक, कम प्रदूषण और कम उत्सर्जन वाली प्रौद्योगिकी का भी इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है।

हमारे देश में भी कोयला आधारित ताप बिजली घर खूब प्रदूषण फैलाते हैं। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने वर्षों पहले इन बिजली घरों के लिए कम उत्सर्जन वाले मानक को अधिसूचित किया था, पर इसका अनुपालन शायद ही कोई बिजली घर करता नजर आता है। अब सवाल केवल प्रदूषण का ही नहीं रह गया है, बल्कि सरकारी नीति इज ऑफ डूइंग बिजनेस के तहत उद्योगों से पर्यावरण संरक्षण संबंधी सारे अंकुश हटा लिए गए हैं। ये सभी कम्पनियां पर्यावरण विनाश, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और लोगों की जान से खिलवाड़ के लिए स्वतंत्र कर दी गई हैं और शायद यही हमारी पर्यावरण संरक्षण के सन्दर्भ में 5000 वर्षों की परंपरा है, जिसका उल्लेख प्रधानमंत्री जी बार-बार करते हैं।

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