न्यायाधीशों के भाषणों जैसा उनका फैसला भी हो, वरना पुलिस थाने प्रताड़ना और मानवाधिकार हनन के गढ़ बने रहेंगे

नेशनल कैंपेन अगेंस्ट टार्चर की रिपोर्ट के अनुसार पुलिस हिरासत में मारे जाने वालों में अधिकतर गरीब, अल्पसंख्यक या फिर सीमान्त आबादी के लोग हैं। 2019 में कुल 125 मौतों में से 75 गरीब और सीमान्त, 13 दलित और 15 मुस्लिम हैं। इस वर्ष 4 महिलाओं की भी हत्या की गई।

फोटोः सोशल मीडिया
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महेन्द्र पांडे

इसी 8 अगस्त को नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी के एक समारोह में सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश ने एक लम्बा सा भाषण दिया, जिसमें कहा कि मानवाधिकार हनन के सन्दर्भ में पुलिस स्टेशन देश में सबसे खतरनाक स्थान हैं। पुलिस थानों को मानवाधिकार के लिए सबसे सुरक्षित स्थान होना चाहिए, पर हमारे देश में ये मानवाधिकार हनन और शारीरिक प्रताड़ना के गढ़ बन गए हैं। हिरासत में यातना और दूसरी पुलिसिया ज्यादतियां समाज के लिए बहुत बड़ी समस्याएं हैं, पर दुखद हैं कि यह सब आज तक चल रहा है। प्रधान न्यायाधीश ने आगे कहा कि पुलिस यातना का शिकार सबसे अधिक गरीब होते हैं, पर अनेक प्रभावी लोगों पर भी पुलिस थर्ड डिग्री टार्चर कर देती है।

सरकार ने हाल में ही बताया है कि पिछले तीन वर्षों के दौरान देश के पुलिस थानों में 348 मौतें दर्ज की गईं हैं और पुलिस यातना के 1189 मामले सामने आए हैं। प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि इसका एक बड़ा कारण यह है कि हिरासत में रखे गए लोगों के पास पूछताछ के समय मदद के लिए कोई वकील नहीं होता। जाहिर है, अधिकतर लोग गरीब हैं और वकील का खर्च नहीं उठा सकते और न ही उन्हें यह जानकारी है। पर, जो वकील का खर्च नहीं उठा सकते, उनकी मुफ्त मदद के लिए नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी जैसी संस्थाएं हैं। ऐसी संस्थाओं के बारे में लोगों को जागरूक करने की जरूरत है- ऐसी सूचनाएं हरेक पुलिस थाने के बाहर प्रमुखता से लगाई जानी चाहिए, जिससे पुलिस स्टेशन में जाने के पहले लोगों को यह पता हो। प्रमुख न्यायाधीश ने आगे कहा कि ऐसी सूचनाएं और जानकारी घर-घर पहुंचाने के लिए डाक विभाग की मदद भी ली जा सकती है।

हमारे देश में प्रतिदिन औसतन पांच लोग हिरासत में मार दिए जाते हैं। पिछले वर्ष संसद में जानकारी दी गई थी कि अप्रैल 2019 से मार्च 2020 के बीच देश में हिरासत में कुल 1697 व्यक्तियों की मृत्यु दर्ज की गई, जिसमें से 1584 मौतें न्यायिक हिरासत में और 113 मौतें पुलिस हिरासत में हुई हैं। हालांकि, मानवाधिकार कार्यकर्ता और विशेषज्ञ इन आंकड़ों पर भरोसा नहीं करते, उनके अनुसार सरकार की संख्या वास्तविक संख्या की एक-तिहाई से अधिक नहीं है। फिर भी, जिस सरकार के पास प्रवासी मजदूरों की मौत का आंकड़ा नहीं हो, जिस सरकार के पास कोरोना के दौरान ड्यूटी करते स्वास्थ्यकर्मियों की मौत का आंकड़ा नहीं हो, जिस सरकार के पास ऑक्सीजन से होने वाली मौतों का आंकड़ा नहीं हो, जिस सरकार के पास नदियों में बहने वाली लाशों का आंकड़ा नहीं हो, जिस सरकार के पास बेरोजगारी का आंकड़ा नहीं हो- उस सरकार के पास हिरासत में मौतों का अधकचरा ही सही पर आंकड़ा हो, यही आश्चर्य का विषय है।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार न्यायिक हिरासत के सन्दर्भ में सबसे अधिक 400 मौतें योगी जी के तथाकथित सबसे अच्छी कानून-व्यवस्था वाले उत्तर प्रदेश में दर्ज की गई हैं। इसके बाद के राज्य हैं- मध्य प्रदेश में 143, पश्चिम बंगाल में 115, बिहार में 105, पंजाब में 93 और महाराष्ट्र में 91 मौतें। पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों में संख्या के अनुसार 14 मौतों के साथ मध्य प्रदेश सबसे आगे है, इसके बाद तमिलनाडु और गुजरात में 12-12 मौतें दर्ज की गई हैं। संसद को आगे बताया गया कि इसी अवधि के दौरान देश में 112 पुलिस एनकाउंटर किये गए। आश्चर्य यह है कि एनकाउंटर (उत्तर) प्रदेश का नाम 26 पुलिस एनकाउंटर के साथ दूसरे स्थान पर था, जबकि सबसे अधिक 39 एनकाउंटर छत्तीसगढ़ के नाम दर्ज हैं।


पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों के आंकड़े सरकार की ही दो संस्थाओं के अलग-अलग रहते हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार पुलिस हिरासत में प्रति वर्ष औसतन 98 मौतें होतीं हैं, पर नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन के अनुसार यह आंकड़ा 143 है।

