उत्तर प्रदेश: जाति पर आदेश जारी करने में सरकार की तेजी, मनमाफिक राजनीति या दिखावे का बदलाव?
समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव इसे सतही आदेश मानते हैं। वह कहते हैं, “एक कॉलम हटाकर सदियों से चले आ रहे भेदभाव को दूर नहीं किया जा सकता। दस्तावेजों से जाति हटाने से समाज में व्याप्त जातिगत पूर्वाग्रह नहीं मिटा करते।”

उत्तर प्रदेश की तो छोड़िए, शायद ही किसी सरकार ने ऐसी तेजी दिखाई हो। इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति विनोद दिवाकर ने 16 सितंबर को जब जाति-आधारित राजनीतिक रैलियों पर प्रतिबंध का आदेश दिया, इसे सुर्खियों में आना ही था। न्यायिक सक्रियता के इस दुर्लभ उदाहरण के साथ कदमताल करते हुए फैसले को कार्यकारी कार्रवाई में तब्दील होने का दुर्लभ उदाहरण भी दिखा और यूपी सरकार ने पांच दिन बाद ही 21 सितंबर को जाति-आधारित राजनीतिक रैलियों पर प्रतिबंध वाला 10-सूत्रीय आदेश जारी कर दिया।
यह कदम 2013 में हाईकोर्ट द्वारा पारित ऐसे ही अंतरिम आदेश पर राज्य की अनिच्छा के बिल्कुल विपरीत था। तब सरकार ने पहले तो हलफनामा दाखिल करने में देरी की और जब जवाब दिया तो तत्कालीन मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक का तर्क था कि जाति तो पहचान का एक अहम प्रतीक है। इस बार, न्यायमूर्ति दिवाकर ने ऐसी आपत्तियों को खासकर डिजिटल पहचान पत्र, आधार और मोबाइल फोन के इस युग में घिसा-पिटा बताते हुए खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि यह तर्क कि लोगों की पहचान के लिए जाति जरूरी है, सही नहीं है।
अदालत ने कड़े शब्दों में जाति महिमामंडन की निंदा की और इसे “राष्ट्र-विरोधी” और संवैधानिक नैतिकता का उल्लंघन बताया। अदालत ने कहा कि एफआईआर, गिरफ्तारी मेमो, जब्ती मेमो और पुलिस नोटिस बोर्ड पर जाति का उल्लेख “निष्पक्ष जांच नहीं, बल्कि पहचान उजागर करने के समान है”। अदालत ने आगे कहा कि ऐसी प्रथाएं “पूर्वाग्रह को मजबूत करती हैं, जनमत को भ्रष्ट करती हैं, न्यायिक सोच को दूषित करती हैं, मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती हैं और संवैधानिक नैतिकता को कमजोर करती हैं।”
लैंगिक समावेशिता की दिशा में एक छोटे, लेकिन प्रतीकात्मक कदम के तहत, अदालत ने यह भी आदेश दिया कि पुलिस दस्तावेजों में पिता/पति के नाम के साथ-साथ माता का नाम भी शामिल किया जाए। साथ ही निजी और सार्वजनिक वाहनों से जाति-सूचक चिह्न और नारे हटाए जाएं। गांवों, कस्बों या कॉलोनियों को जाति विशेष आधारित क्षेत्र घोषित करने वाले साइनबोर्ड हटाए जाएं और सोशल मीडिया पर जाति-महिमामंडन के खिलाफ कार्रवाई की जाए। हालांकि, आदेश में स्पष्ट किया गया है कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत जांच आदि के मामले में जहां कानूनी तौर पर जरूरत हो, जाति दर्ज की जा सकती है।
आदेश पारित होते ही राज्य सरकार ने तेजी दिखाई। राज्य भर में जातिगत संदर्भों को हटाने और जाति-आधारित राजनीतिक रैलियों पर रोक लगाने का निर्देश देते हुए, सरकार ने हाईकोर्ट का कथन दोहराया जिसमें कहा गया था कि ऐसी रैलियां ‘जाति संघर्ष को बढ़ावा देने वाली और राष्ट्रीय एकता के खिलाफ हैं।’
राज्य सरकार द्वारा दिखाई गई असामान्य तेजी ने इसके पीछे राजनीतिक गुणा-गणित और अटकलों का बाजार सजा दिया। आलोचक और पर्यवेक्षक इसपर तो एकमत हैं कि फैसला राजनीति से प्रेरित है, लेकिन अभी यह साफ नहीं है कि आखिर बीजेपी इससे हासिल क्या करना चाहती है? आखिर क्या था जिसने भाजपा बीजेपी सरकार को आनन-फानन प्रतिबंध लागू करने को प्रेरित किया?
