विजय दिवसः जब इंदिरा के फौलादी इरादों को दुनिया ने किया सलाम, दुनिया के नक्शे पर उभरा बांग्लादेश का नाम

कल 16 दिसंबर है और 1971 में इसी दिन भारत के सामने पाकिस्तान की सेना ने आत्मसमर्पण किया था और दुनिया के नक्शे पर बांग्लादेश नाम के एक नए राष्ट्र का उदय हुआ था। भारत के इस शौर्य पर पूरी दुनिया ने तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी के फौलादी इरादों को सलाम किया था।

फोटोः सोशल मीडिया
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अरुण शर्मा

कहते हैं कि जब इंदिरा गांधी का जन्म हुआ था, तब नेहरू परिवार की महिलाएं खुश नहीं थीं। उन्हें लड़का चाहिए था। उनकी दादी ने कहा था, ‘बेटा होता तो अच्छा होता।’ यह बात सुनकर नेहरू के पिता और इंदिरा गांधी के दादा मोतीलाल नाराज हो गए थे। उन्होंने कहा था, “जवाहर की यह बेटी हजारों बेटों से बेहतर साबित होगी।” उनकी टिप्पणी ने महिलाओं को चुप करा दिया।

इंदिरा प्रियदर्शिनी उस भविष्यवाणी पर पूरी तरह खरी उतरीं। राजनीति में आने के बाद एक सशक्त नेता के तौर पर उन्होंने बार-बार इसे साबित किया। खासकर बांग्लादेश युद्ध के दौरान उनके लौह व्यक्तित्व ने एक अलग ही छाप छोड़ी थी। निश्चित रूप से वह इंदिरा के जीवन का सबसे अच्छा समय था।

साल 1971 के पहले तीन महीनों के दौरान पूर्वी पाकिस्तान में अचानक राजनीतिक उथल-पुथल शुरू हो गई, जब पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह जनरल याह्या खान ने मुजीब की अवामी लीग को सत्ता सौंपने से इनकार कर दिया, जिसने पूर्वी पाकिस्तान की 153 सीटों में से 151 और पाकिस्तान की कुल 313 सीटों में से 167 सीटों पर जीत हासिल की थी। भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने मात्र 82 सीटें हासिल की थीं, जो अवामी लीग के मुकाबले आधे से भी कम थीं। जनादेश मुजीब के पास था। लोग सड़कों पर उतर आए। ढाका में बंद के आहवान के साथ एक सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत हो गई थी।

जवाब में जनरल याह्या खान ने ढाका में जनरल टिक्का खान को मार्शल लॉ प्रशासक नियुक्त कर दिया और उन्हें मनमर्जी करने की खुली छूट देते हुए आंदोलन को कुचलने का निर्देश दिया। टिक्का खान ने अपने सैनिकों के साथ आंदोलनकारियों पर अमानवीय अत्याचार का सिलसिला शुरू कर दिया। लाखों की संख्या में लोगों को यातना दी गई, उन्हें क्रूरतापूर्वक मार डाला गया और अनगिनत महिलाएं बलात्कार का शिकार हुईं। मुजीब को गिरफ्तार कर पश्चिम पाकिस्तान भेज दिया गया।

जनरल टिक्का की दरिदंगी से भयभीत पूर्वी पाकिस्तानी लाखों की संख्या में भारतीय सीमाओं की ओर भागने लगे। नवंबर, 1971 के अंत तक करीब एक करोड़ शरणार्थी भारत की सीमा में प्रवेश कर चुके थे। इतनी बड़ी संख्या में यहां शरण लेने वाले लोगों को आश्रय, कपड़ा और भोजन उपलब्ध कराना था जो एक गंभीर मानवीय संकट बन गया था। जनरल याह्या खान के आतंक के दौर की शुरुआत के छह-सात दिन के अंदर इंदिरा गांधी ने लोकसभा में ‘पूर्वी बंगाल’ के लोगों के प्रति भारत की सहानुभूति और एकजुटता दर्शाने का ऐलान कर दिया।

इंदिरा शुरुआत से ही पूर्वी पाकिस्तान की समस्या को एक मानवीय समस्या के तौर पर देख रही थीं। उन्होंने कहा, ‘हम सदैव मानवाधिकारों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध रहे हैं,’ लिहाजा ‘यह सदन निर्दोष और निरीह लोगों पर ढाए जा रहे अत्याचार और बर्बर नरसंहार पर तत्काल रोक लगाने की मांग करता है। सदन दुनिया के सभी लोगों और सरकारों से आह्वान करता है कि वे पाकिस्तान सरकार पर नरसंहार रोकने के लिए दबाव बनाएं।’