गैर-सरकारी संस्था नेशनल कैंपेन अगेंस्ट टार्चर ने इंडियन एनुअल रिपोर्ट ऑन टार्चर 2019 को पिछले वर्ष प्रकाशित किया था, इसके अनुसार 2019 के दौरान देश में हिरासत में मरने वालों की संख्या 1731 है, यह संख्या भी लगभग 5 मौत प्रतिदिन है। कुल मौतों में से 1606 मौतें न्यायिक हिरासत में और शेष 125 पुलिस हिरासत में हुई हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार पुलिस हिरासत में मौत की संख्या से क्रमवार राज्य हैं- उत्तर प्रदेश (14), तमिलनाडु (11), पंजाब (11), बिहार (10), मध्य प्रदेश (9), गुजरात (8), दिल्ली (7), ओडिशा (7), झारखंड (6), छत्तीसगढ़ (5), महाराष्ट्र (5), राजस्थान (5), आंध्र प्रदेश (4), हरियाणा (4), जम्मू और काश्मीर (2), उत्तराखंड (2), मणिपुर (2), असम (1), हिमाचल प्रदेश (1), तेलंगाना (1) और त्रिपुरा (1)।

इस रिपोर्ट के अनुसार पुलिस हिरासत में होने वाली कुल 125 मौतों में से 93, यानी 74.4 फीसद का कारण पुलिस द्वारा दी जाने वाली यातना है, 24 यानी 19.2 प्रतिशत की मृत्यु का कारण संदिग्ध है– इसमें 16 की मृत्यु का कारण आत्महत्या, 7 का कारण बीमारी और 1 का कारण चोट है। कुल 5 मौतों यानी 4 प्रतिशत का कारण स्पष्ट नहीं है। नेशनल कैंपेन अगेंस्ट टार्चर के अनुसार पुलिस यातना में वो सभी तरीके हैं जो दरिन्दे और खूंख्वार अपराधी हत्याओं के लिए अपनाते हैं। डंडे मारना, उल्टा लटकाना, या गुप्तागों में रॉड डालना या लाल मिर्च पाउडर उडेलना, मुंह में मल-मूत्र डालना जैसे तरीके तो पुलिस लगातार अपनाती रही है, पर अब तो शरीर में कील ठोकना (बिहार में गुफरान आलम और तस्लीम अंसारी की मौत), गर्म सरिये से शरीर दागना (जम्मू और काश्मीर में रिजवान असद पंडित की मौत), पैर के तलवों पर बेतहाशा प्रहार (केरल में राजकुमार की मौत), हाथ की या पैर की हड्डियां तोड़ना, महिलाओं का बलात्कार और गुप्तांगों या जननांगों पर बलपूर्वक प्रहार (हरियाणा में ब्रजपाल मौर्या और लीना निरंजनी की मौत) जैसे तरीके भी हमारी बहादुर पुलिस अपनाने लगी है।

इस रिपोर्ट के अनुसार पुलिस हिरासत में मारे जाने वालों में अधिकतर गरीब, अल्पसंख्यक या फिर सीमान्त आबादी के लोग हैं। कुल 125 मौतों में से 75 गरीब और सीमान्त, 13 दलित और 15 मुस्लिम हैं। पुलिस हिरासत में पिछले वर्ष कुल 4 महिलाओं की भी ह्त्या की गई। रिपोर्ट के अनुसार न्यायिक हिरासत में मौतें अधिक है, क्योंकि इसमें लोग तीन महीने से 6 महीने तक के लिए जेल भेजे जाते है, इसमें लोगों की संख्या भी बहुत अधिक रहती है। कुछ लोग बीमार होकर मर जाते हैं, कुछ जेल के अन्दर गैंगवार का निशाना बनते हैं और शेष पुलिस या फिर जेल अधिकारियों द्वारा मार दिए जाते हैं। पुलिस हिरासत में लोग 2-3 दिनों के लिए रहते हैं और अधिकतर मामलों में पुलिस यातना देकर लोगों को मार डालती है, फिर अस्पताल ले जाकर अस्पताल में मृत्यु का सर्टिफिकेट लेकर आ जाती है।


नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन द्वारा अगस्त 2020 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार पिछले दशक (2010-2019) के दौरान देश में कुल 17146 व्यक्तियों की मृत्यु हिरासत में हुई है, जिसमें से 1387 मामले पुलिस हिरासत के हैं। पिछले दशक के दौरान हरेक वर्ष औसतन 1576 मौतें न्यायिक हिरासत में और 139 मौतें पुलिस हिरासत में दर्ज की गईं हैं। नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन के अनुसार वर्ष 2020 में जनवरी से जुलाई के बीच हिरासत में कुल 914 मौतें हुईं हैं, जिनमें से 53 मौतें पुलिस हिरासत में दर्ज की गईं हैं।

इंडियन लॉ कमीशन ने वर्ष 1984 और फिर 1994 में सरकार को सुझाव दिया था कि यदि पुलिस हिरासत में किसी की मौत होती है तो सीधे तौर पर पुलिस को जिम्मेदार माना जाए, पर इस सुझाव को आज तक सरकार ने स्वीकार नहीं किया है। अनेक राज्य सरकारें तो ऐसी मौतों या फर्जी मुठभेड़ों के बाद सम्बंधित पुलिस वालों को तरक्की देकर सम्मानित भी करती हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि ऐसे मामलों में तमाम कानूनों और प्रावधानों के बाद भी वर्ष 2005 से लेकर अब तक देश में एक भी पुलिस वाले को हिरासत में हत्या के लिए जिम्मेदार नहीं माना गया है, जाहिर है किसी को सजा भी नहीं हुई है।

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