समान नागरिक संहिताः बीजेपी के लिए महज वोट बटोरने का एक और मुद्दा, देश में न अभी जरूरत, न अपेक्षित

कानून मंत्री किरण रिजिजू ने 22वें विधि आयोग से इसके समाधान की उम्मीद जताई है। लेकिन फरवरी, 2020 में 22वें विधि आयोग के गठन के लिए केन्द्रीय कैबिनेट ने अनुमति दी थी। इसको ढाई साल से अधिक हो गए हैं लेकिन इसके अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति अब भी होनी है।

रेखांकन: पी. सुरेश
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अनुराधा रमन

बीजेपी के राज्यसभा सदस्य किरोड़ी लाल मीणा ने समान नागरिक संहिता (यूसीसी) को लेकर हाल में फिर शुरू हुई बहस के कीचड़ में एक और कंकड़ फेंक दिया है। उन्होंने इसे लेकर राज्यसभा में 9 दिसंबर को एक निजी विधेयक पेश किया। इसमें 'समान नागरिक संहिता की तैयारी और देश भर में इसके कार्यान्वयन तथा इससे संबधित मामलों के लिए राष्ट्रीय निरीक्षण तथा अनुसंधान समिति' के गठन की मांग की गई है।

यह पहली बार नहीं है जब संसद में इस किस्म का विधेयक पेश हुआ है। हाल के वर्षों में इस किस्म के छह प्रयास किए गए हैं। यूसीसी बीजेपी के चुनाव घोषणा पत्र में लगातार राग की तरह रहा है। हाल में हिमाचल प्रदेश और गुजरात के विधानसभा चुनावों में पार्टी ने वादा किया कि अगर वह सत्ता में आई, तो इस तरह के कानून के तौर-तरीकों का पता लगाने के लिए समितियां बनाएगी। इसने गुजरात में तो विजय पाई, पर वह हिमाचल हार गई।

इससे पहले, इसी साल उत्तराखंड में भी चुनाव से पहले बीजेपी के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने आश्वासन दिया था कि अगर उनकी सरकार वापस आई, तो विभिन्न धर्मों के सबसे अच्छे आचार-व्यवहार को ध्यान में रखकर और आधुनिक समय के अनुरूप उन्हें ढालकर यूसीसी की जांच-पड़ताल के लिए एक समिति का गठन किया जाएगा। वहां बीजेपी को जीत मिली।

यह कहना असंगत हो सकता है कि यूसीसी प्रमुख हिन्दी भाषी राज्यों में बीजेपी की जीत में प्रमुख कारक थे लेकिन इसमें शक नहीं कि भगवा पार्टी ने चुनावपूर्व गतिविधियों में इसे उठाने के लिए मुल्लाओं को प्रेरित कर दिया। इससे मतलब नहीं कि इस कल्पनीय कानून की व्यावहारिकता, इसके अंतर्निहित अंतर्विरोध, कुछ खास संवैधानिक गारंटियों के साथ इनके मतभेद और इस तरह के एकसमान कानून के उद्देश्य को लेकर हजारों सवाल बने हुए हैं, जो इस प्रकार हैंः


बीजेपी सरकार ने यह विधेयक क्यों नहीं पेश किया और किसी पार्टी सदस्य पर इसे पेश करने का जिम्मा क्यों सौंप दिया?

सरकार की तरफ से कई दफा पेश विरोधात्मक बयान इसका जवाब देता है। केन्द्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू ने इसी साल संसद में कहा कि यूसीसी लागू करने के लिए पैनल बनाने की सरकार की इस वक्त कोई योजना नहीं है और वह इसे भारत के 22वें विधि आयोग के सामने लाएगी। यह चक्कर में डालने वाला है क्योंकि यूसीसी की संभावना की जांच करने के लिए कहे जाने वाले 21वें विधि आयोग ने अभी हाल ही में कहा है कि इस तरह के कानून की देश में 'इस वक्त न जरूरत है, न यह अपेक्षित है।'

अब, यहीं पर पेंच है। फरवरी, 2020 में 22वें विधि आयोग के गठन के लिए केन्द्रीय कैबिनेट की अनुमति के ढाई साल से अधिक हो गए हैं लेकिन इसके अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति अब भी होनी है। इसकी अवधि 2023 में समाप्त होनी है। उससे पहले इस मुद्दे की जांच-पड़ताल के लिए आयोग को बहुत ही कम समय मिलना है। सबसे खास बात, अब यूसीसी के पक्ष में इस तरह का क्या आमूलचूल परिवर्तन हो गया है? क्या सरकार को लगता है कि नया आयोग नागरिक संहिता के पक्ष में विचार प्रकट कर सकता है?