हालांकि मार्च, 1971 में वैश्विक स्थिति मोटे तौर पर भारत के पक्ष में नहीं थी। अमरीका खुले रूप से पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह याह्या खान को समर्थन दे रहा था। वहीं, पाकिस्तान की पीपुल्स पार्टी के प्रमुख जुल्फिकार अली भुट्टो को चीन से समर्थन मिल रहा था। माना जाता है कि राष्ट्रपति निक्सन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर एशिया के अपने लंबे दौरे के दौरान 7 जुलाई,1971 को थोड़े समय के लिए जब दिल्ली पहुंचे तो उन्होंने इंदिरा और पी. एन. हक्सर को कह दिया था कि ‘अगर भारत और पाकिस्तान के बीच बांग्लादेश के मसले पर युद्ध हुआ तो अमेरिका भारत की मदद नहीं कर पाएगा।’ (कैथरीन फ्रैंक, इंदिरा: द लाइफ ऑफ इंदिरा गांधी)।

डॉम मोरिस लिखते हैं, “जब अमेरिका और चीन की बंदूकें भारत की ओर तनी हुई थीं, नाजुक दिखने वाली श्रीमती गांधी ने एक मंझी हुई शतरंज खिलाड़ी की तरह शानदार कदम उठाते हुए सोवियत संघ के साथ शांति, सहयोग और मैत्री की बीस वर्षीय संधि पर 9 अगस्त, 1971 को हस्ताक्षर किए जिसके तहत दोनों देशों के बीच जरूरत के समय एक-दूसरे को सैन्य सहायता देने पर सहमति बनी। सोवियत संघ के साथ भारत की इस संधि ने पासा ही पलट दिया। अमेरिका के सामने आगे कुआं और पीछे खाई वाली स्थिति पैदा हो गई, क्योंकि वहां उदारवादी पहले से ही निक्सन और किसिंजर के याह्या खान को दिए जा रहे समर्थन के विरुद्ध थे। चीन ने भी पैर पीछे खींचने में ही भलाई समझी। इंदिरा का पासा बिल्कुल सही समय पर और सटीक पड़ा था।”

सितंबर, 1971 में इंदिरा ने पी. एन. हक्सर के साथ सोवियत संघ की यात्रा की। वहां उन्होंने लोगों का ध्यान आकर्षित करते हुए बताया कि बांग्लादेश में जो हो रहा है, उसे उनका घरेलू मामला मानकर छोड़ा नहीं जा सकता। यह भारत-पाकिस्तान विवाद भी नहीं है। ब्रेजनेव और कोश्यिजिन के साथ बातचीत के बाद भारत लौटते समय इंदिरा की मुट्ठी में सोवियत संघ का वादा भरा था कि बांग्लादेश के मसले पर अगर भारत और पाकिस्तान में युद्ध छिड़ा तो सोवियत संघ की ओर से भारत को सैन्य सहायता मिलेगी। करीब एक महीने बाद ही बांग्लादेश की खराब स्थिति की ओर दुनिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए इंदिरा ने हक्सर और विदेश सचिव के साथ बेल्जियम, फ्रांस, ऑस्ट्रिया, पश्चिम जर्मनी, ब्रिटेन और अमेरिका का दौरा किया।

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राष्ट्रपति निक्सन के साथ इंदिरा गांधी की मुलाकात व्हाइट हाउस के ओवल कार्यालय में 4 और 5 नवंबर, 1971 को हुई। उस दिन को इंदिरा के कई प्रशंसक आयरन लेडी की शख्सियत को सलाम करते हुए याद करते हैं। बातचीत के दौरान जहां इंदिरा ने अपनी बुद्धिमत्ता, विवेक और सशक्त व्यक्तित्व का अभूतपूर्व परिचय दिया, वहीं निक्सन अपनी छाप नहीं छोड़ पाए। कैथरीन फ्रैंक ने लिखा है कि ‘निक्सन के मन में मलाल था कि इंदिरा ने 1956 में राष्ट्रपति आइजनहावर का तो भव्य स्वागत किया था, पर तीन साल पहले जब वह भारत गए थे, तो उनका स्वागत वैसी गर्मजोशी से नहीं किया गया था। ऐसा लगता था कि इंदिरा के व्यक्तित्व में निक्सन दब से गए थे।’

