देश के इन्फ्रास्ट्रक्चर में निजी निवेश की तत्काल जरूरत, पर मोदी सरकार पर नहीं हो रहा निवेशकों को भरोसा

निर्मला सीतारमण ने कहा तो ठीक कि 2024-25 तक अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन डॉलर बनाने के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर पर 100 लाख करोड़ रुपये खर्च करने होंगे लेकिन आर्थिक जगत ने इस घोषणा को एक कान से सुना और दूसरे से निकाल दिया क्योंकि इसमें उन्हें कुछ भी ठोस नहीं लगा।

फोटोः सोशल मीडिया
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राजेश रपरिया

केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की भीमकाय निवेश की घोषणा नई बोतल में पुरानी शराब की तरह है। फिर भी अर्थव्यवस्था झूम बराबर झूम की तरह झूम नहीं पाई। वित्त मंत्री ने पिछले साल के आखिरी दिन 31 दिसंबर को बताया कि 2024- 25 तक देश की अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन (लाख करोड़) डॉलर बनाने के लिए इस अवधि में इन्फ्रास्ट्रक्चर पर तकरीबन 100 लाख करोड़ रुपये (1.4 ट्रिलियन) खर्च करने होंगे। उन्होंने यह घोषणा उस समय की जब उनका वित्त वर्ष 2019-20 के लिए पेश बजट राजस्व की कमी से लगभग धराशायी हो गया है।

ऐसा लगता है कि आर्थिक जगत ने भीमकाय निवेश की घोषणा को एक कान से सुना और दूसरे कान से निकाल दिया क्योंकि इसमें उन्हें कुछ भी ठोस नहीं लगा। बस, वह राष्ट्रीय इन्फ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन पर गठित की गई रिपोर्ट का प्रेस कांफ्रेंस में पाठ कर रही थीं। देश में ऐसे कार्यदलों की रिपोर्टों का क्या हश्र होता है, यह किसी से छुपा नहीं है। मसलन, देश में प्रत्यक्ष कर प्रणाली को सहज और सरल बनाने के लिए ऐसे अनेक कार्यदल या कमिटियों का गठन हो चुका है, उनका क्या हुआ? अब भी आयकर अधिनियम 1961 अटल खड़ा हुआ है।

रिपोर्ट पर सरकार में चर्चा तक नहीं

संभवतः वित्त मंत्री सीतारमण देश की ऐसी पहली वित्त मंत्री बन गई हैं जिन्होंने कार्यदल की उस रिपोर्ट को पढ़ने के लिए प्रेस कांफ्रेंस की जिसे खुद उन्होंने गौर से नहीं पढ़ने की बात कही है। उन्होंने यह संकेत दिया कि सरकार इस कार्यदल की सिफारिशों पर गौर करेगी। वैसे, राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) की तरह इस रिपोर्ट पर भी सरकार में कोई चर्चा नहीं हुई है। इस प्रेस कांफ्रेंस में वित्त मंत्री ने बताया कि मुख्य चुनौती बुनियादी ढांचागत सुविधाओं के विकास पर किए जाने वाले वार्षिक निवेश में वृद्धि करना है ताकि इन इन्फ्रास्ट्रक्चर सुविधाओं का अभाव विकास में बाधक न बन जाए।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2019 के स्वतत्रंता दिवस संबोधन में अगले पांच वर्षों में बुनियादी सामाजिक और आर्थिक ढांचागत सुविधाओं के विकास पर 100 लाख करोड़ रुपये खर्च का जिक्र जोर-शोर से किया था। वित्त मंत्री की दी जानकारी के अनुसार, 2020 से 2025 की अवधि में अनुमानित पूंजीगत निवेश का बड़ा हिस्सा (70 फीसदी) मुख्यतः उर्जा (24 फीसदी), सड़कों (19 फीसदी), शहरी विकास (16 फीसदी) और भारतीय रेल (13 फीसदी) पर खर्च होगा। अनुमानित पूंजीगत निवेश का बाकी बचा 30 फीसदी हिस्सा हवाई अड्डों, बंदरगाहों, दूरसंचार, सिंचाई, ग्रामीण, बुनियादी ढांचा, जल और सफाई, कृषि और खाद्य प्रसंस्करण उद्योग, उच्च शिक्षा, स्वास्थ्य और समाज कल्याण, खेल, पर्यटन आदि पर खर्च होगा। इसमें 42.7 लाख करोड़ रुपये (42 फीसदी) की परियोजनाएं कार्यान्वयन स्तर पर है। 32.7 लाख करोड़ रुपये (32 फीसदी) की परियोजनाओं का मसौदा तैयार हो चुका है और 24 फीसदी परियोजनाओं की प्रारंभिक कार्ययोजना तैयार हो रही है।


