असंगठित मजदूरों के लिए उम्मीद की किरण बने बाबा आढाव का महत्त्वपूर्ण योगदान

बाबा आढाव की यह अथक यात्रा वर्ष 1952 के आसपास आरंभ हुई जब वे एक युवा डाक्टर के रूप में पुणे के नानापेठ क्षेत्र में अपनी प्रैक्टिस जमा रहे थे। उनके पास अनेक भारी बोझ उठाने वाले मजदूर (पल्लीदार या हमाल) इलाज के लिए आते थे।

फोटो: IANS
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भारत डोगरा

93 वर्ष के बाबा आढाव आज भी लाखों मजदूरों के सम्मान और उम्मीदों के केन्द्र में हैं। लगभग सात दशकों तक उन्होंने सबसे निर्धन मजदूरों के लिए अथक प्रयास किए। देश के करोड़ों असंगठित मजदूरों में ऐसा बहुत कम देखा गया है कि उन्हें प्राविडेंट फंड, बोनस, जीवन बीमा और स्वास्थ्य बीमा जैसी सुविधाएं मिल जाएं। उनके लिए अलग से आवास कालोनी बन जाए। उनके बच्चों को अच्छे स्कूल में निःशुल्क शिक्षा मिलने लगे और उच्च शिक्षा के लिए सहायता भी मिले। उनके बच्चे इंजीनियरिंग और पत्रकारिता जैसे व्यवसायों में जाने लगें। पुणे के बहुत से बोझा उठाने वालों या हमालों के लिए यह सब एक हकीकत बन सका और फिर इस प्रयास को यहां के अनेक असंगठित मजदूरों के बीच भी तेजी से बढ़ाया गया।

वैसे तो इस प्रयास में बहुत से कार्यकर्ताओं की अथक मेहनत जुड़ी है, पर इन प्रयासों के केंद्र में रहने वाले प्रेरणादायक व्यक्ति है बाबा आढाव जिन्हें वर्ष 2011 में ‘टाईम्स ऑफ इंडिया सोशल इंपेक्ट’ पुरस्कारों में पहले लाईफ टाईम उपलब्धि पुरस्कार से नवाजा गया। यह पुरस्कार एक ऐसे 82 वर्षीय व्यक्ति के लिए था जिसने 60 वर्षों तक निरंतरता से सबसे उपेक्षित-शोषित मजदूरों के लिए कार्य करते हुए उम्मीद के कई नए स्रोत उत्पन्न किए। उत्साह इतना है कि 75 वर्ष की आयु में वर्ष 2005 में उन्होंने निर्माण मजदूरों की हकदारी के लिए पुणे से दिल्ली तक साईकल यात्रा निकाली।

बाबा आढाव की यह अथक यात्रा वर्ष 1952 के आसपास आरंभ हुई जब वे एक युवा डाक्टर के रूप में पुणे के नानापेठ क्षेत्र में अपनी प्रैक्टिस जमा रहे थे। उनके पास अनेक भारी बोझ उठाने वाले मजदूर (पल्लीदार या हमाल) इलाज के लिए आते थे जिससे बाबा को उनकी चिंताजनक स्थिति के बारे में जानकारी मिलती थी। कम मजदूरी, भारी बोझ और भूख-कुपोषण के बीच फंसी उनकी जिंदगी सुधारने के लिए बाबा आगे आए और 1955 में ‘हमाल पंचायत’ के नाम से उनके संगठन को आरंभ किया गया।

मजदूरी बढ़ाने की मांग को स्वीकार करवाना तो अपेक्षाकृत आसान था पर प्रोविडेंट फंड, बोनस, स्वास्थ्य बीमें जैसी मांगों को मनवाना बहुत कठिन था और इसके बारे में कोई समझ ही नहीं थी।

पर बाबा आढाव कहते हैं, “जहां चाह वहां राह”। बहुत सोच-समझकर आखिर एक रास्ता निकाला गया। इसका आधार यह बना कि रुपए की मजदूरी पर 33 पैसे की लेवी लगाई जाए और इस पूरी राशि को एक ऐसे बोर्ड में जमा करवाया जाए जिसमें व्यापारियों, मजदूरों, सरकार सभी के प्रतिनिधि हों। इस बोर्ड के द्वारा मासिक मजदूरी, प्रोविडेंट फंड, बोनस आदि भी दिया जाए।


