पिछले 5 वर्षों के दौरान प्रदूषण के कारण 4.5 करोड़ लोगों की असमय मौत, गर्भ में पल रहे शिशु के लिए घातक है तापमान वृद्धि

प्रदूषण को स्थानीय समस्या माना जाता है, जबकि यह जलवायु परिवर्तन जैसे ही वैश्विक समस्या है। जलवायु परिवर्तन नियंत्रण के लिए जिस तरह पेरिस समझौता है, अब वैज्ञानिक इसी तर्ज पर प्रदूषण नियंत्रण के लिए भी एक वैश्विक समझौता की वकालत करने लगे हैं।

फोटो: सोशल मीडिया
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महेन्द्र पांडे

दुनिया भर में खेतिहर श्रमिकों के लिए तापमान वृद्धि घातक होता जा रहा है। लगातार बढ़ते तापमान में श्रमिकों को लगातार धूप में काम करना होता है, और इस कारण उनका स्वास्थ्य प्रभावित होता है। तापमान वृद्धि पर पिछले 20 वर्षों से किये जा रहे अध्ययन के अनुसार पृथ्वी का तापमान वर्ष 1990 के बाद से हरेक दशक में औसतन 0.26 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। लांसेट प्लेनेटरी हेल्थ नामक जर्नल में प्रकाशित इस अध्ययन को जलवायु वैज्ञानिकों के एक अन्तराष्ट्रीय दल ने किया है, और इसमें भारत समेत दुनिया के 43 देशों में 750 स्थानों से प्राप्त जलवायु के आंकड़ों का और मृत्यु दर का विश्लेषण किया गया है। अध्ययन का निष्कर्ष है कि हरेक वर्ष अत्यधिक सर्दी या अत्यधिक गर्मी के कारण दुनिया में 50 लाख से अधिक व्यक्तियों की असामयिक मृत्यु हो जाती है, यह संख्या दुनिया में कुल मृत्यु का 9.4 प्रतिशत है।

अत्यधिक गर्मी से मरने वालों में सबसे अधिक खेतिहर श्रमिक होते हैं। पर, अत्यधिक गर्मी का केवल यही असर नहीं होता। खेतिहर श्रमिकों के तौर पर बड़ी संख्या में महिलायें भी दिनभर तेज धूप और बढे तापमान में काम करती हैं। गर्भवती महिलायें भी अंत तक खेतों में काम करती हैं, और बढे तापमान का असर गर्भ में पल रहे शिशु पर भी पड़ता है। लंदन स्कूल ऑफ हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन की वैज्ञानिक डॉ ऐना बोनेल ने जाम्बिया में ग्रामीण इलाकों में 92 गर्भवती महिला खेतिहर श्रमिकों का 7 महीने तक गहन अध्ययन किया है और अपना अध्ययन लांसेट प्लेनेटरी हेल्थ नामक जर्नल में प्रकाशित किया है। इस दौरान तापमान, आर्द्रता, गर्भ और माँ के दिल की धड़कन दर का लगातार आकलन किया गया।

इस अध्ययन के अनुसार तापमान बढ़ने पर गर्भवती महिलाओं में पसीना ज्यादा होने के कारण शरीर में पानी की कमी होने लगती है। ऐसी अवस्था में प्लेसेंटा से ऑक्सीजन और रक्त का प्रवाह महिलाओं की त्वचा पर होने लगता है और गर्भ में इनकी कमी हो जाती है। इस पूरे अध्ययन के दौरान खेतों का औसत तापमान 35 डिग्री सेल्सियस रहा, पर 34 प्रतिशत समय तापमान इससे अधिक बना रहा। इस अध्ययन में सुझाव दिया गया है कि खेतों में जहां भी संभव हो वहां पेड़ों को लगाना चाहिए जिससे अत्यधिक गर्मी से श्रमिक बचे रहे। हीट स्ट्रेन इंडेक्स में जब तापमान और दिल की धड़कन में 1 प्वाइंट की वृद्धि होती है, तब गर्भ पर खतरा 20 प्रतिशत तक बढ़ जाता है। सामान्य तापमान में 1 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी से गर्भ में पल रहे शिशु पर खतरा 17 प्रतिशत तक बढ़ जाता है और दिल की धड़कन प्रति मिनट 160 बीट पार कर जाती है। इस अध्ययन में शरीक होने वाली महिला खेतिहर श्रमिकों में से 60 प्रतिशत से अधिक में अत्यधिक तापमान के कारण पनपने वाले लक्षणों – सरदर्द, नींद आना, कमजोरी, मांस-पेशियों में दर्द, उल्टी और गला सूखना – में से एक या अनेक लक्षण सामान्य थे।


