राम पुनियानी का लेखः वंदे मातरम विवाद, पहचान से जुड़े मुद्दों पर जोर

जो तत्व आजादी की लड़ाई से दूर रहे वे आज इस गीत को पूरा गाए जाने की मांग कर रहे हैं, वहीं उन्होंने अपनी शाखाओं में इसे कभी नहीं गाया। उनका अपना गान था- नमस्ते सदा वत्सले। वे अपने भगवा झंडे से चिपके रहे, और उन्होंने तिरंगे को स्वीकार नहीं किया।

वंदे मातरम विवाद, पहचान से जुड़े मुद्दों पर जोर
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राम पुनियानी

बीजेपी पहचान से जुड़े मुद्दों के सहारे ही आगे बढ़ती रही है। वह ऐसे मुद्दों का इस्तेमाल समाज को ध्रुवीकृत करने के लिए करती है और चुनावों में इसका फायदा उठाती है। अब तक बाबरी मस्जिद-राम मंदिर से शुरू कर गाय-गौमांस, लव जिहाद और कई अन्य प्रकार के जिहादों जैसे मुद्दों का उपयोग वह कर चुकी है। अब एक अन्य मुद्दे को जोर-शोर से उठाया जा रहा है। वह है राष्ट्रगीत वंदे मातरम का मुद्दा।

बंकिम चन्द्र चटर्जी, जो ब्रिटिश सरकार में डिप्टी कलेक्टर थे, के द्वारा लिखित इस गाने के 150 साल पूरे होने (7 नवंबर 2025) के अवसर पर इसे सत्ताधारियों द्वारा एक मुद्दा बना लिया गया है। मोदी ने कहा कि नेहरू और कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के दबाव में इस गाने के एक हिस्से को हटा दिया। उनके अनुसार मुस्लिम लीग के आगे झुक जाने की इस प्रवृत्ति के चलते देश का विभाजन हुआ।

अन्य दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववादियों ने उनकी हां में हां मिलाते हुए यही बात दोहराना शुरू कर दिया। ऐसी बातें करके वे न केवल एक व्यर्थ के मुद्दे को राजनीति के केन्द्र में लाने का प्रयास कर रहे हैं बल्कि एक बार फिर नेहरू पर कीचड़ उछालने की कोशिश भी कर रहे हैं। नेहरू को बदनाम करने का एक भी मौका हाथ से न जाने देने की नीति पर दक्षिणपंथी धारा लगातार अमल करती रही है। मोदी सरकार की हर असफलता का ठीकरा नेहरू पर ही फोड़ा जाता रहा है।

वंदे मातरम 1870 के दशक में लिखा गया था और अप्रकाशित रहा। बाद में इसमें कुछ और पंक्तियां जोड़ी गईं और यह चटर्जी के उपन्यास 'आनंद मठ' का भाग बना। उनका यह उपन्यास सन्यासियों (हिन्दू) और फकीरों (मुस्लिम) के विद्रोह  पर केन्द्रित था। मगर उपन्यास में फकीरों के विद्रोह को नहीं दिखाया गया और उस समय के घटनाक्रम को मुख्यतः मुस्लिम शासक के खिलाफ सन्यासी विद्रोह के रूप में प्रस्तुत किया गया। उपन्यास में एक ऐसे भारत का स्वप्न देखा गया है जिसमें मस्जिदों का स्थान मंदिर ले रहे हैं। उपन्यास का अंत मुस्लिम राजा की गद्दी छिनने और ब्रिटिश शासन की पुनर्स्थापना के साथ होता है।


यह भी एक विडंबना है कि आगे चलकर वंदे मातरम अंग्रेजों के खिलाफ एक राजनैतिक नारा बना और यह ब्रिटिश शासन के विरूद्ध हुई बगावतों और आंदोलनों में युद्धघोष की तरह इस्तेमाल हुआ। सन् 1905 में जब अंग्रेजों ने बंगाल का धर्म के आधार पर विभाजन किया, तब इसका जबरदस्त विरोध हुआ और वन्दे मातरम और आमार सोनार बांग्ला- ये दोनों गीत व्यापक तौर पर गाए गए। वंदे मातरम सारे भारत में अत्यंत लोकप्रिय हो गया और राज्यों में विधानमंडलों के गठन के बाद यह उनकी बैठकों और कुछ स्कूलों में गाया जाने लगा। ज्यादातर प्रांतों में सत्ता कांग्रेस के पास थी और मुस्लिम लीग का शासन मात्र तीन प्रांतों में था।

मुस्लिम लीग का साम्प्रदायिक नेता बनने के बाद जिन्ना ने इस गीत को हिन्दू धर्म पर केन्द्रित बताया। उन्होंने इस आधार पर इसका विरोध किया कि इसमें मूर्ति पूजा का ज़िक्र है। यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि मूर्ति पूजा का विरोध सिर्फ इस्लाम नहीं करता बल्कि हिन्दू धर्म का आर्य समाज संप्रदाय भी करता है। जिन्ना के इस विरोध के बारे में जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचन्द्र बोस के बीच पत्राचार के माध्यम से विचार विमर्श हुआ। नेहरू ने इस संबंध में महान साहित्यकार गुरूदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर की राय लेने का जिम्मा लिया। गुरूदेव का कहना था कि इसके शुरूआती दो छंद सभी को स्वीकार्य हैं क्योंकि इनमें मातृभूमि की वंदना की गई है। शेष चार छंदों में हिन्दू धर्म की छवि उभरती है इसलिए उन्हें त्यागा जा सकता है।