आखिरकार, बीजेपी और निषाद पार्टी, अपना दल और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी जैसे उसके सहयोगी दल लंबे समय से जाति-आधारित लामबंदी में ही तो लगे हैं। बीजेपी नेता भी जातिगत रैलियों में शामिल होने में हमेशा आगे रहे हैं और जातिगत गणित चुनावी रणनीति को प्रभावित करता रहा है। तो क्या इस कानून का इस्तेमाल विपक्ष और दलित समूहों के खिलाफ चुनिंदा तरीके से किया जाएगा? विपक्षी नेता तो ऐसा ही मानते हैं।
सवाल है कि पुलिस एफआईआर से जाति हटा भी दें, तो क्या लोग सामाजिक समारोहों, नौकरी के इंटरव्यू या शादी की चर्चाओं में यह पूछना बंद कर देंगे- “कौन जात हो भाई?” क्या वैवाहिक विज्ञापनों में जाति को प्रथम फिल्टर के तौर पर बताना बंद कर दिया जाएगा, मसलन- “कायस्थ दुल्हन चाहिए”, “विदेश में बसा ब्राह्मण वर”, “यादव लड़का अच्छी नौकरी में है?”
क्या इंस्टाग्राम रील्स में “ठकुरई जलवा”, “जाट शक्ति” या “कुर्मी एकता” का महिमामंडन बंद हो जाएगा? कर्मचारी संघ भी जाति के आधार पर बंटे हुए हैं। आईएएस, आईपीएस और पीसीएस अधिकारी कायस्थ समाज, ब्राह्मण सभा या एससी/एसटी मंचों के आयोजनों में शामिल होने एक साथ आ रहे हैं। एक आईपीएस अधिकारी मानते हैं, “इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि जातिगत नेटवर्क तंत्र में बड़ी भूमिका निभाते हैं। यह आदेश हमें उस संस्कृति से दूर जाने के लिए कानूनी सुरक्षा तो देता है, लेकिन इसे रातोंरात खत्म करना संभव नहीं।”
शिक्षाविदों की राय बंटी हुई है। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की समाजशास्त्री डॉ. मीरा चौधरी कहती हैं, “दस्तावेजों से जाति हटाना एक शुरुआत है, लेकिन इससे जाति जनित संरचनात्मक असमानताओं पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। जाति तय करती है कि किसे नौकरी मिलेगी, किसे शादियों में बुलाना है, किसे किराये पर घर मिलेगा और कहां मिलेगा। जब तक ऐसे व्यवहार नहीं बदलेंगे, यह व्यवस्था सिर्फ प्रतीकात्मक रहेगी।”
लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आर.के. त्रिपाठी की नजर में- “यह महज उपदेश नहीं है। यह राज्य के साथ हमारे रोजमर्रा के संबंधों को आकार देने वाले कागजात से जाति हटाकर शासन को ही नए सिरे से गढ़ने का एक साहसिक प्रयास है।”
समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव इसे सतही आदेश मानते हैं। वह कहते हैं, “एक कॉलम हटाकर सदियों से चले आ रहे भेदभाव को दूर नहीं किया जा सकता। दस्तावेजों से जाति हटाने से समाज में व्याप्त जातिगत पूर्वाग्रह नहीं मिटा करते।”
अखिलेश एक और प्रासंगिक सवाल उठाते हैं: “नौकरियों, कक्षाओं और सामाजिक क्षेत्रों में जाति-आधारित भेदभाव खत्म करने के लिए सरकार क्या कदम उठा रही है? यह आदेश महज वही लक्षित करता है जो दिखाई देता है, न कि वह जो लाखों लोग रोजाना जीते हैं।” प्रोफेसर त्रिपाठी का तर्क है कि सपा और बसपा जैसी पार्टियों में बेचैनी इसलिए है क्योंकि यह आदेश सीधे तौर पर उनकी राजनीतिक लामबंदी के प्राथमिक तरीके को कमजोर करता है।
बीएसपी नेता भी असहज दिख रहे हैं। एक पदाधिकारी कहते हैं, “दलितों के लिए रैलियां और नारे सिर्फ गर्व का विषय नहीं हैं; यह सदियों से हाशिये पर पड़े रहने के बाद अपनी आवाज उठाने का एक जरिया हैं। इन पर प्रतिबंध लगा दिया गया, तो क्या समानता की आड़ में हमारी आवाजें नहीं दबा दी जाएंगी?” वह मानते हैं कि असली परीक्षा अगले महीने अक्तूबर में होगी, जब बसपा एक बड़ी रैली करने जा रही है। तब तक वे इंतजार करके घटनाक्रम पर नजर रखने की सोच रहे हैं।
लेकिन लागू कैसे होगा यह आदेश!