अन्तराष्ट्रीय श्रमिक संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार पुरी दुनिया में कृषि श्रमिक समाज का सबसे बदहाल तबका है, इसके बाद भी बेरोजगारी के कारण इनकी संख्या बढ़ती जा रही है। इनकी बढ़ती संख्या के साथ ही इनका शोषण भी बढ़ रहा है। हमारे देश में भी कृषि श्रमिक हमेशा से बदहाल रहे हैं। 4 फरवरी 2020 को लोकसभा में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने एक लिखित जवाब में बताया था कि वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश में कुल 26.31 करोड़ किसान और कृषि श्रमिक थे – 11.88 करोड़ किसान, और 14.43 करोड़ कृषि श्रमिक। वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार यह संख्या क्रमशः 12.73 करोड़ और 10.68 करोड़ थी। इसका सीधा सा मतलब है कि वर्ष 2001 से 2011 के बीच भूमिहर किसानों की संख्या कम होने के बाद भी कृषि श्रमिकों की संख्या बढ़ी है। वर्ष 2001 में देश के कुल कामगारों में से 58.2 प्रतिशत कृषि से जुड़े थे, जबकि वर्ष 2011 में इनकी संख्या 54.6 प्रतिशत ही रह गई।

वर्ष 2017–2018 के इकनोमिक सर्वे में बताया गया है कि हमारे देश में कृषि का महिलाकरण हो रहा हैI अधिकतर पुरुष श्रमिक अब रोजगार की तलाश में शहरों में जा रहे हैं और पूरा कृषि कार्य महिलाओं के कंधे पर आ रहा हैI महिलायें घर संभालने के साथ ही खेती भी अपने बल-बूते पर करने लगी हैंI इस सर्वे के अनुसार किसानों की आत्महत्या भी एक बड़ी समस्या है और आत्महत्या के बाद खेती का सारा बोझ महिलाओं के जिम्मे आ जाता हैI सबसे बुरी हालत में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग या फिर दिहाड़ी पर खेतों में काम करने वाली महिलायें हैं, जिन्हें लम्बे समय तक काम करना पड़ता है और वेतन पुरुषों से कम मिलता हैI

आधुनिक विज्ञान ने हमारे जीवन को सुगम कर दिया है – खाद्यान्न उत्पादन बढ़ा, परिवहन के नए साधन हैं और उपभोक्ता उत्पादों से बाजार भरा है। पर इसी सुगम जीवन की चाह ने हमारे जीवन को तापमान वृद्धि के साथ ही तरह-तरह के प्रदूषण से भर दिया है। इसमें सबसे आगे वायु प्रदूषण है, विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व की 99 प्रतिशत से अधिक आबादी वायु प्रदूषण की मार झेल रही है। प्रदूषण का असर अब गर्भ में पल रहे बच्चों पर भी पड़ रहा है और अनेक वैज्ञानिक अब इन्हें प्रदूषित शिशु, या पोल्युटेड बेबीज कहने लगे हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के वैज्ञानिकों ने 171 गर्भवती महिलाओं के विस्तृत परीक्षण और विश्लेषण के बाद निष्कर्ष निकाला है कि 90 प्रतिशत महिलाओं के शरीर के उत्तकों और रक्त में कम से कम 19 ऐसे खतरनाक रसायन या कीटनाशक हैं जो गर्भ में पल रहे शिशुओं तक पहुंचने की क्षमता रखते हैं। जाहिर है, इन महिलाओं के गर्भ में पल रहे शिशु अपने शरीर में प्रदूषण के साथ ही दुनिया में प्रवेश करेंगे। अमेरिका के नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ हेल्थ ने कुछ वर्ष पहले ही बताया था कि हम प्रदूषण के उस दौर में हैं जहां शिशु प्रदूषण के साथ ही पैदा होकर एक प्रदूषित दुनिया में कदम रखते हैं। इससे पहले अनेक अध्ययनों में गर्भ में पल रहे शिशुओं में माइक्रो-प्लास्टिक मिले थे।