संविधान सभा का क्या निष्कर्ष था?

यूसीसी के लिए कोई ड्राफ्ट नहीं था, फिर भी गहरे विचार-विमर्श और बहस के बाद संविधान निर्माताओं ने आगे की सोची कि विवाह, तलाक, दत्तक-ग्रहण और वंशानुगत को लेकर धारण किए जाने वाले हर धर्म के खास पर्सनल लॉ की जगह लेते हुए यूनिफॉर्म ऑफ लॉज होंगे।

इस तरह का कानून मूलभूत अधिकार या निर्देशक तत्व होने चाहिए या नहीं, इस पर हुई बहस ऐसे निर्देशक तत्व में इस किस्म के कानून को शामिल करने के पक्ष में समाप्त हुए जो सरकार से कुछ खास लक्ष्यों को संपादित करने की मात्र अपेक्षा करते हैं लेकिन ये अदालत में लागू किए जाने या न्यायोचित नहीं हैं। कुछ पक्षों की तरफ से कड़े विरोध के बीच संसद ने हिन्दू पर्सनल लॉ में सुधार के लिए 1955-56 में कानूनों की एक श्रृंखला पारित की, मुस्लिम पर्सनल लॉ को छोड़ दिया गया क्योंकि यह महसूस किया गया कि सुधार की मांग खुद समुदाय के अंदर से ही आनी चाहिए।


विशेष विवाह कानून, 1954 क्या यूसीसी के दायरे का रास्ता नहीं है?

इस्लामिक फोरम फॉर द प्रमोशन ऑफ मॉडरेट थॉट के महासचिव फैजुर रहमान का विचार है कि जहां तक विवाहों का संबंध है, अंतरधार्मिक जोड़ों को विवाह की अनुमति देने वाला विशेष विवाह कानून यूसीसी है, जैसा कि संविधान निर्माताओं ने सोचा था। कई तरह से, यह विवाह निर्धारित करने वाले पर्सनल कानूनों की नामंजूरी है।

लेकिन कानून के कई प्रावधानों को दक्षिणपंथी समूहों ने हथियार बना लिया है। कानून के तहत, अंतरधार्मिक जोड़ों को 30 दिनों की नोटिस देना जरूरी है जिसकी प्रति जिला मजिस्ट्रेट के कार्यालय के बाहर लगाई जाएगी। ऐसा पारदर्शिता के हित में किया जाता है लेकिन प्रावधान ने हिन्दुत्व राजनीति को सिर्फ मदद पहुंचाई है क्योंकि इसके भक्तों ने कई शादियों में खलल डाली है और इस अवसर का उपयोग सांप्रदायिक दुर्भावना भड़काने में किया है।

आगे क्या चुनौतियां हैं?

साफ तौर पर, यूसीसी सभी पर्सनल कानूनों की मां होगी- अपने धर्म, जाति या संप्रदाय का विचार किए बिना सभी नागरिकों को शासित करने वाले आम कानूनी संरचनात्मक आधार के लिए जमीन तैयार करने वाला।

इसलिए, यहां पहली बाधा हैः प्रस्तावित यूसीसी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14-15 के अंतर्गत दिए गए समानता/ समान व्यवहार और अनुच्छेद 25-28 के अंतर्गत धार्मिक स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटियों के साथ कैसे तालमेल बिठाएगी?