पुलिस अधिकारी मानते हैं कि आदेश का क्रियान्वयन अफरातफरी वाला होगा। जौनपुर में तैनात पुलिस अधिकारी निर्मल चौधरी कहते हैं, “हम तो पहले से ही ग्रामीणों के सवाल झेल रहे हैं, जो कहते हैं, ‘हमको तो जात से ही पहचानना जाता है, अब कैसे होगा?’ हमें राजनीतिक और सामाजिक दोनों तरह की प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ेगा और हम किसी जाति के खिलाफ काम करेंगे, तो हम पर पक्षपात का आरोप लगेगा। यह आदेश हमें सशक्त भी बनाता है और कलई भी खोलता है।”
एक अन्य पुलिस अधिकारी उमेश चौधरी कहते हैं, “हम जातिसूचक स्टिकर के लिए तो गाड़ी बुक कर सकते हैं, लेकिन सोशल मीडिया पर मीम या फ़ेसबुक पर रील से कैसे निपटेंगे?”
दलित विद्वान भी संशय में हैं। दलित अध्ययन के विद्वान राजेश कुमार कहते हैं, “उच्च जाति के पुरुषों के विपरीत, हमारे लिए जातिगत नारे प्रभुत्व का प्रतीक नहीं रहे; वे हमेशा दावे, अवज्ञा और प्रतिरोध के प्रतीक थे।”
इसमें प्रतिकूल प्रतिक्रिया का भी खतरा है। वर्चस्ववादी समुदाय आदेश को अपने गौरव पर चोट मान सकता है। हाशिये का समूह इसे कड़ी मेहनत से अर्जित पहचान और दृश्यता के क्षरण के रूप में ले सकता है। सरकार को सधे कदम चलना होगा।
जैसा कि एक शिक्षाविद कहते हैं: “एक ही नारा एक प्रभावशाली जाति के लिए गौरव और एक दलित के लिए अपमान का प्रतीक हो सकता है। राज्य को दोनों के बीच अंतर करना होगा।”
हालांकि, किसी ने भी अदालत पर उंगली नहीं उठाई है। न्यायमूर्ति दिवाकर के ये शब्द दिल को छूने वाले हैं कि जब तक गहरी जड़ें जमाए बैठी जाति व्यवस्था का उन्मूलन नहीं हो जाता, भारत न तो विकास कर सकता है और न ही धर्मनिरपेक्ष रह सकता है। उन्होंने जाति व्यवस्था और उसके व्यापक सामाजिक प्रभाव को खत्म करने के उद्देश्य से किसी व्यापक कानून की कमी पर ध्यान दिलाते हुए कहा, “इस लक्ष्य के लिए सरकार के हर स्तर से प्रगतिशील नीतियों, मजबूत भेदभाव-विरोधी कानूनों और परिवर्तनकारी सामाजिक कार्यक्रमों के जरिये बहु-स्तरीय प्रयासों की सतत जरूरत है।”
वक्त ही बताएगा कि यह घटनाक्रम भारत की जटिल जातिगत राजनीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित होता है या सिर्फ एक और अध्याय बनकर रह जाता है। प्रोफेसर त्रिपाठी तमाम लोगों की भावनाओं को कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं, “राज्य दस्तावेजों से जाति भले मिटा सकता है, लेकिन मन से मिटाने का काम तो सिर्फ समाज ही कर सकता है।"
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