इन परियोजनाओं के लिए भारी निजी निवेश की आवश्यकता होगी। पर कार्यदल की रिपोर्ट में नितांत नया कुछ भी नहीं है। बीती जुलाई में संसद में पेश आर्थिक सर्वेक्षण में ऐसे कई ब्यौरे मौजूद हैं। इस सर्वेक्षण में बताया गया है कि भारत को इन्फ्रास्ट्रक्चर पर सालाना खर्च दोगुना बढ़ाकर 200 बिलियन डॉलर (लगभग 14 हजार अरब रुपये) करने की आवश्यक्ता है। पर इसके लिए असल चुनौती इन्फ्रास्ट्रक्चर में निजी निवेश को बढ़ाने की है। अभी देश में तकरीबन 100 से 110 बिलियन डॉलर का निवेश इन्फ्रास्ट्रक्चर में होता है और 90 बिलियन डॉलर के इस अंतर को पाटने के लिए नवोन्मेषी तरीकों की आवश्यकता है।

इसमें कोई दो मत नहीं है कि देश की मौजूदा राजस्व की स्थिति को देखते हुए इन्फ्रास्ट्रक्चर निवेश में निजी निवेश बढ़ाने की तत्काल दरकार है। देश को इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास के लिए सालाना जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का 7-8 फीसदी खर्च करने की आवश्यकता है जो तकरीबन 200 बिलियन डॉलर बैठती है। 2032 तक देश की 10 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने के लिए मजबूत इन्फ्रास्ट्रकचर की जरूरत पड़ेगी और लक्षित इन्फ्रास्ट्रक्चर में केवल सरकारी निवेश के बूते पर हासिल नहीं किया जा सकता है।

अटके हैं लाख करोड़ रुपये

इन्फ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन कार्यदल की रिपोर्ट की सबसे बड़ी कमी है कि इसमें कहीं भी अटकी हुईं परियोजनाओं, निर्धारित समय से विलंब से चली चल रही परियोजनाओं और ऐसी परियोजनाओं पर कितनी लागत बढ़ चुकी है, का जिक्र नहीं है। नई परियोजनाओं की घोषणा करना हर राजनेता का शगल होता है। पर बहुत कम ऐसे राजनेता होते हैं जो उनके द्वारा शिलान्यास की गई परियोजना का उद्घाटन कर पाते हैं, विशेषकर इन्फ्रास्ट्रक्चर की परियोजनाओं का।

केंद्र सरकार का सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के कार्यन्वयन की मॉनिटरिंग करता है। इस मंत्रालय की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार, 150 करोड़ रुपये या उससे अधिक की कुल 1,623 इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में से 355 परियोजनाओं की लागत विलंब या अन्य कारणों से 3.88 लाख करोड़ रुपये बढ़ चुकी है। इन 1,623 परियोजनाओं की मूल लागत 19 लाख 33 हजार करोड़ रुपये आंकी गई थी, लेकिन अब इनकी लागत बढ़ कर 23 लाख 21 हजार करोड़ रुपये हो चुकी हैं, यानी मूल लागत में 20 फीसदी की वृद्धि हो चुकी है।


इस रिपोर्ट के अनुसार, इन परियोजनाओं पर जुलाई, 2019 तक तकरीबन 9 लाख 47 हजार करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं जो इन परियोजनाओं की अनुमानित लागत का तकरीबन 40 फीसदी है। इसी रिपोर्ट में बताया गया है कि परियोजनाओं के विलंब के मुख्य कारणों में भूमि अधिग्रहण, वन विभाग से अनुमति और निर्माण उपकरणों की आपूर्ति है। विलंब के अन्य कारणों जैसे फंड की कमी, प्राकृतिक आपदा, निर्माण कार्य की धीमी रफ्तार, भौगौलिक कारण, श्रमिकों का अभाव, न्यायिक मसले और कानून-व्यवस्था आदि प्रमुख हैं जिनसे परियोजनाओं की लागत बढ़ जाती है।