कर्नाटक में हिजाब पहनने के स्कूली  लड़कियों के अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट के हाल के विभाजित आदेश से बेहतर इस दुविधा को और बेहतर ढंग से नहीं दिखाया जा सकता है- अनुच्छेद 44 के अंतर्गत देश के नागरिकों को उनकी इच्छा के संवैधानिक विचार और समानता की इच्छा पर बहस को इस आदेश ने वापस ला दिया है।

समान संहिता को इस विश्वास पर प्रस्तावित किया गया है कि धार्मिक मतों और व्यवहारों से यह अलग होना चाहिए- यह अधिकार मलभूत अधिकारों के तहत संविधान में दिया गया है। परिभाषा के तौर पर, यह संहिता धर्मनिरपेक्ष होनी चाहिए। इस तरह के कानून की स्थिति में धर्म के व्यवहार और स्वीकार की स्वतंत्रता का क्या होगा?

जैसा कि निवेदिता मेनन ने आउटलुक पत्रिका के अपने कॉलम में कहा है, बोहरा समुदाय में स्त्री जननांग म्यूटिलेशन पर पीआईएल का इस आधार पर विरोध किया जा रहा है कि यह प्राचीन और धार्मिक प्रथा है। लेकिन जब बीजेपी और अन्य हिन्दू संगठनों ने सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का विरोध किया तो क्या वह धर्म के अधिकार को लेकर नहीं था?


पर्सनल लॉ के आईने में हिन्दुओं को किस तरह रखा गया है?

कई शिक्षाविदों और विद्वानों ने कहा है कि अगर इस किस्म का काम किया जाता है, तो हिन्दू समुदाय में कई विषमताओं को पहले खत्म करने की जरूरत है। हिन्दू विवाह इस्लाम में अनुबंध के विपरीत परम संस्कार है। यह भी कि हिन्दू कानून के अंतर्गत विवाह तब ही वैध होता है जब अगर दोनों ही पक्ष हिन्दू हैं, तो कम-से-कम एक पक्ष की परंपरागत रीतियों और विधानों के अनुरूप किया जाना होता है। अब, समान कानून की स्थिति में किसका विवाह समारोह मान्य होगा?

1955 के हिन्दू विवाह कानून के अंतर्गत निकट सबंधियों के बीच विवाह पर प्रतिबंध है जबकि दक्षिण भारत में चाचाओं-भतीजियों, चचेरे-ममेरे भाई-बहनों के विवाह पर असहमति नहीं है। इनके अतिरिक्त, देश में कई आदिवासी समूह अपने धर्म से इतर अपने परंपरागत कानूनों का पालन करते हैं। अगर यूसीसी में सर्वोत्तम परंपराओं को शामिल किए जाने की जरूरत है, क्या सभी विवाहों को सिविल अनुबंध के रूप में लाया जा सकता है? (अपनी बेटी को दूसरे परिवार में दे देने की) कन्यादान की परंपरा को छोड़ा जा सकता है?

इसकी जगह क्या (इस्लाम में निकाह के वक्त पति द्वारा पत्नी को दी जाने वाली अनिवार्य वधू-राशि) मेहर- जिस पर किसी महिला को अधिक अधिकार होता है- को यूसीसी में शामिल किया जा सकता है? और कई विद्वानों ने ध्यान दिलाया है कि हिन्दू विवाह कानून द्वारा प्रतिबंध के बावजूद हिन्दू पुरुष बहुविवाही हैं- वे महिलाओं को छोड़ देते हैं और कानून के अंतर्गत ऐसी महिलाओं को कोई सुरक्षा नहीं है जबकि इस्लामिक शरिया के अंतर्गत सभी विवाहित महिलाओं का पति और उनकी संपत्ति पर समान अधिकार है।

यह भी बड़ा सवाल है कि हिन्दू अविभाजित परिवार (एचयूएफ) के प्रावधान के अंतर्गत टैक्स लाभों का यूसीसी के अंतर्गत क्या होगा?

अंत में, क्या निजी सदस्य विधेयक कानून बन जाएगा?

निजी सदस्य विधेयक सभी पार्टियों के सदस्य पेश करते हैं। पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के अनुसार, 1952 से अब तक दोनों सदनों ने सिर्फ 14 निजी सदस्य विधेयक पारित किए हैं।हालांकि इस तरह के विधेयक बहस/विवाद पैदा करने के अपने सीमित उद्देश्य को काफी पूरा करते हैं।

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