आधुनिक दौर में प्रदूषण, तापमान वृद्धि और जैव-विविधता का विनाश, पर्यावरण से जुड़ीं सबसे बड़ी समस्याएं हैं – पर चर्चा में केवल तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन ही रहता है। कुछ दशक पहले तक प्रदूषण की खूब चर्चा की जाती थी, पर अब यह एक उपेक्षित विषय है। प्रदूषण का प्रभाव कहीं से कम नहीं हुआ है। मई 2022 में स्वास्थ्य संबंधी जर्नल, द लांसेट में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार दुनिया में प्रतिवर्ष 90 लाख लोगों की मौत का कारण प्रदूषण है – यह संख्या सड़क दुघटना, एचआईवी/एड्स, मलेरिया और टीबी के कारण होने वाली सम्मिलित वार्षिक मौतों से भी अधिक है। प्रदूषण से मरने वालों की संख्या कुपोषण से मरने वालों या फिर नशे और अल्कोहल के अत्यधिक सेवन के कारण मरने वालों की संख्या से भी अधिक है। प्रदूषण के कारण दुनिया को प्रतिवर्ष 4.6 खरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ता है, यानि प्रति मिनट लगभग 90 लाख डॉलर का नुकसान होता है।

प्रदूषण पर इस तरह का विस्तृत अध्ययन पहली बार वर्ष 2017 में प्रकाशित किया गया था, पर उस समय से प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए कुछ विशेष नहीं किया गया और इस कारण पिछले 5 वर्षों के दौरान प्रदूषण के कारण 4.5 करोड़ व्यक्तियों की असमय मौत हो गई। पूरी दुनिया प्रदूषण के नियंत्रण के लिए गंभीर नहीं है और वर्ष 2015 के बाद से इस सन्दर्भ में बजट का प्रावधान भी एक जैसा है। वर्ष 2017 के बाद से प्रदूषित हवा और पर्यावरण में खतरनाक रसायनों के समावेश के कारण असामयिक मृत्यु दर 7 प्रतिशत बढ़ गई है। यह मृत्यु दर वर्ष 2000 की तुलना में 66 प्रतिशत अधिक है। प्रदूषित पानी के कारण दुनिया में लगभग 14 लाख मौतें प्रतिवर्ष होती हैं, जबकि विषैले रसायनों के कारण प्रतिवर्ष 3.5 लाख लोग मरते हैं। प्रदूषित हवा के कारण प्रतिवर्ष 67 लाख लोग मरते हैं।

प्रदूषण को स्थानीय समस्या माना जाता है, जबकि यह जलवायु परिवर्तन जैसे ही वैश्विक समस्या है। जलवायु परिवर्तन नियंत्रण के लिए जिस तरह पेरिस समझौता है, अब वैज्ञानिक इसी तर्ज पर प्रदूषण नियंत्रण के लिए भी एक वैश्विक समझौता की वकालत करने लगे हैं। विकास के इस अंधी दौड़ में दुनिया अपनी भावी पीढी को ही दांव पर लगा बैठी है – पहले वैज्ञानिक इसका अनुमान लगाते थे पर आज के समय का सबसे बड़ा सच यही है। जनवरी 2022 में इस विषय पर अनेक अध्ययन प्रकाशित किये गए थे, जिनके अनुसार तापमान बृद्धि से गर्भपात, पूरे समय के पहले ही बच्चे के पैदा होने और कम वजन के बच्चे के पैदा होने की घटनाएं बढ़ जाती हैं। समय से पैदा होने वाले बच्चों की स्वास्थ्य समस्याएं उम्र भर चलती हैं। अत्यधिक तापमान के समय अस्पतालों में शिशुओं के भर्ती की दर बढ़ जाती है। तापमान वृद्धि का प्रभाव शिशुओं पर प्रभाव इतना व्यापक है कि अब वैज्ञानिक कहने लगे हैं कि यदि तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोक भी दिया जाए तब भी ऐसी समस्याएं कम नहीं होंगीं।

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