फ्रैंक लिखती हैं कि किसिंजर को महसूस हुआ कि इंदिरा ने उनके अंदर असुरक्षा के सभी भावों का झंझावात खड़ा कर दिया था। कैथरीन फ्रैंक बातचीत के एक हिस्से का कुछ ऐसा विवरण देती हैं: “प्रेस फोटोग्राफरों के चले जाने के बाद इंदिरा ने वियतनाम और चीन में निक्सन की नीति की कुछ इस तरह सराहना की ‘मानो कोई प्रोफेसर किसी कमजोर छात्र की प्रशंसा कर रहा हो’। चीन का जिक्र करते समय भी उनका अंदाज वही रहा और उन्होंने स्पष्ट कहा कि ‘भारत पिछले एक दशक से जो कह रहा है, आखिर निक्सन को वह बात समझ में आ गई।”

निक्सन ने भावविहीन चेहरा बनाते हुए अपने गुस्से पर काबू रखा जबकि हक्सर और किसिंगर सोफे पर ऐसी मुद्रा में बैठे रहे मानो उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा हो।” दूसरे दिन, ‘जब निक्सन ने ओवल कार्यालय पहुंचने से पहले इंदिरा को पैंतालीस मिनट तक प्रतीक्षा-कक्ष में इंतजार करवाया तो इंदिरा को बहुत नागवार गुजरा था, लिहाजा उन्होंने आगामी चर्चा के दौरान पाकिस्तान का कोई जिक्र न करके बड़ी चतुराई से निक्सन के अभद्र व्यवहार का उचित जवाब दिया।

इंदिरा ने निक्सन से अमेरिका के बारे में चर्चा की, अन्य देशों के संबंध में अमेरिकी विदेश नीति के बारे में पूछा। इंदिरा ने पाकिस्तानी सरकार को पूर्वी पाकिस्तान की स्थितियों को संभालने के लिए दो साल देने के निक्सन के विचार को खारिज कर दिया। उन्होंने निक्सन को ‘स्पष्ट शब्दों में जताया कि अगर पाकिस्तान ने भारत की सीमा पर उकसावे वाली हरकतें जारी रखीं तो भारत जवाबी कार्रवाई करने के लिए मजबूर हो जाएगा’।

इंदिरा अमेरिका में उदारवादियों के नजरिये को भांप चुकी थीं, इसलिए उन्होंने सीधे अमेरिकी जनता को ही संबोधित कर दिया और एक भावनात्मक भाषण देते हुए कहा कि ‘शरणार्थियों के शिविरों में भरे लाखों लोगों के चेहरों पर अत्याचार, दर्द और निराशा की गहरी लकीरें उन्हें बेचैन करती हैं। शरणार्थियों की आंखें उन बर्बर यातनाओं को बयां करती हैं जिसके कारण पूर्वी पाकिस्तान से इन लाखों लोगों को पलायन करना पडा। मैं यहां इस उम्मीद से आई हूं कि आप गंभीरता से हमारे यहां हो रही घटनाओं पर गौर करें।”

वाशिंगटन में नेशनल प्रेस क्लब को संबोधित करते हुए उन्होंने बताया कि जनरल याह्या खान के साथ किसी भी तरह की बातचीत संभव नहीं, क्योंकि आप उससे हाथ मिला नहीं सकते, जिसने अपनी मुट्ठी कसकर बांध रखी हो।’

शांति स्थापित करने की सभी उम्मीदें अब समाप्त हो चुकी थीं। स्थिति विस्फोटक हो चुकी थी। हालांकि इंदिरा ने फैसला किया था कि भारत खुद आक्रमण की पहल नहीं करेगा, लेकिन अगर पाकिस्तान ने हमला किया तो भारत उसे करारा जवाब देगा। वही हुआ। 3 दिसंबर, 1971 को पाकिस्तान ने भारत के पश्चिमी क्षेत्र में नौ हवाई ठिकानों पर बमबारी की और इंदिरा ने 4 दिसंबर को युद्ध की घोषणा कर दी। बाकी तो इतिहास है। पूर्वी पाकिस्तान को भारतीय सैनिकों और बांग्लादेशी मुक्ति बाहिनी ने मिलकर मुक्त करा लिया। 16 दिसंबर को ढाका में मुजीब की सरकार बनी।

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