विष्णु नागर का व्यंग्यः वोट चोर ऐसा-वैसा चोर नहीं, सबकुछ छोड़ सकता है, पर गद्दी नहीं!
चोर अंदर गया। पजामा छोड़कर चड्डी पहन आया। आवाज़ आई। अरे बेशर्म चोर, कपड़े पहन, गद्दी छोड़। बेशर्म चड्डी में गद्दी पर बैठा रहा। नीचे से आवाज़ आई- राजा नंगा है। राजा ने कहा, नहीं, राजा खाकी चड्डी में है। नीचे से आवाज़ आई- 'वोट चोर, गद्दी छोड़।

एक दिशा से आवाज़ आई- ' वोट चोर, गद्दी छोड़।' वोट चोर ने इसे इस कान से सुना, उस कान से निकाल दिया। फिर दो दिशाओं से आवाज आने लगी तो भी उसने यही किया। जब तीन दिशाओं से आवाज आने लगी तो उसने दोनों कानों में रुई ठूंस ली। मगर जब चारों दिशाओं से यही आवाज आने लगी तो वह कुछ-कुछ घबराया, कुछ-कुछ चौंका! मैं और चोर? फिर भी उसने कहा कि अच्छा जी, मेरे रहते ऐसा हो गया है। वोटों की चोरी हो गई है! मुझे तो पता ही नहीं चला। मुझे पहले पता चल जाता तो मैं उसे तुरंत रोक देता। मैं घनघोर लोकतांत्रिक मानवी हूं।मुझे पद का शौक नहीं। हार जाता तो झोला उठाकर चल देता!
खैर अब मैं असली चोर का पता लगाऊंगा और उसे कड़ी से कड़ी सजा दिलवाऊंगा। इसके बावजूद आपको शक है कि मैं ही वोट चोर हूं तो इस तथाकथित चोरी के पाप के प्रक्षालन के लिए मैं आज ही अपने सिर पर उस्तरा चलवाने को तैयार हूं मगर तब आपको मुझे वोट चोर कहना छोड़ना होगा! केश त्याग का हिंदू धर्म में बहुत महत्व है!
मगर 'वोट चोर गद्दी छोड़' की आवाज़ थमी नहीं। लोगों ने कहा, हमें तुम्हारे सिर के बालों से कोई मतलब नहीं। वैसे भी तुम गंजे हो। त्यागने के लिए तुम्हारे पास कुल चार ही तो बाल हैं। फिर भी बाल तो तुम जितने चाहे, उगा लो। पूरी खोपड़ी बालों से भर लो मगर हो तो तुम वोट चोर। 'वोट चोर, गद्दी छोड़'।
उसने कहा- 'गद्दी और मैं और गद्दी छोड़ दूं? यह हो नहीं सकता! गद्दी कोई छोड़ता है भला? गद्दी छोड़ने के लिए होती है! चलो फिर भी तुम्हारा मन रखने के लिए मैं अपनी बरसों से प्यार से पाली हुई दाढ़ी छोड़ सकता हूं, जिसमें एक भी तिनका नहीं लगा है। फिर तो मैं चोर लगूंगा भी नहीं।' लोगों ने कहा, हमें तेरी दाढ़ी से कोई मतलब नहीं। तू चाहे तो गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसी दाढ़ी रख ले। चंद्रशेखर आजाद जैसी मूंछें उगा ले। चोर तो फिर भी चोर ही रहेगा। 'वोट चोर गद्दी छोड़'।
'अच्छा ऐसा है कि आजकल के चोर ऐनक पहनने लगे हैं। मैं भी ऐनक पहनता हूं। चलो, मैं इस महंगी ऐनक का त्याग करने के लिए तैयार हूं। गद्दी बचाने के लिए कोई भी त्याग छोटा नहीं। वैसे भी मुझे पढ़ने-लिखने में कोई दिलचस्पी नहीं! पढ़ने-लिखने वालों को मैं अपना दुश्मन मानता हूं।फिर आवाज आई, तू ऐनक तो बच्चों की तरह एक के ऊपर चाहे चार और पहन या दस पहन ले। देशी पहन ले या विदेशी पहन ले। एक लाख की पहन ले या दस लाख की पहन ले या मत पहन। मगर 'तू वोट चोर है, तू गद्दी छोड़'।
अच्छा चलो, 'मैं जूते पहनना छोड़ दूंगा। चप्पल पहनने लगूंगा। अब तो खुश। अब तो नहीं कहोगे, वोट चोर....' उन्होंने कहा, तू जूते पहन या चप्पल पहन या चाहे नंगे पांव रह। 'वोट चोर, गद्दी छोड़।' उसने कहा, अच्छा चलो, बंडी पहनना छोड़ सकता हूं। उससे भी जब बात नहीं बनी तो उसने कुर्ता उतारने का प्रस्ताव दिया। फिर उसने बनियान उतार कर दिखा दी। उसने कहा, मैं कुर्सी के लिए तो पजामा भी उतार सकता हूं मगर इसके अंदर कुछ नहीं है। फिर भी चलो, कुछ करके दिखाता हूं।
तब भी चारों ओर से एक ही आवाज आ रही थी- 'वोट चोर गद्दी छोड़'। चोर अंदर गया। पजामा छोड़कर चड्डी पहन आया। आवाज़ आई। अरे बेशर्म चोर, कपड़े पहन, गद्दी छोड़। बेशर्म चड्डी में गद्दी पर बैठा रहा। नीचे से आवाज़ आई- राजा नंगा है। राजा ने कहा, नहीं, राजा खाकी चड्डी में है। नीचे से आवाज़ आई- 'वोट चोर, गद्दी छोड़।
अगली बार जब आवाज़ आई- 'वोट चोर' तो चोर ने भी नारे में जवाब दिया- 'गद्दी छोड़'। अगली बार खुद चोर ने नारा लगाया- 'वोट चोर'। नीचे से आवाज़ आई- 'गद्दी छोड़।' कभी जनता कहती 'वोट चोर', तो चोर कहता, 'गद्दी छोड़'। कभी चोर कहता, 'वोट चोर' तो जनता कहती- 'गद्दी छोड़'। और इस तरह चोर यह खेल जनता से खेलता रहा और जब वह समझ गया कि उसके इस खेल को भी जनता समझ गई है तो वह अंतर्ध्यान हो गया।