विष्णु नागर का व्यंग्य: गाय को जानवर कहने में भी, गाय से नहीं, गोरक्षकों से डर लगता है

गाय अपने को जानवर समझती है और हम उसे अपनी मां समझते है। मैं ही क्या, पीएम मोदी भी उसे(गाय) समझाने की कोशिश करें तो समझा नहीं सकते। जिसे अपनी भूख मिटाने के लिए दिन में कई बार दुत्कार मिलती हो।

फोटो: सोशल मीडिया 
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विष्णु नागर

पता नहीं मुझे गाय के बारे में सोचने का हक अब रहा या नहीं, आजकल लगता है कि यह हक़ मुझे नहीं रहा। क्योंकि मैं धर्मनिरपेक्ष होने की गलती बचपन में ही कर बैठा था। यह गलती बचपन में करने से रोकने की बेचारे संघी भाइयों ने खूब कोशिश की मगर तब नेहरू जी का जमाना था, असर नहीं हुआ बल्कि इस गलती को मैं जीवन में अब तक इतनी बार कर चुका हूं कि अब क्या ख़ाक मुसलमां होंगे वाली स्थिति आ चुकी है।

वैसे आजकल धर्मनिरपेक्ष होने और मुसलमान होने से बड़ा गुनाह कुछ नहीं है, और ऐसे गुनहगार का यह अधिकार स्वत: छिन जाता है कि वह गाय के बारे में सोचे लेकिन हिंदूवादी क्षमा करें कि मैं अपने दिमाग को सोचने से रोक नहीं पाया और गाय के बारे में सोचने की गलती भी इस उम्र में जाकर भी कर बैठा। यह सठियाने का लक्षण है, जो लाइलाज है और ज्यादातर को लाइलाज बीमारियां 60 साल के बाद होनी शुरू होती हैं। मुझे लगने लगा है कि गाय को इतना गाय भी नहीं होना चाहिए कि उसे भारत में अपनी ‘पवित्रता’ की भनक तक न हो।

वह अपने को जानवर समझती रहे और हम उसे अपनी मां समझते रहें। लेकिन मुश्किल यह है कि मैं ही क्या नरेंद्र मोदी भी उसे समझाने की कोशिश करें तो समझा नहीं सकते। जिसे अपनी भूख मिटाने के लिए दिन में हजार बार दुत्कार मिलती हो, वह आदमी भी हो तो उसे समझाया नहीं जा सकता, तो गाय तो फिर भी गाय है, जानवर है, हालांकि गाय को जानवर कहने में भी गाय से नहीं, गोरक्षकों से डर लगता है। वे गाय की कम डर की रक्षा ज्यादा करते हैं। गाय के साथ भय भी अब रक्षणीय-संरक्षणीय हो चुका है।

गाय समझ नहीं सकती, यह मुझे उसका ‘दुर्भाग्य’ लगता रहा है लेकिन अब लगता है कि यही उसका असली ‘सौभाग्य’ है क्योंकि अब आदमी भी वही ‘सौभाग्यशाली’ और ‘सुखी’ होते हैं, जो सोचने-समझने और सुनने से इनकार करते हैं जैसे कि आजकल वाले भक्त। भक्ति यह सुविधा देती है कि अपने हितों के अलावा कुछ भी सोचने से इनकार कर दो। सोचना-समझना अब अपने दुर्भाग्य को बुलावा देना है, जो बिना बुलाये भी आने को तैयार रहता है। बल्कि आप उसे बुलाने में देर कर दें तो ख़ुद शान से चला आता है। इसलिए सोचिये कि अगर गाय भी सोचने लगती तो उसका क्या हाल हुआ होता, उसकी पवित्रता न जाने कब की नष्ट हो चुकी होती, यहां तक कि वह हमारी माता भी नहीं रहती।

इसलिए गाय जो करती है, अपने हित में ठीक करती है और जो हिंदुत्व का लक्षण समझा जाता है, वह उसमें न जाने कब से है। दूसरे जानवर भी सोचने की ग़लती नहीं करते, लेकिन उन्हें इसका लाभ नहीं मिलता, चाहे वह शेर ही क्यों न हो।

बचपन में मैंने गाय ही क्या भैंस का गोबर भी खूब उठाया है क्योंकि उससे मां घर लीपती थी बल्कि घोड़े की लीद भी उठाई है क्योंकि वह गोबर की मदद करती है। तब मुझे पता नहीं था कि गाय हमारी माता है, मैं भैंस और घोड़े और गाय में फ़र्क़ नहीं कर पाता था। लेकिन यह बचपन की ग़लती थी, जो माफ़ करने योग्य है। इसकी माफ़ी मैं आज मांगता हूं। हालांकि आजकल माफ़ी मांगने पर ज्यादा मार पड़ती है।

मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि गाय, गाय ही रहे और भैंस, भैंस ही और मैं जो भी, जैसा भी हूं, वैसा बना रह सकूं। लेकिन ईश्वर जानता है कि यह प्राणी नास्तिक है और इसकी प्रार्थना सुनने योग्य नहीं है।

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