इस सोच के आधार पर हमालों के लिए कानून बना और उन्हें विभिन्न लाभ मिलने लगे तो इसकी चर्चा दूर-दूर तक हुई। द्वितीय श्रम आयोग ने पुणे में हमालों की स्थिति में सुधार की चर्चा एक अनुकरणीय मॉडल के रूप में की। धीरे-धीरे हमालों को यह लाभ महाराष्ट्र के अन्य शहरों में व यहां तक कि दूर-दूर तक की कृषि मंडियों में भी मिलने लगे।

अगला कदम था हमाल परिवार को साहूकारों के ऊंचे ब्याज से बचाने के लिए क्रेडिट कॉपरेटिव की स्थापना की जाए। हमाल शेयरहोल्डरों की सहयोग राशि के आधार पर खड़ी की गई सहकारी संस्था में हमालों को वार्षिक 15 प्रतिशत पर कर्ज मिलने लगा जबकि साहूकारों को वे 60 प्रतिशत से 120 प्रतिशत वार्षिक (5 से 10 प्रतिशत मासिक) देने को मजबूर थे। इस सहज उपलब्ध कर्ज के आधार पर वे नए आय अर्जन कार्य आरंभ कर सके व आवास भी प्राप्त कर सके। सरकार से सस्ती जमीन प्राप्त कर हमालों ने अपने अनेक आवास स्वयं भी बनाए।

इस सफलता से प्रभावित होकर अन्य असंगठित क्षेत्रों के मजदूर भी बाबा आढाव व उनके साथियों से जुड़ने लगे तो उनके संगठन भी इसी मॉडल पर बनते गए जिसमें लीक से हटकर मजदूरों की भलाई के नए तौर-तरीके अपनाए जाते हैं और साथ में उन्हें सहकारी समितियों से भी जोड़ा जाता है।

रेहड़ी-पटरी वालों या हॉकर के लिए पुणे में नई नीति बनाने के लिए दबाव बनाया गया। साथ ही राष्ट्रीय नीति 2007 के आधार पर भी मांगे रखी गईं। इस संगठन का असर यह हुआ कि उनसे की जा रही अवैध वसूलियों में काफी कमी आई और उन्हें हटाए जाने पर उनके पुनर्वास की संभावना बढ़ी। सहकारी समिति से लोन लेकर वे अपने कार्य बढ़ाने में भी सक्षम हुए।

ऑटो-रिक्शा, टैम्पो, वेस्ट तेल एकत्रित करने वालों के अन्य संगठन भी इस असंगठित मजदूरों के व्यापक प्रयास से जुड़े हैं।

 घरेलूकर्मियों और कूड़ा बीनने वालों के संगठन ऐसे हैं जिनमें अधिकांश सदस्य महिलाएं हैं। सब्जी बेचने के काम से जुड़े संगठन में भी अधिक संख्या महिलाओं की है। इस तरह बढ़ती संख्या में महिलाएं इस प्रयास से जुड़ती जा रही हैं।

कूड़ा बीनने वालों के संगठन ने बहुत तेजी से प्रगति की है। बाल श्रमिक को तेजी से कम किया गया है व महिलाओं की आजीविका को कई स्तरों पर सुधारा गया है। पुणे नगर निगम से समझौता कर उनके लिए स्वास्थ्य बीमा की व्यवस्था की गई जिसमें प्रीमियम का भुगतान नगर-निगम करता है। इन महिलाओं की आय भी बढ़ी है तथा शहर को स्वच्छ रखने में उनका योगदान भी बढ़ा।


इन विभिन्न प्रयासों से लाखों लोगों के जीवन में सुधार आया है। बाबा आढाव का मानना है कि मजदूरों के कार्य की स्थिति, रहने की स्थिति व सामाजिक स्थिति तीनों में एक साथ सुधार लाना उनका लक्ष्य है। सामाजिक स्तर पर मेहनतकशों के कार्य को गरिमा व सम्मान मिलना चाहिए व उनमें यह गर्व होना चाहिए कि वे एक व्यापक, सार्थक, सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया से जुड़े हैं।

ऐसी व्यापक सोच इन संगठनों में वास्तव में नजर आती है और इस कारण इन संगठनों को वह उत्साह व प्रेरणा मिलती है जो उनकी सफलता का मुख्य कारण है। इन मजदूरों में यह अहसास है कि इन संगठनों से उनकी भलाई तो होगी ही, साथ ही वे ऐसे प्रयास से जुड़े हैं जो दलित व कमजोर वर्ग को समाज में उनकी न्यायोचित जगह दिलाना चाहता है। यह अहसास उन्हें और निष्ठा व उत्साह से संगठनों को आगे ले जाने के लिए प्रेरित करता है।

