राम पुनियानी का लेखः बजरंग दल की रगों में हिंसा, बाबरी मस्जिद गिराने से ग्राहम स्टेंस के परिवार को जलाने तक भूमिका

कर्नाटक में समाज को धार्मिक आधार पर ध्रुवीकृत करने के लिए बीजेपी की चुनावी सभाओं में ‘जय बजरंगबली’ के नारे लगाए गए। किसी ने यह भी पूछा है कि जिन लोगों ने भारत के संविधान के नाम पर शपथ ली है, क्या वे सार्वजनिक मंचों से भगवानों के जयकारे लगा सकते हैं?

फाइल फोटोः GettyImages
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राम पुनियानी

कर्नाटक विधानसभा चुनाव का चुनाव बुधवार को संपन्न हो गया। इससे पहले चुनाव अभियान के दौरान अपने घोषणापत्र में कांग्रेस ने वादा किया है कि अगर राज्य में उसकी सरकार बनी तो नफरत फैलाने वाले संगठनों पर प्रतिबन्ध लगाया जाएगा। पीएफआई पर पहले से ही प्रतिबन्ध लगाया जा चुका है। कांग्रेस ने संघ परिवार के सदस्य बजरंग दल को भी पीएफई के समतुल्य बताया है।

इस बात पर हंगामा खड़ा हो गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लेकर वार्ड स्तर के नेताओं तक ने इसे चुनावी मुद्दा बना लिया है। एक तरह से उन्हें वह मैदान मिल गया है जिसमें खेलना उन्हें सबसे ज्यादा पसंद है। वे बजरंग दल को भगवान हनुमान के तुल्य बताने लगे हैं और मोदी ने कांग्रेस पर आरोप लगाया है कि वह भगवान हनुमान को उसी तरह कैद करने का प्रयास कर रही है जैसे उसने भगवान राम को किया था। ज्ञातव्य है कि अब तक बीजेपी चुनावों में भगवान राम के नाम का भरपूर इस्तेमाल करती आई है।

कांग्रेस ने पलटवार करते हुए कहा कि भगवान हनुमान की तुलना बजरंग दल से करना उनका अपमान है और बीजेपी ने ऐसा करके हिन्दुओं की भावनाओं को चोट पहुंचाई है। कुछ लोगों ने यह भी याद दिलाया है कि प्रमोद मुत्तालिक की श्री राम सेने पर गोवा की बीजेपी सरकार ने प्रतिबन्ध लगाया था। जब बीजेपी स्वयं भगवान राम के नाम वाले संगठन को प्रतिबंधित कर सकती है तो बजरंग दल के मुद्दे पर हंगामा मचाने को अवसरवादिता के अलावा क्या कहा जा सकता है।

भगवान हनुमान को देश के कई हिस्सों में श्रद्धा के साथ पूजा जाता है और तुलसीदास कृत ‘हनुमान चालीसा’ शायद सबसे लोकप्रिय प्रार्थनाओं में से एक है। हनुमान अपने आराध्य के प्रति श्रद्धा और भक्ति के प्रतीक भी हैं। क्या बजरंग दल को हम किसी भी तरह बजरंगबली से जोड़ सकते हैं?

समाज को धार्मिक आधार पर ध्रुवीकृत करने के लिए बीजेपी की चुनावी सभाओं में ‘जय बजरंगबली’ के नारे लगाए गए। किसी ने यह भी पूछा है कि जिन लोगों ने भारत के संविधान के नाम पर शपथ ली है, क्या वे सार्वजनिक मंचों से भगवानों के जयकारे लगा सकते हैं? अगर दूसरे धर्म में आस्था रखने वाले नेता ‘नारा ऐ तकबीर-अल्लाह ओ अकबर’ का नारा आम सभाओं में बुलंद करें तो क्या यह उन्हें स्वीकार होगा?


बजरंग दल आखिर है क्या? वह विश्व हिन्दू परिषद् (विहिप) की एक शाखा है और विहिप, आरएसएस का अनुषांगिक संगठन है। विहिप सन 1980 के दशक में अचानक चर्चा में आई जब उसने राम मंदिर का मुद्दा जोरशोर से उठाना शुरू किया। बजरंग दल का गठन विहिप की युवा शाखा के रूप में किया गया था ताकि पहले उत्तर प्रदेश और फिर देश के अन्य भागों में युवाओं को राम मंदिर आन्दोलन से जोड़ा का सके।

बजरंग दल ने ही कारसेवा और बाबरी मस्जिद को जमींदोज करने के लिए लड़कों को भर्ती किया। बाबरी मस्जिद के ध्वंस के लिए लोगों को गोलबंद करने में बजरंग दल की महत्वपूर्ण भूमिका थी। यह संगठन हिंसा में यकीन रखता है। यह इससे भी साबित होता है कि लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के दौरान उसने खून से भरा एक पात्र आडवाणी को भेंट किया था और उनके माथे पर रक्त का टीका भी लगाया था। हिंसा इस संगठन के रगों में है।

