कुशवाहा की राजनीतिक ‘खीर’ में नए जातीय समीकरणों के तड़के से उड़ी बिहार में एनडीए की नींद

बिहार में बीपी मंडल की जयंती पर आरएलएसपी नेता उपेंद्र कुशवाहा ने नए जातीय समीकरणों और गठजोड़ की खीर में जो तड़का लगाया है, उससे एनडीए की नींद उड़ सकती है। उन्होंने यादवों और कोयरी के साथ अति-पिछड़ों और दलितों का नया गठजोड़ बनाने का फार्मूला पेश किया है।

फोटो: सोशल मीडिया
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सुरुर अहमद

अगर जिंदा होते तो अब 100 वर्ष के होते बीपी मंडल। वही बीपी मंडल जिनकी अध्यक्षता वाले मंडल आयोग ने 1990 में आरक्षण की सिफारिश की थी और देश भर में बवाल हो गया था। अभी 25 अगस्त को उनकी जयंती मनाई गई। इस मौके पर एक नई किस्म के सामाजिक-राजनीतिक गठबंधन का विचार सामने रखा गया।

इस नए गठजोड़ में कुर्मियों का जिक्र तक नहीं है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इसी जाति से आते हैं। इस गठजोड़ की पेशकश किसी और ने नहीं बल्कि केंद्रीय मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री उपेंद्र कुशवाहा ने की है। कुशवाहा ने मंडल जयंती के मौके पर हुए कार्यक्रम में इस ने जातीय समीकरण की तस्वीर खींची। वैसे मंडल खुद एक जमींदार यादव परिवार से आते थे।

कुशवाहा ने खीर की उपमा देते हुए कहा कि अगर यदुवंशियों का दूध और कुशवंशियों का चावल मिल जाए तो खीर बन सकती है। यदुवंशी, यादव होते हैं और कुशवंशी कोएरी या कुशवाहा होते हैं। बिहार में यादव और कोएरी दोनों ही प्रभावशाली जातियां हैं। यादव आम तौर पर दूध का कारोबार करते हैं, तो कोएरी किसानी। संख्या के हिसाब से भी ये दोनों जातियां मजबूत हैं और बिहार की कुल आबादी का करीब बीस फीसदी हैं।

दरअसल 1930 के दशक में यादवों, कोएरी और कुर्मियों ने मिलकर त्रिवेणी संघ बनाया था। मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद इन्हीं जातियों ने तत्कालीन जनता दल से जुड़ाव किया। लेकिन 1994 में नीतीश कुमार और कुछ दूसरे लोग इससे अलग हो गए। नीतीश ने समता पार्टी बनाई, जो बाद में जनता दल यूनाइटेड बन गई। इस प्रक्रिया में कुर्मी और कोएरी का बड़ा धड़ा नीतीश कुमार के साथ चला गया, जिससे तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू यादव की ताकत में कमी आई। हालांकि फिर भी लालू यादव 2005 तक बिहार पर राज करते रहे।

राष्ट्रीय लोक सत्ता पार्टी यानी आरएलएसपी नेता उपेंद्र कुशवाहा के इस प्रस्ताव पर बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष और लालू पुत्र तेजस्वी यादव ने तपाक से मुहर लगा दी। अगर जातीय राजनीति के इस नए गठजोड़ को मजबूती मिलती है, तो एनडीए के लिए खतरे की घंटी है, क्योंकि उपेंद्र कुशवाहा ने बात को यहीं खत्म नहीं किया। उन्होंने कहा कि खीर सिर्फ दूध और चावल से नहीं बनती, और भी चीज़ें चाहिए होती हैं। ऐसे में नए गठजोड़ में अति पिछड़े वर्ग और दलितों को भी शामिल करना होगा।

बिहार में कोएरियों की समस्या यह है कि यादवों के नेता के तौर पर लालू यादव हैं तो कुर्मियों के लिए नीतीश कुमार, लेकिन कोएरी समुदाय का कोई कद्दावर नेता सामने नहीं है। हालांकि संख्या के हिसाब से यादवों के बाद उनका नंबर आता है। 1970 और 1980 के दशक तर बिहार की सोशलिस्ट पार्टियों में कोएरी समुदाय के कई नेता थे। यहां तक कि वे नक्सल आंदोलन से भी जुड़े रहे। बिहार में यूं भी कुर्मी और कोएरी को लव-कुश कहा जाता है।

लेकिन, उपेंद्र कुशवाहा को एक महत्वाकांक्षी नेता माना जाता है, जिनकी नजरें बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर जमी हैं। राजनीतिक पंडितों को याद है कि कैसे 2010 में वह नीतीश की तारीफ करते नहीं थकते थे, और नीतीश कुमार ने उन्हें राज्यसभा भी भेजा था। लेकिन इसी साल जब विधानसभा चुनाव हुए तो उनके सुर बदल गए थे। उनकी नाराजगी टिकटरों के बंटवारे को लेकर ज्यादा थी। आखिरकार उन्होंने पार्टी छोड़कर आरएलएसपी का गठन किया था। और, जैसे ही नीतीश कुमार ने महागठबंधन से नाता तोड़ एनडीए में घर वापसी की, उनकी बेचैनी फिर बढ़ने लगी। अब वह संकेत दे रहे हैं कि एनडीए के साथ उनके दिन गिने-चुने बचे हैं।

लेकिन, रोचक यह है कि उपेंद्र कुशवाहा किसी भी मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना नहीं साधते और अकसर कहते रहते हैं कि 2019 में भी मोदी की वापसी होगी।

लेकिन, राजनीति खेल में कभी सही अनुमान लगा पाया है कोई?

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