हमारे देश में मजदूरों के संगठन प्रयासों को अधिक सार्थक बनाने के लिए दो तरह के सुधारों की चर्चा प्रायः होती है। एक सुधार तो यह है कि जो मजदूर अधिक उपेक्षित व असंगठित है उन पर अधिक ध्यान दिया जाए। दूसरा जरूरी सुधार प्रायः यह बताया जाता है कि मजदूरों के संगठन को व्यापक सामाजिक बदलाव से जोड़ा जाए। इससे एक ओर तो सार्थक सामाजिक बदलाव को मजदूरों की संगठित शक्ति का लाभ मिलेगा। दूसरी ओर जब मजदूर इस व्यापक बदलाव की प्रक्रिया से जुड़ेंगे तो वे संकीर्ण आर्थिक सोच से ऊपर उठ सकेंगे जो पूरे मजदूर आंदोलन के लिए एक उपलब्धि होगी। मजदूर संगठनों की दुनिया में बाबा आढाव एक ऐसे मजदूर नेता हैं जिन्होंने इन दोनों चर्चित सुधारों को बहुत पूर्णता से अपनाया है।

बाबा आढाव के यह प्रयास महाराष्ट्र में (और वहां भी विशेषकर पुणे में और उसके आसपास) 70 वर्षों से निरंतरता से चल रहे हैं। आरंभ से ही उन्होंने अधिक उपेक्षित, पीड़ित और असंगठित मजदूरों की ओर अधिक ध्यान दिया है। उनका सबसे अधिक कार्य बोझा ढोने वाले हमालों के साथ हुआ और हाल के समय में कूड़ा बीनने वालों के साथ उनका मूल्यवान जुड़ाव रहा।

बाबा आढाव का सदा प्रयास रहा कि यह संगठन व्यापक सामाजिक बदलाव से जुड़े। अपने जीवन में भी वे मजदूरों संगठनों की व्यस्तताओं के बावजूद तरह-तरह के सार्थक कार्यों से जुड़ते रहे। 1972 में महाराष्ट्र में अकाल पड़ा तो उन्होंने गांवों में जल-स्रोतों के उपयोग में जातिगत छुआछूत और भेदभाव हटाने के लिए एक बड़ा अभियान चलाया। अनेक गांवों की यात्रा की, प्रचार-प्रसार किया, सत्याग्रह किया। फिर कुछ समय बाद सबसे अधिक दर्द व उपेक्षा सहने वाले विमुक्त और घुमंतु समुदाय को न्याय दिलवाने के लिए जूझने लगे। देवदासियों को पेंशन दिलवाने के लिए बहुत प्रयास किया और सफलता भी प्राप्त की। बांधों और अन्य परियोजनाओं से विस्थापित किसानों के लिए बेहतर पुनर्वास नीति बनाने हेतु बहुत संघर्ष किया जिससे महाराष्ट्र में अन्य राज्यों से बहुत पहले ही ऐसी नीति तैयार हो सकी।

 बाबा आढाव से जुड़े विभिन्न संगठनों में महात्मा ज्योतिबा फुले, बाबा आंबेडकर, महात्मा गांधी और अन्य प्रेरणादायक व्यक्तित्वों की तस्वीरें बहुत प्रमुखता से लगाई गई हैं तो इसका संदेश मजदूर साथियों के लिए यह है कि इनसे सीख कर हमें व्यापक सामाजिक बदलाव लाना है। हम अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए संघर्ष करेंगे पर साथ ही में समाज में अन्य स्तरों पर सार्थक बदलाव भी लाएंगे। नियमित व्याख्यान आयोजित किए जाते हैं, बेहतर सामाजिक कार्य करने वालों को सम्मानित किया जाता है, विषमता विरोधी शिविर लगाए जाते हैं। विभिन्न महापुरुषों की जयंतियों को धूमधाम से मनाया जाता है तो उनके विशेष संदेश को भी लोगों तक पंहुचाया जाता है। पर्चे छापे जाते हैं तो गंभीर निबंध और पेपर भी लिखे जाते हैं। शिवाजी के ऐसे उपेक्षित संदेश लोगों तक पंहुचाए जाते हैं जो पर्यावरण की रक्षा से जुड़े हैं व सभी धर्मों की आपसी सद्भावना से जुड़े हैं।   

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