चूंकि यह गीत अत्यंत लोकप्रिय हो चुका था इसलिए इस मुद्दे पर कांग्रेस कार्यसमिति में गंभीर विचर-विमर्श हुआ। कार्यसमिति इस नतीजे पर पहुंची कि ‘‘ये दोनों छंद (पहला और दूसरा) विरोध करने वालों के नजरिए से भी किसी भी तरह से आपत्तिजनक नहीं हैं और इनमें गीत का सार मौजूद है।‘‘ समिति ने अनुशंसा की कि जब भी राष्ट्रस्तरीय बैठकों और सम्मेलनों में ‘वंदे मातरम‘ का गायन किया जाए, तब केवल ये दो छंद ही गाए जाएं और रबीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा तैयार की गई धुन का अनुसरण किया जाए। समिति को विश्वास था कि इस निर्णय से सारी शिकायतों का आधार समाप्त हो जाएगा और गीत देश के सभी समुदायों को स्वीकार्य होगा।‘‘

संविधान सभा की राष्ट्रगान समिति, जिसमें वल्लभ भाई पटेल, के एम मुंशी एवं अन्य शामिल थे, ने तीन गीतों पर विचार किया। मोहम्मद इकबाल रचित सारे जहां से अच्छा (जो बोल की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ था), वंदे मातरम और जन गण मन। सारे जहां... को इसलिए छोड़ दिया गया क्योंकि इकबाल स्वयं पाकिस्तान के जबरदस्त समर्थक बन गए थे। वंदे मातरम के दो शुरूआती छंदों का राष्ट्रगीत के रूप में चयन किया गया और जन गण मन को राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार किया गया। वंदे मातरम और जन गण मन दोनों का दर्जा एक समान है।


इस मसले पर फैसला काफी हद तक सर्वसम्मति से हुआ था। आज दशकों बाद क्यों इसे दुबारा उठाया जा रहा है? इस पर चर्चा के लिए संसद में इतना अधिक समय क्यों निर्धारित किया गया? हम जानते हैं कि देश विभिन्न स्तरों पर तरह-तरह की समस्याओं और अभावों से जूझ रहा है। गरीबी, बेरोजगारी, प्रदूषण, जन स्वास्थ्य और शिक्षा का गिरता स्तर आदि। इस समय इस मुद्दे को उठाने के पीछे साम्प्रदायिक एजेंडे को आगे बढ़ाने का उद्देश्य हो सकता है। जब जिन्ना ने 1930 के दशक में यह मुद्दा उठाया था तब नेहरू ने साफ शब्दों में कहा था कि यह मुद्दा साम्प्रदायिक तत्व उठा रहे हैं। ठीक यही अब भी हो रहा है। अब जिन्ना की धारा की विरोधी सांप्रदायिक धारा भारतीय संस्कारों, संवैधानिक मूल्यों और देश के  बहुवाद पर प्रहार कर रही है।

संयोगवश जो साम्प्रदायिक धारा इस गाने को पूरा गाये जाने की वकालत कर रही है, उसने इसे कभी नहीं गाया। इसे मुख्यतः भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सम्मेलनों में गाया जाता था। वंदे मातरम का नारा अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करने वालों द्वारा बुलंद किया जाता था। चूंकि आरएसएस आजादी की लड़ाई से दूर रहा, बल्कि उसने अंग्रेजों की ‘फूट डालो राज करो‘ की नीति के अमल में उनकी सहायता की, इसलिए उससे जुड़े तत्वों ने न तो यह गाना गाया और न यह नारा बुलंद किया।

भारत का ब्रिटिश-विरोधी संघर्ष बहुधर्मी, बहुभाषायी और बहुजातीय था। उसमें महिलाओं और पुरूषों दोनों ने भाग लिया ताकि एक एकताबद्ध भारत उभरे। मुस्लिम लीग मुस्लिम बहुमत वाले इलाकों को जोड़कर पाकिस्तान बनाए जाने की मांग कर रहा था और हिंदू महासभा और आरएसएस हिन्दू राष्ट्र के लिए काम कर रहे थे। संविधान सभा एक तरह से उभरते हुए भारत की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व कर रही थी। वंदे मातरम-जन गण मन के मसले पर फैसला भारत के प्रतिनिधियों ने, भारतीय राष्ट्रवाद के पितृ पुरूषों ने किया था।

जो तत्व आजादी की लड़ाई से दूर रहे वे भारतीय संविधान के मूल्यों का पालन नहीं कर रहे हैं। जहां आज ये तत्व इस गीत को पूरा गाए जाने की मांग कर रहे हैं, वहीं उन्होंने अपनी शाखाओं में इसे कभी नहीं गाया। उनका अपना गान था- नमस्ते सदा वत्सले (प्रिय मातृभूमि तेरा अभिवादन है)। वे अपने भगवा झंडे से चिपके रहे, और उन्होंने तिरंगे को स्वीकार नहीं किया। संविधान के प्रति उनकी आस्था मात्र दिखावे तक सीमित है।

इस पूरे गाने को स्वीकारने का अत्यंत नकारात्मक नतीजा होगा। गैर-हिन्दुओं द्वारा इसे स्कूलों और अन्य सार्वजनिक संस्थाओं में गाया जाना उन बहुत से लोगों को पसंद नहीं आएगा जो पहले से उनकी पहचान पर हो रहे हमलों से भयभीत हैं और जिन्हें पहचान से जुड़े मुद्दों को प्रधानता दिए जाने के कारण विभिन्न स्तरों पर अपमान झेलना पड़ रहा है।

(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)

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