पर प्रायः परियोजना बनाते समय सरकार की अदूरदर्शिता और अतार्किक कार्य योजना को भी नहीं नकारा जा सकता है जिनसे इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं समय से पूरी नहीं हो पाती हैं। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि इन परियोजनाओं से जुड़ी एजेंसियां, संशोधित लागत का सही अनुमान और उनके कार्यान्वयन का पूरा शेडयूल (समय सारिणी) नहीं देती हैं जिससे लगता है कि विलंब और बढ़ती लागत के आंकड़े वास्तविक आंकड़ों से कम नजर आते हैं।

इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं का एनपीए (नॉन परफार्मिंग एसेट्स) और डूबता धन अरसे से भारतीय बैंकिंग उद्योग का सबसे बड़ा सिरदर्द बना हुआ है जिससे बैंकों के कर्ज देने की क्षमता कम होती है। इन डूबते ऋणों को बट्टे खाते में डालने से उनके लाभ पर असर पड़ता है जिसका असली नुकसान बैंकों के छोटे-छोटे ग्राहकों को होता है। एक रिपोर्ट के अनुसार, केवल पांच उद्योग स्टील, पॉवर, टेलीकॉम, इन्फ्रास्ट्रक्चर और टेक्सटाइल में बैंकों के 60 फीसदी दबावग्रस्त एसेट्स फंसे हुए हैं। इनमें टेक्सटाइल उद्योग को छोड़कर बाकी सभी उद्योग इन्फ्रास्ट्रक्चर श्रेणी में आते हैं। अब टेलीकॉम उद्योग के कर्जों के डूबने का और खतरा पैदा हो गया है। यदि सरकार इस उद्योग को लाखों करोड़ रुपये के बकाये भुगतान में राहत नहीं देती है तो बैंकों के लिए नया सिरदर्द पैदा हो सकता है। भारतीय रिजर्व बैंक ने 2017 में चेताया था कि इन्फ्रास्ट्रक्चर के दबावग्रस्त कर्ज बैंकों के पूरे लाभ को खत्म कर सकते हैं।

इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को जमीन पर उतारने के लिए इनमें निजी निवेश की सरकार की आवश्यकता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। पर बड़ी व्यावहारिक दिक्कत यह है कि ऐसी परियोजनाओं में निजी क्षेत्र जल्द हाथ डालने के लिए तैयार नहीं होता है। क्योंकि इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश करने वाली अनेक कंपनियां दिवालिया हो चुकी हैं। आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 में साफ इंगित किया गया है कि निजी क्षेत्र की कंपनियां केवल अधिक उन्नत राज्यों में निवेश करने की ज्यादा इच्छुक रहती हैं और पिछड़े क्षेत्रों में निवेश करने से परहेज करती हैं जिससे इन्फ्रास्ट्रक्चर समेत कई तरह के असंतुलन पैदा हो जाते हैं।

इसके साथ ही निजी क्षेत्र की कंपनियां छोटी अवधि की इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में निवेश के लिए जल्द तैयार हो जाती हैं क्योंकि उनमें पूंजी कम समय में फ्री हो जाती है और रिटर्न भी जल्द मिलते हैं। देश के आका चीन की तर्ज पर विशाल, मजबूत और विश्व स्तर के इन्फ्रास्ट्रक्चर का निर्माण करना चाहते हैं, पर वह यह भूल जाते हैं कि चीन में सरकारी पूंजी से ही इन्फ्रास्ट्रक्चर का इतना उन्नत और तेज विकास हुआ है। यूरोप के अनेक देशों ने सरकारी निवेश से ही अपने यहां इन्फ्रास्ट्रक्चर का निर्माण किया है। पर अपने देश की दिक्कत यह है कि सरकार के पास खर्च करने के लिए पर्याप्त धन नहीं है क्योंकि सरकारी खजाने की हालत काफी तंग है। इसलिए निवेश के लिए सरकार की निर्भरता निजी क्षेत्र पर बढ़ती जा रही है।

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