बजरंग दल के मुखिया विनय कटियार, जो बाद में बीजेपी सांसद बने, ने बाबरी ध्वंस की पूर्व संध्या पर कहा था कि मस्जिद को मिटा दिया जाएगा और उसके मलबे को सरयू नदी में बहा दिया जाएगा। बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद किस तरह की भयावह हिंसा पूरे देश में हुई थी यह हम सब को पता है।

बजरंग दल वैलेंटाइन्स डे के भी खिलाफ था और देश के कई भागों में उसने इस दिन प्रेमी जोड़ों की पिटाई भी की। बाद में उसने लड़कियों के जीन्स पहनने पर भी आपत्ति जताई और महिलाओं के लिए एक ‘ड्रेस कोड’ भी बनाया। 

पास्टर ग्राहम स्टेंस और उनके दो मासूम बच्चों की जिंदा जलाकर क्रूर हत्या को तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने “समय की कसौटी पर खरी उतरे सहिष्णुता और सद्भाव के मूल्यों के भयावह पतन” का प्रतीक बताते हुए कहा था कि “यह कुत्सित कांड दुनिया के सबसे काले कारनामों की सूची में शामिल होगा”। उस समय के केंद्रीय गृहमंत्री एल.के. आडवाणी ने इस अमानवीय घटना में बजरंग दल का हाथ होने से इंकार किया था परन्तु बाद में हुई जांच से पता चला कि बजरंग दल के एक सदस्य राजेंद्र पाल उर्फ दारा सिंह ने इस वीभत्स घटना को अंजाम दिया था। दारा सिंह इस समय आजीवन कारावास की सजा काट रहा है।

सन 2006 से 2008 के बीच देश में अनेक आतंकी हमले हुए। इसी दौरान, नरेश और हिमांशु पांसे नामक दो बजरंग दल कार्यकर्ता बम बनाते हुए मारे गए। घटनास्थल से कुर्ता-पायजामा और एक नकली दाढ़ी भी बरामद हुई। इसी तरह की घटनाएं देश के अन्य कई इलाकों में हुईं। सन 2019 की जनवरी में योगेश राज नाम के एक बजरंग दल कार्यकर्ता को बुलंदशहर में मरी हुई गाय से जुड़े एक मामले में पुलिस इंस्पेक्टर सुबोध कुमार की हत्या करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। हाल में रामनवमी पर हुई हिंसा के सिलसिले में बिहारशरीफ में बजरंग दल के कुंदन कुमार को गिरफ्तार किया गया है।


जहां तक पीएफआई का सवाल है, नफरत फैलाना और हिंसा करना उसकी प्रमुख गतिविधियों में शामिल रहा है। सन 2010 में केरल में ‘ईशनिंदा’ के नाम पर प्रोफेसर जोसफ के हाथ काटने की वीभत्स घटना हम सबको याद है।

धर्म के नाम पर अपनी गतिविधियां चलाने वाले सभी संगठन असहिष्णु होते हैं, नफरत फैलाते हैं और हिंसा का सहारा लेते हैं। इस तरह के संगठनों में समानताएं भी होतीं हैं और अंतर भी।

एक मौके पर राहुल गांधी ने आरएसएस की तुलना मुस्लिम ब्रदरहुड से की थी। उन्होंने कहा था, “आरएसएस भारत के मिजाज को बदलने का प्रयास कर रहा है। देश में कोई ऐसा अन्य संगठन नहीं है जो भारत की सभी संस्थाओं पर कब्जा करना चाहता है। मुस्लिम ब्रदरहुड भी अरब देशों में ठीक यही करना चाहता था। दोनों का लक्ष्य यही है कि उनकी सोच हर संस्था पर लागू होनी चाहिए और अन्य सभी विचारों को कुचल दिया जाना चाहिए।” उन्होंने यह भी कहा कि, “मुस्लिम ब्रदरहुड पर अनवर सादात की हत्या के बाद प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। उसी तरह, महात्मा गांधी कि हत्या के बाद आरएसएस को प्रतिबंधित कर दिया गया था...सबसे दिलचस्प बात यह है कि दोनों ही संगठनों में महिलाओं के लिए कोई स्थान नहीं है।”

इन दोनों संगठनों का काम करने का तरीका बेशक अलग-अलग है परन्तु वे समान इसलिए हैं क्योंकि उनकी नींव उनके धर्मों की उनकी अपनी समझ पर रखी गई है, वे इस सोच को समाज पर लादना चाहते हैं और यही सोच उनकी राजनीति का आधार भी है। वे आज़ादी, बराबरी और भाईचारे के मूल्यों के खिलाफ हैं। और हां, दोनों समाज में परोपकार के काम भी करते है।

पिछले कुछ दशकों में समाज में धार्मिकता बढ़ी है और धर्म के नाम पर राजनीति भी। समाज में दकियानूसीपन बढ़ा है और आस्था पर आधारित सोच हावी हुई है। नतीजा यह है कि धर्मनिरपेक्ष पार्टियां भी सांप्रदायिक ताकतों द्वारा धर्म के उपयोग को नजरअंदाज नहीं कर पा रही हैं। तालिबान महिलाओं को कुचल रहा है। परन्तु क्या महिलाओं को जीन्स पहनने से रोकना या उन्हें बुर्का पहनने पर मजबूर करना भी तालिबानी सोच का कुछ नरम संस्करण नहीं है?

(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)

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